यूपीः परवान चढ़ती दावों-वादों-आरोपों की सियासत

0
155

संजय सक्सेनाup

उत्तर प्रदेश में अब विधान सभा चुनाव से पूर्व किसी तरह के कोई चुनाव नहीं होने हैं। इस लिये सभी राजनैतिक दलांे के शीर्ष नेतृत्व ने अपना-अपना ध्यान मिशन 2017 (विधान सभा चुनाव) पर केद्रित कर लिया है।भाजपा,बसपा और कांगे्रस का तो चुनावी मोड में आना स्वभाविक है। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के प्रदेश मुखिया और सीएम अखिलेश यादव भी इस दौड़ में पीछे नजर नहीं आ रहे हैं। कहीं सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने की होड़ मची है तो कहीं वायदों का पिटारा खोला जा रहा है।बीएसपी दलित वोटरों को साधने में लगी है तो कांगे्रस के रणनीतिकारों को लगता है कि ब्राहमण और मुसलमान उसके साथ आ सकता है। पिछली बार विधान सभा चुनाव में बुरी तरह से मुंह की खाने वाली कांगे्रस का तो कुछ महीनों मंे हुलिया ही बदल गया है। ब्राहमण वोटरों को लुभाने के लिये कांगे्रस प्रमोद तिवारी और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर दांव लगाने का मन बना रही है तो मुस्लिमों को कांगे्रस की तरफ लुभाने के लिये गुलाम नबी आजाद भी कश्मीर छोड़कर यूपी में कूद पड़े हैं। सपा को पिछड़ों और अल्पसंख्यक वोटों पर भरोसा है तो अंदर ही अंदर डर इस बात का भी सता रहा है कि कहीं ऐन चुनाव से पहले मायावती कांगे्रस के साथ हाथ मिलाकर उसके अल्पसंख्यक वोट बैंक पर ‘डाका’ न डाल दें।बीजेपी भी अपने परम्परागत वोट बैंक के अलावा दलितों, पिछड़ों को लुभाने के लिये मचल रही है।एक लाइन में कहा जाये तो यूपी में दावों-वादों और आरोपों की सियासत चमर पर पहुंच गई है।
सभी दलों का शीर्ष नेतृत्व लगातार यह कोशिश कर रहा है कि चुनावी साल में कोई ऐसी-वैसी चूक न हो जाये जिससे उसकी साख पर बट्टा लग जाये या फिर उसके वोटर नाराज हो जायें, लेकिन बीजेपी के तमाम नेताओं और रणनीतिकारों को शायद इसकी जरा चिंता नहीं है। इसी लिये उसकी पार्टी के रणनीतिकार एक के बाद एक सियासी भूल करते जा रहे हैं। यह भूल बीजेपी को विधान सभा चुनाव में ‘भारी’ पड़ सकती है।बात गलत फैसलों की कि जाये तो इस साल हुए विधान परिषद और राज्यसभा के चुनावों में तो बीजेपी की काफी फजीहत हुई ही इसके अलावा भी कई ऐसे मौके आये जब बीजेपी को कभी विरोधी तो कभी उसके दल के ही नेता ‘नीचा’ दिखाते रहे हैं। यह सब क्यों हो रहा है। इसके पीछे कौन सी ताकते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है, परंतु नेतृत्व के ढुलमुल रवैये के कारण किसी के भी खिलाफ अनुशासनहीनता की कार्रवाई नहीं हो रही है। कभी योगी आदित्याथ,साक्षी महाराज,साध्वी निरंजन ज्योति आदि कट्टर हिन्दुवादी नेता तो कभी वरूण गांधी जैसे महत्वाकांक्षी नेता अपने समर्थकों के सहारे पार्टी और सरकार के लिये मुसीबत खड़ी कर देते हैं।
निर्णय लेने में चूक राष्ट्रीय नेतृत्व भी कर रहा है और यूपी की प्रदेश इकाई भी। सबसे बड़ी समस्या यही है कि बीजेपी यही नहीं तय कर पा रही है कि वह किन मुद्दांें और किस नेता के फेस को आगे करके चुनाव मैदान में उतरे। मोदी विकास के एजेंडे पर तो उनकी पार्टी के तमाम नेता हिन्दुत्व के सहारे आगे बढ़ रहे हैं। मोदी भ्रष्टाचार और गुंडाराज के सहारे बसपा-सपा को घेरते हैं तो उनकी ही पार्टी के नेता 2012 के विधान सभा चुनाव से पूर्व भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाने वाले पूर्व बसपा नेता बाबू सिंह कुशवाह तो विधान परिषद चुनाव में गुड्डू पंडित जैसे आपराधिक प्रवृति के नेता से हाथ मिला लेते हैं।