पहाड़ों का सर्वनाश: उत्तराखंड की आखिरी चेतावनी

“देवभूमि का दर्द: विकास के नाम पर विनाश”

उत्तरकाशी के थराली में बादल फटने से हुई भीषण तबाही उत्तराखंड के पर्यावरणीय संकट की गंभीर चेतावनी है। विकास के नाम पर हो रही पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई, अवैज्ञानिक निर्माण और बेतरतीब पर्यटन ने पहाड़ों की सहनशीलता को खत्म कर दिया है। जमीन की लूट, संस्कृति का क्षरण और लगातार बढ़ता तापमान, उत्तराखंड को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। यह लेख केवल एक त्रासदी का बयान नहीं, बल्कि उस गूंगी प्रकृति की पुकार है जिसे हमने वर्षों से नजरअंदाज किया। अब वक्त है रुकने, सोचने और सुधरने का — वरना अगली आपदा आपके दरवाज़े पर होगी।

उत्तरकाशी के थराली में बादल फटा। चार लोग मारे गए, पचास से अधिक लापता हैं। पूरा का पूरा गांव मिट्टी में मिल गया। पहाड़ एक बार फिर चीख पड़ा है — मगर इस बार उसकी चीख में सिर्फ पीड़ा नहीं, बल्कि आक्रोश है। वर्षों से सहते-सहते अब पहाड़ों ने जवाब देना शुरू कर दिया है। और यह सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि हमारी बनाई हुई त्रासदी है। हमने पहाड़ों को छेड़ा, उन्हें काटा, उन्हें चीर दिया — और अब वे टूटने लगे हैं, बिखरने लगे हैं।

उत्तराखंड, जिसे देवभूमि कहा जाता था, अब आपदाओं की भूमि बन गया है। बारिश, भूस्खलन, बादल फटना, नदी का रुख बदल जाना — अब ये आम हो गया है। हर मानसून एक गांव बहा ले जाता है, हर बरसात किसी के घर उजाड़ जाती है, और हर बारिश एक नई लाश गिनती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारें चुप हैं, योजनाएं गूंगी हैं और जनता बेबस।

जिसे हम विकास कहते हैं, दरअसल वह विनाश का दूसरा नाम बन चुका है। पहाड़ों पर सड़कें बनाने के लिए डायनामाइट से विस्फोट किए जाते हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई होती है। पूरी की पूरी पर्वत श्रृंखलाएं काटी जाती हैं, ताकि टनल बने, चौड़ी सड़कें बनें, जल परियोजनाएं बनें। लेकिन ये सब किस कीमत पर? प्रकृति की शांति और संतुलन को तोड़कर हम क्या हासिल कर रहे हैं? जो सड़कें सुरक्षा लानी चाहिए थीं, वे अब मौत की राह बन गई हैं। जो टनल सुगमता का वादा करती थीं, वे अब आपदा का द्वार बन चुकी हैं।

पर्यटन के नाम पर उत्तराखंड का जिस तरह से दोहन किया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है। सैकड़ों गाड़ियाँ, हजारों पर्यटक, प्लास्टिक का पहाड़, ट्रैफिक की कतारें — यह सब मिलकर उत्तराखंड के पर्यावरण पर ऐसा बोझ डाल रहे हैं, जिसे अब पहाड़ सह नहीं पा रहे। कभी यहां गर्मियों में पंखा नहीं चलता था, अब अक्टूबर में भी लोग एसी चला रहे हैं। यह सिर्फ जलवायु परिवर्तन नहीं, यह चेतावनी है कि हमने अपनी सीमाएं पार कर दी हैं।

बाहरी लोग भारी संख्या में आकर जमीनें खरीद रहे हैं, घर बना रहे हैं, कॉलोनियां उगा रहे हैं। स्थानीय लोगों की जमीनें औने-पौने दामों में छीनी जा रही हैं। संस्कृति खतरे में है, भाषा गुम हो रही है, और पहचान मिट रही है। उत्तराखंड अब उत्तर-हाउसिंग प्रोजेक्ट बन चुका है। जो भूमि कभी साधु-संतों की थी, अब रियल एस्टेट माफिया की गिरफ्त में है। और सरकारें बस तमाशबीन बनी बैठी हैं।

दिल्ली से उत्तराखंड तक एक्सप्रेसवे बनने वाला है। इस पर कोई गर्व महसूस कर सकता है, लेकिन जो लोग उत्तराखंड की आत्मा को जानते हैं, उन्हें पता है कि यह सड़क उस दरवाजे की आखिरी कड़ी होगी जो शांति की ओर जाता था। यह मार्ग विकास के नाम पर उत्तराखंड की आत्महत्या की कहानी बन जाएगा। अभी तो वीकेंड में ही दिल्ली से हजारों लोग आते हैं, सोचिए जब यह सड़क पूरी होगी और हर दिन लाखों की भीड़ पहाड़ों पर चढ़ेगी — तब क्या बचेगा यहां?

