भ्रष्टाचार व लोकपाल के भंवर में फंसा भारतीय लोकतंत्र

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कुन्दन पाण्डेय

अन्ना के आन्दोलन से एक बात देश का हर नागरिक स्पष्ट रूप से जान गया कि भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री एक ऐसा अघोषित पद बना दिया गया है कि उस (पीएम) पर, पद पर बने रहते आरोप लगाया जा सकता है, उंगली उठाई जा सकती है, परन्तु जांच नहीं की जा सकती। जन-जन को लोकपाल से परिचित कराने के लिए अण्णा को कोटि-कोटि साधुवाद। एक ईमानदार व सच्चे इंसान (पीएम मनमोहन सिंह) की जांच से लोकतंत्र के अस्थिर होने की बात गले के नीचे नहीं उतरती। टीम इंडिया के कप्तान और वर्तमान भारत सरकार के कप्तान की तुलना करना यहां लाजिमी होगा। वर्तमान भारत सरकार के कप्तान निःसंदेह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं, परन्तु जरूरत केवल नेतृत्व कर्ता कप्तान के व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होने की नहीं बल्कि कप्तान की टीम के हर एक सदस्य के ईमानदार होने की है, तभी लोकतंत्र सुचारु से चलेगा। खासकर तब जब टीम के कई सदस्यों पर गबन के आरोप हों और कुछ पर साबित हो चुके हों। धोनी और पीएम दोनों ईमानदार हैं परन्तु धोनी की पूरी टीम निहायती ईमानदार है जबकि पीएम के बारे में इसका ठीक उल्टा है, जिसके एक पूर्व सदस्य जेल में हैं।

‘जब किसी से जीता न जा सके, तो उसका चरित्र-हनन करके उसे पराजित करना कूटनीति का अचूक अस्त्र माना जाता है।’ इसी को ध्यान में रखकर केन्द्र सरकार, बाबा रामदेव के बाद अण्णा हजारे के चरित्र-हनन करने पर रणनीतिक रूप से काम कर रही है। अनन्य समाजवादी डॉ. लोहिया ने सच ही कहा था कि, “जिंदा कौमे 5 साल तक इंतजार नहीं करती।” परन्तु 42 सालों से लोकपाल की प्रतीक्षा कर रहा भारतीय लोकतंत्र अभी तक जिंदा तो है, शायद जीवन जीने के लायक नहीं है।  यदि लोकपाल पर सख्त कानून न बन सका तथा अगले आम चुनाव में प्रमुख मुद्दा नहीं बन सका तो भारतीय लोकतंत्र काले धन रूपी प्रदूषित ऑक्सीजन से ही जिंदा रहेगा। यह बात और है कि इसके स्वरूप के बारे में निश्चित रूप से बस यही कहा जा सकता है कि इस प्रदूषित ऑक्सीजन को ग्रहण करने के कारण भारतीय लोकतंत्र का अंतस-मानस, मन, वचन, कर्म और आचरण-व्यवहार का भी बुरी तरह प्रभावित होना स्वाभाविक ही होगा।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अण्णा और रामदेव को सख्त लोकपाल के सवाल पर धमका कर व खिलाफ जाकर ‘सरकार व भ्रष्टाचार’ एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गए हैं। सरकार चतुराई से अण्णा द्वारा प्रारम्भ लोकपाल आन्दोलन को संसद और लोकतंत्र के खिलाफ साबित करने के दुष्प्रचार में सफल हो गई लगती है। और तो और मुख्य विपक्षी दल भाजपा सहित तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियां अब अण्णा के कठोर लोकपाल के खिलाफ सरकार के साथ हो गयी हैं। क्योंकि एक बार सख्त लोकपाल कानून बन गया तो उसके शिकंजे में सारी पार्टियों की सरकारें आयेंगी। एक तरह से, अण्णा के अनशन, सख्त लोकपाल और भ्रष्टाचार पर अधिकतर दलों का अघोषित गठबंधन बन गया है।

 “सरकार जनता की सामान्य इच्छा की प्रतिनिधि होती है। पाश्चात्य राजनीतिक विचारक टी एच ग्रीन के इस कथन को अगर भारतीय लोकतंत्र में रोज-ब-रोज लोकपाल को लेकर खड़े हो रहे वितंड़े पर लागू करे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत सरकार, सक्षम एवं कठोर लोकपाल की जनता की सामान्य इच्छा के विपरीत है। वह भारत सरकार ऐसा कर रही है, जिसका नेतृत्व कर रहे कांग्रेस को भारत की 121 करोड़ (2009 में इससे कुछ कम करोड़ जनसंख्या निश्चित रूप से होगी) लोगों में से 12 करोड़ से कम लोगों ने मत दिया है अर्थात् केवल 11 करोड़ 90 लाख।

हमारी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यह है कि हम साम्राज्यवादी लूट के माल से विकसित हुए देशों की तरह विकसित तो होना चाहते हैं परन्तु लूट नहीं करना चाहते, इतिहास गवाह है कि हमने कभी किसी भी देश को नहीं लूटा है। लेकिन इसी भारतीय लोकतंत्र के तमाम पहरूएं विकसित होने के लिए दूसरे देश को तो नहीं, अपने ही देश और देश के नागरिकों के करों से संग्रहीत भारतीय राज-कोष को या तो लूट रहे हैं या अपनी बपौती की तरह हक जमाते हैं।