बाबू सिंह कुशवाह के कारण विधान सभा चुनाव के समय बीजेपी को जबाव देना मुश्किल हो गया था, लेकिन इससे सबक लेने की बजाये आलाकमान ने गुड्डू पंडित के रूप में एक गलती और कर दी। बात गुड्डू पंडित तक ही सीमित नहीं है। विधान परिषद के मुकाबले राज्यसभा चुनाव में दो वोट मिलने के बावजूद भाजपा ने अपनी किरकिरी करा ली। गुड्डू पंडित जैसे विधायक को गले लगाने के बाद भी वह प्रीति महापात्र की नैया पार न लगा पाई। पार्टी के भीतर सवाल उठने लगे कि जब चुनाव जीतने का गणित नहीं था तो अतिरिक्त प्रत्याशी खड़ा करने की जरूरत क्या थी। आपराधिक छवि वाले गुड्डू पंडित से हाथ मिलाकर फजीहत झेलने वाली बीजपी के लिये विजय बहादुर प्रकरण भी दुखदायी साबित हुआ, जिस विधायक विजय बहादुर यादव की बगावत पर परदा पड़ा था। वह राज्यसभा की वोटिंग से हट गया। पार्टी यह कहने लायक नहीं बची कि उसमें भीतरघात नहीं हैं। भाजपा के पास इस सवाल का क्या जवाब होगा कि जिस पार्टी के नेता अटल जी ने एक वोट के लिए समझौता करने के बजाय सत्ता छोड़ना पसंद किया, उस पार्टी ने एक सीट की खातिर गुड्डू पंडित को क्यों गले लगा लिया। साथ ही पर्याप्त वोट न होते हुए भी ऐसी स्थिति पैदा की जिसमें खरीद-फरोख्त की चर्चा को बल मिला। विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव में जिस तरह से क्राॅस वोटिंग हुई, उससे राजनीतिक दलों का अंदरूनी घमासान तो खुलकर सामने आ ही इसके अलावा बीजेपी में तो हार के बाद विधान परिषद प्रत्याशी दयाशंकर ंिसंह अपने ही नेताओं से भिड़ गए।भले ही बीजेपी की हर तरफ फजीहत हो रही हो लेकिन पार्टी प्रवक्ता हरीश चन्द्र श्रीवास्ताव की सोच अलग है। वह कहते हैं भाजपा अपनी रणनीति में कामयाब रही। एक बार यह फिर साबित हो गया कि सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद सभी मिले हुए हैं। कहने को ये भले अलग-अलग दल हों लेकिन सब एक हैं। भाजपा लोगों को बताना चाहती थी कि ये दल अलग है। इनके झंडे अलग हैं लेकिन किसी में कोई फर्क नहीं हैं। भाजपा ही एकमात्र विकल्प है। भाजपा ने किसी को धनबल से नहीं तोड़ा। टिकट का भी लालच नहीं दिया। सिर्फ नीतियों व सिद्धांतों पर समर्थन मांगा। भले ही श्रीवास्तव यह तर्क दें लेकिन इस चुनाव ने एक बार फिर पार्टी की कथनी-करनी का अंतर उजागार कर दिया है।बीजेपी ने संकेत भी दे दिया है कि उस न तो दागियों से परहेज है, न दलबदलुओं से सवाल यही उठता है कि पार्टी ने ऐसी हालत क्यों बनने दी जिसमें दूसरों से अलग होने के उसके दावों पर सवाल उठे। इन सवालों का जवाब भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।
बसपा की बढ़त का संदेश अलग चला गया। बसपाइयों को यह कहने का अवसर मिल गया कि सपा के मुकाबले हवा उनकी ही है। भले ही प्रदेश अध्यक्ष मौर्य तर्क दे रहे हों कि भाजपा क्या करती ? वह अपने अतिरिक्त वोट सपा, बसपा या कांग्रेस को तो दे ही सकती थी। पर पार्टी के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष का यह सवाल मौर्य के तर्क को भोथरा कर देता हैं कि भाजपा परिषद में दूसरा उम्मीदवार न उतारती और राज्यसभा के लिए प्रीति का पर्चा न भरवाती तो चुनाव ही कहां होता। जब चुनाव न होता तो भाजपा के लिए अपने अतिरिक्त वोटों के लिए असमंजस की नौबत नही आती। किसी दूसरे दल ने तो अतिरिक्त उम्मीदवार उतारा नहीं था।भाजपा प्रत्याशी को हार का सामना तो करना ही पड़ा इसके अलावा मैसेज यह भी गया कि 2017 के विधान सभा चुनाव के लिये जमीनी स्तर पर बसपा ज्यादा मजबूती के साथ खड़ी है। भाजपा को सबक सिखाने और उसकी बढ़ती ताकत को कम करने के लिये मायावती को उस कांगे्रस के साथ खड़े होने में भी परहेज नहीं हुआ जिसके बारे में आम धारणा यही है कि कांगे्रस लगातार हासिये पर जा रही है। उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली बसपा ने हाल ही में सम्पन्न राज्यसभा चुनावों में भी कांगे्रस प्रत्याशियों का खुलकर साथ दिया। अब तो यह भी कहा जा रहा है कि 2017 में बीजेपी को सबक सिखाने के लिये कांगे्रस-बसपा एक साथ आ सकते हैं।