विनाश का यह सिलसिला नियमों की कमी से नहीं, नियत की कमी से है। पर्यावरणीय रिपोर्टें बस एक औपचारिकता बन चुकी हैं। परियोजनाओं को मंजूरी देने वाले अधिकारी जानते हैं कि उनका हर हस्ताक्षर एक पेड़ को मार रहा है, एक चट्टान को कमजोर कर रहा है, एक गांव को डुबो रहा है। लेकिन धन, पद और प्रभाव के आगे ये सारी चेतावनियां बेअसर हो जाती हैं। इसीलिए तो आज स्थिति यह है कि हिमालय जैसा अचल पर्वत भी थरथराने लगा है।

यह केवल प्राकृतिक संकट नहीं, यह हमारी नैतिक विफलता भी है। हमने न सिर्फ पेड़ काटे, बल्कि भरोसे भी काट डाले। नदियों की धारा मोड़ी, तो साथ में भविष्य भी मोड़ दिया। हम भूल गए कि हिमालय सिर्फ बर्फ से नहीं बना, वह आस्था से बना है, संतुलन से बना है। और इस संतुलन को तोड़ने की हमारी कोशिश अब हर बरसात में लाशों की गिनती बढ़ाकर जवाब दे रही है।

समाधान कठिन है, पर असंभव नहीं। हमें तत्काल प्रभाव से नई निर्माण परियोजनाओं पर रोक लगानी होगी। पहाड़ों की सहनशीलता को विज्ञान से नहीं, विवेक से समझना होगा। पर्यटन को सीमित करना होगा — उसके लिए ‘Carrying Capacity’ जैसी अवधारणाओं को गंभीरता से लागू करना होगा। पर्यटकों की संख्या तय हो, वाहनों की सीमा तय हो, और सबसे जरूरी — स्थानीय लोगों की भागीदारी के बिना कोई भी निर्णय न लिया जाए।

जमीन की खरीद-फरोख्त पर रोक लगानी होगी। यह जरूरी है कि कोई बाहरी व्यक्ति पहाड़ में जमीन खरीदने से पहले उस भूमि की संस्कृति और पारिस्थितिकी को समझे। नहीं तो वह सिर्फ एक नया खतरा लेकर आएगा।

शिक्षा के स्तर पर हमें जलवायु संकट और पर्यावरणीय जागरूकता को स्कूलों से जोड़ना होगा। बच्चों को यह सिखाना होगा कि पेड़ सिर्फ ऑक्सीजन नहीं देते, वे पहाड़ों को थामे रहते हैं। नदी सिर्फ पानी नहीं देती, वह जीवन देती है। चट्टानें सिर्फ पत्थर नहीं होतीं, वे इतिहास, भूगोल और संस्कृति की नींव होती हैं।

इस समय जब थराली का गांव कीचड़ में दबा पड़ा है, और सैकड़ों परिजन अपनों को ढूंढ रहे हैं — हमें यह समझना चाहिए कि यह शुरुआत नहीं है, यह आखिरी चेतावनी है। अगर अब भी हम नहीं रुके, तो अगली बार यह हादसा किसी और गांव में नहीं, आपके दरवाजे पर दस्तक देगा। दिल्ली, देहरादून, हल्द्वानी, मसूरी — कोई सुरक्षित नहीं बचेगा।

उत्तराखंड सिर्फ एक राज्य नहीं, वह एक चेतना है। उसे बचाना केवल स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी नहीं, यह पूरे देश की जिम्मेदारी है। सरकारों को अब सिर्फ घोषणाएं नहीं, कठोर और साहसी निर्णय लेने होंगे। वरना वह दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड का हर गांव एक थराली बन जाएगा — और फिर हम सिर्फ शोक सभा कर पाएंगे, समाधान नहीं।

आज समय है संकल्प लेने का। समय है यह स्वीकार करने का कि हमने गलती की है — और समय है उसे सुधारने का। अगर अभी नहीं चेते, तो हम इतिहास में दर्ज हो जाएंगे — उन लोगों के रूप में, जिन्होंने देवभूमि को विनाशभूमि बना दिया।

– डॉo सत्यवान सौरभ

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