‘सार्वजनिक धन व राजकीय कोष’ से देश का कोई भी नेता व नौकरशाह, गबन करने को अपना अघोषित जन्मसिद्ध अधिकार समझता है, भाई क्यों न समझे? आखिरकार कुछ भी हो जाय, गबन की राशि की रिकवरी तो नहीं होगी और आजीवन कारावास तो असंभव ही है। फिर इससे अधिक लाभ कहां है। केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन सी सक्सेना ने 1998 में जो कहा, वही अपने सिस्टम की वास्तविकता है कि, भ्रष्टाचार में जोखिम कम और लाभ ज्यादा है

विश्व बैंक की रिपोर्ट का हवाला देते हुए आर्थिक समीक्षा 2009-2010 में कहा गया है कि, “भारत की नौकरशाही एक ऐसे ट्रैफिक जाम की तरह है जिसमें आगे खड़े आदमी को चलने के लिए कहना निरर्थक है। इस विलंब से काफी धन व समय की बर्बादी होती है। यदि नौकरशाही की प्रक्रिया में तेजी लायी जाती है तो उससे ऐसे धन की प्राप्ति होगी जो जमीन में गड़े धन को सिर्फ बाहर निकालने जैसा होगा।”

आईएएस अफसरों को सिखाई जाने वाली भारतीय प्रशासन की व्यावहारिक एबीसीडी है – ए से ‘अवॉइड’ यानी टालना, बी से ‘बाई-पास’ यानी नजरअंदाज करना, सी से ‘कनफ्यूज’ यानी उलझन में डाल देना, डी से ‘डिले’ यानी सबसे अचूक विलंब। यह हमारे प्रशासन का कैसा उदात्त, लोकसेवक और लोकमंगलकारी चरित्र है? ऐसे सकल-गुणनिधान सम्पन्न नौकरशाहों-नेताओं को लोकपाल के दायरे में लाने से लोकतंत्र की अस्थिरता नहीं, बल्कि स्थिरता ही बढ़ेगी, चाहे ऐसा व्यक्ति पीएम ही क्यों न हो।  इसी चरित्र के कारण द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की संस्तुतियों को लागू नहीं किया गया। इसमें लोकपाल को ‘राष्ट्रीय लोकायुक्त’ नाम देकर, संवैधानिक दर्जा देने का उल्लेख था। लेकिन इस आयोग ने पीएम को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने की सिफारिश की थी। इस आयोग ने सांसद निधि को समाप्त करने की अमूल्यवान संस्तुति की थी। 2004 में खुद मनमोहन सिंह ने लोकपाल को आज के हालातों के लिए कहीं अधिक उपयोगी कहा था। गत वर्ष के मध्य तक 17 राज्यों में लोकायुक्त थे। परन्तु सबके कार्य, अधिकार और अधिकार सीमायें अलग-अलग हैं। बस इसे केन्द्र और सभी प्रांतों में एक समान व्यवस्था का वैधानिकीकरण अनिवार्य रूप से करना आवश्यक है।

कुल मिलाकर सख्त लोकपाल कानून बनाने के सवाल पर सरकार की नीयत में खोट ही खोट अब खुलकर दृष्टिगोचर हो रहा है। कांग्रेस एवं सरकार इसलिए भी लोकपाल को लेकर किए जा रहे सिविल सोसाइटी के आन्दोलन से बेपरवाह व निश्चिंत हैं क्योंकि आम चुनाव अभी ढाई साल दूर हैं। तब तक सिविल सोसाइटी व नकारा विपक्ष इस विषय को जिंदा नहीं रख सकते। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पीएम पद को लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर अपने मंत्रिमण्डल सदस्यों के अस्थिरता के बयान को ढ़ाल के रूप में प्रयोग करना, और कुछ नहीं, देश को गुमराह करना है। यह एक मझे हुए चालाक राजनेता का पाक-साफ बच निकलने का बयान है।

क्या पीएम की जांच होने से लोकतंत्र अस्थिर हो जाएगा? तो पीएम के दोषी सिद्ध होने पर तो लोकतंत्र या तो कोमाग्रस्त हो जाएगा या मृत वरेण्य हो जाएगा। यदि उपरोक्त वाक्य वास्तविक होता, तब तो रिचर्ड निक्सन के ‘वाटरगेट कांड’ में फंसकर पदच्युत होने से अमेरिकी लोकतंत्र की मृत्यु हो जानी चाहिए थी। लेकिन किसी व्यक्ति विशेष के गलत होने, भ्रष्ट होने या जांच में दोषी पाए जाने से लोकतंत्र नहीं मरता, यही अमेरिकी लोकतंत्र व रिचर्ड निक्सन के मामले में हुआ था। हां, व्यक्ति की गरिमा व प्रभाव की मृत्यु अवश्य हो जाएगी। पीएम के इस तरह के बयानों से भारतीय सरकार, भारतीय संसद एवं भारतीय लोकतंत्र की विश्वसनीयता को गंभीर अपूर्णनीय क्षति हो सकती है।