बात बीजेपी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के नाम की कि जाये तो काफी जोरों से चर्चा चल रही थी कि इलाहाबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यूपी के संभावित सीएम का फेस सामने आ जायेगा, लेकिन यहां भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। बैठक और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की परिर्वतन रैली को जानकारों ने संगम से यूपी चुनाव का शंखनाद जरूर बताया, लेकिन कुछ सवाल अधूरे ही रह गये। बीजेपी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेगी या फिर हिन्दुत्व उसके एंजेडे में सबसे ऊपर होगा। पीएम मोदी ने अपनी रैली में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद पर हमला बोलते हुए विकास को सबसे अधिक महत्व दिया, लेकिन इससे पहले हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विकास से अधिक मथुरा मेें पुलिस वालों की मौत और कैराना से हिन्दुओं के पलायन का ही मसला ज्यादा छाया रहा था।
बहरहाल, बीजेपी के गलियारों से जो खबर निकल कर आ रही है उसके अनुसार पार्टी एक्टिव मोड में आ गई है। अखिलेश सरकार का कार्यकाल खत्म होने में अब चंद महीने का समय बचा हैं। यह कुछ महीने सभी दलों के लिये महत्वपूर्ण हैं।इसी लिये बीजेपी सूबे में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। भाजपा पर 2014 के लोकसभा चुनाव का रिकार्ड दोहराने का भी दबाव है। तब उसे 73 सीटें (गठबंधन के साथ) मिली थीं जिसके सहारे उसका बहुमत के साथ दिल्ली का रास्ता साफ हो गया था,लेकिन अब डर यह भी सता रहा है कि कहीं इन 73 सांसदों के खिलाफ उपजी जनता की नाराजगी विधान सभा चुनाव में भारी न पड़ जाये जो रिपोर्ट आ रही हैं उसके अनुसार बीजेपी के अधिकांश सांसद जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाये हैं। यह बात किसी सर्वे के आधार पर नहीं कही जा रही है। पीएम मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी कई बार इस तरह के संकेत दे चुके हैं।हालांकि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में अंतर होता है, लेकिन यह बात बीजेपी की तरफ से जाहिर नहीं की जा रही है। लोकसभा चुनाव की जीत के बाद दिल्ली, बिहार के विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार भाजपा के लिये बुरे सपने जैसी रही तो असम में मिली सत्ता और तमाम किन्तु-परंतुओं के बीच राज्यसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से भाजपा का उत्साहित होना स्वाभाविक है। मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने या नहीं करने का फैसला अभी अटका हुआ है और कहा यही जा रहा है कि पार्टी का संसदीय दल करेगा, लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी से पहले जिस तरह से राजनाथ सिंह, वरूण गांधी, योगी आदित्यनाथ और स्मृति ईरानी के नाम सीएम की रेस में सामने आए और इस पर पार्टी के नेताओं की ओर से जिस तरह से सफाई दी गई, उसका आश्य यही है कि अभी सीएम के फेस के मामले में पार्टी में कोई एक राय नहीं बनी है। भाजपा आलाकमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमों मायावती के मुकाबले किस नेता को खड़ा करती है या फिर नहीं भी,यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। मगर एक बात साफ है कि पं्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा हांेगे और वह विकास की ही बात करेंगे लेकिन उनके सामने चुनौती इस बात की भी होगी कि वह प्रदेश के मतदाताओं को यह बात समझा सकें। यूपी में तो अधिकांश चुनाव जातिवादी राजनीति और वोटों के धु्रवीकरण के सहारे ही जीते जाते हैं। खैर, मोदी प्रधानमंत्री होने के साथ यूपी से सांसद भी है, इस लिये उन्हें बिहार की तरह बाहरी बता कर खारिज भी नहीं किया जा सकता है।परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि इससे बीजेपी के प्रदेश स्तरीय नेताओं का महत्व कम हो जायेगा। यूपी में बीजेपी बिहार वाली गलती(मोदी को पोस्टर बाॅय बनाने की ) शायद ही दोहराये। यूपी में समय और जगह के अनुसार उनके साथ प्रदेश स्तरीय नेताओं को भी प्रचार माध्यमों में पूरा स्थान मिलेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here