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कुन्दन पाण्डेय
समसामयिक विषयों से सरोकार रखते-रखते प्रतिक्रिया देने की उत्कंठा से लेखन का सूत्रपात हुआ। गोरखपुर में सामाजिक संस्थाओं के लिए शौकिया रिपोर्टिंग। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद पत्रकारिता को समझने के लिए भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी रा. प. वि. वि. से जनसंचार (मास काम) में परास्नातक किया। माखनलाल में ही परास्नातक करते समय लिखने के जुनून को विस्तार मिला। लिखने की आदत से दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, दैनिक जागरण भोपाल, पीपुल्स समाचार भोपाल में लेख छपे, इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिली। अंतरजाल पर सतत लेखन। लिखने के लिए विषयों का कोई बंधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, लेखन का प्रिय विषय है। स्वदेश भोपाल, नवभारत रायपुर और नवभारत टाइम्स.कॉम, नई दिल्ली में कार्य।

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  1. आपका लेख वास्तव में सराहनीय है, भारतीय होकर भारतीय लोकतंत्र का पालन करने वाला इन बातो से असहमत नहीं होना चाहिए ,समझ नहीं आता की गठबंधन का नाम प्रगतिशील रख कर सरकार भारत और उसकी जनता को क्या सन्देश देना चाहती है

  2. सत्ताधारी पार्टी अपने अगले कुछ सालों के खर्चे के लिए १९-२० हज़ार करोड़ जुटाएगी की अपने गले में लोकपाल का फंदा अपने हाथों से डालेगी.

  3. कुंदन जी, मुहे जहाँ तक पता है, यूपीए के कार्यल में हुए हर बड़े घोटालों से पीएम के अनभिज्ञ होने की बात एक छलावा है, इसलिए उन्हें इमानदार कहना एक प्रकार से समझौते की तरह लगता है. हाँ, मै बाकी के हर बात से इत्तेफाक रखता हूँ.
    जहाँ तक सवाल लोकपाल और लोकतंत्र का है, इसमें एक तो सरकार और सत्तालोलुप राजनितिक दल इसके साथ छल कर बैठेंगे और दुसरे ज़रा आम आदमी कि भी नब्ज़ देखिये कि उसमे बुराइयों से लड़ पाने का जज्बा है या जैसे दुर्गापूजा के जुलुस में शामिल हुए, वैसे भाजपा-कांग्रेस कि रैली में भी होते हैं, और अब अन्ना रैली को भी एन्जॉय कर लिया. आगे मौका मिला तो फिर करेंगे.

  4. हमाम में सब नंगे हैं,यह वाक्य भारत के रानीतिक दलों पर पूर्ण रूप से खरा उतरता है.इसी लिए एक मजबूत लोकपाल के लिए क़ानून बनना इतना आसान नहीं है,क्योंकि दिखावे के लिए कुछ पार्टियाँ भले ही अन्ना हजारे के इस अभियान का साथ देती नजार आयें,पर सर्व दलीय सम्मेलन में यह बार साफ़ हो गयी थी की कोई भी राजनीतक दल मजबूत लोकपाल बिल के पक्ष में नहीं है..रह गयी अन्ना हजारे का खुद की पार्टी बनाने का प्रश्न ,तो शायद उसका सही वक्त अभी नहीं आया है.अन्ना हजारे के अभियान का दूसरा चरण जो अभी आरम्भ होने जा रहा है,वह है देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जागरूकता फैलाना.अगर अन्ना का स्वास्थ्य साथ देता है और उनके सहयोगी अन्ना हजारे के सन्देश को गाँव गाँव तक ले जाने में सफल हो जाते हैं तो जनता भ्रष्टाचार के विरुद्ध शायद एक ऐसा अभियान छेड़ दे जिसमे राजनितिक दलों को या तो अन्ना हजारे का साथ देना पड़े या समय की धारा में विलीन होने को तैयार होना पड़े.तब समय आयेगा अन्ना हजारे को इमानदार लोगों के साथ मिलकर अपना दल बनाने का.
    ऐसे यह सोचने में आसान लगता है,पर है बहुत ही कठिन .जो लोग भ्रष्टाचार से लाभान्वित हैं वे तो इसमे हर तरह का रोड़ा अटकाएंगे ही,पर आम जनता भी जो सुविधा शुल्क देकर अपना काम करने की आदी हो चुकी है, शायद इस का महत्त्व न समझे.फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए की जनता को अन्ना हजारे पर जिस तरह का विश्वास जगा है और जनता जिस तरह प्रारम्भ में उनके अभियान से प्रभावित हुई है वह प्रभाव स्थाई साबित हो .जब ऐसा माहौल बन जाएगा तभी समय आ सकता है की इमानदारों का एक दल अन्ना हजारे की छत्र छाया में चुनाव के मैदान में कूद पड़े.
    पर देखा जाए की ऐसा माहौल बनता भी है या नहीं..

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