मोदी, मुल्ला और मुसलमान

भारत में लोकसभा आम चुनाव आसन्न हैं. चुनाव का संवैधानिक शिल्प सक्रिय हो चुका है. संचार के हर एक माध्यम से इसकी गूँज आनी शुरू हो चुकी है. समाज में भी हलचल की तरंगे दिखने लगी हैं. अपने अपने विचार के अनुसार हर दल सामाजिक संरचना को मोल्ड करने में लगा है तथा मतों की गोलबंदी में प्रयासरत है.

इस चुनावी लोकवृत्त में एक बड़ी ध्वनि मुसलमानों के मतों की है. आखिर वे किधर जाएँगे ? उनकी पसंद का विचार अथवा दल कौन होगा ? उनके मत एकमुस्त कहीं पड़ेंगे अथवा तथाकथित सेक्युलर दलों में बटेंगे ?

कांग्रेस,समाजवादी,वामपंथी इन वोटों को अपनी बपौती समझते रहे हैं. उधर हिंदुत्त्व की वैचारिकी पर राजनीति करने वाली बीजेपी के सिद्धांतकार भी कहते हैं कि मुसलमान उनके पक्ष में हैं तथा इस बार मुसलमानों का मत उन्हें प्राप्त होगा. इस तर्क का अर्थ निकालें तो इसका मतलब हुआ कि मुसलमान मोदी को वोट करता रहा है एवं इस बार भी करेगा. क्या ये संभव है अथवा हो सकता है ?

इस सवाल के दो पहलू हैं. एक, तथाकथित सेक्युलर राजनीति के मुहावरों में देखें तो मोदी गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार हैं, हिन्दू राजनीति के पोषक हैं, मुसलमानों का अस्तित्त्व उनकी राजनीति में कहीं नहीं है, और अगर है भी तो उन्हे बाँटने में है ताकि उनका रास्ता आसान हो सके. जाहिर है इन मुहावरों में मोदी और मुसलमान परस्पर विरोधी हैं. मुसलमान किसी निर्दल को वोट डाल आएगा पर मोदी को कभी नहीं देगा.

सवाल के दूसरे पहलू को समझने के लिए हमें वर्तमान राजनीति के बहुत अधिक बदल चुके मुहावरों को बारीकी से समझना होगा । यह बदलाव स्वयं मोदी की राजनीति ने पैदा किए हैं. 2019 के चुनाव का शिल्प अब वही नही है जो पिछले 70 सालों से चला आ रहा है. कोरी वैचारिकी से जनता पहले भी ऊब चुकी थी और 2014 के बाद सत्ता के चरित्र को बदलकर मोदी ने उसका अस्तित्त्व लगभग ख़त्म कर दिया है. उल-जलूल सपने दिखाकर, क्रांति के थोथे नारे लगाकर अब भी अगर आप राजनीति कर रहे हैं तो भूल जाइये कि जनता आपको चुनेगी. और अब पहले से ज्यादा सजग और चैतन्य मुसलमान तो बिल्कुल भी नही चुनेगा. जाहिर है यह चैतन्यता भी मोदी की राजनीति ने ही पैदा की है,  जो, एकबारगी, हो सकता है स्वयं मोदी के भी ख़िलाफ़ जाए पर यह अन्य किसी के पक्ष में भेंड चाल कर जायेगी, यह भी अब संभव नहीं. मुसलमानों के संदर्भ में यह एक ‘संवेदनशील राजनीति’ है जिसे मोदी ने ही पिछले सालों में आकार दिया है.

‘सबका साथ सबका विकास’ इस नयी संवेदनशील राजनीति का वह पहला शिल्प है जिसने सेक्युलर राजनीति के छद्म को तोड़ा है । सवा सौ करोड़ भारतीयों को लेकर चलने की बात मोदी ने हमेशा की है और जमीन पर योजनाओं के निरपेक्ष क्रियान्वयन ने इस पर जन विश्वास को बढ़ाया है. सरकार की प्रायः हर योजना सर्व-समावेशी है. इस नयी आशावादी राजनीति के पाँच सालों में मुसलमान अब समझ चुका है कि सेक्यूलर राजनीति ने आजादी के बाद उसे सिर्फ वोटों में बदलने का काम किया है, उसे लगातार मजहबी घेटो में केंद्रीकृत किया गया है जहाँ उसकी दीनी संतुष्टि तो हुई है पर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विकास में वह बहुत अधिक पिछड़ गया है.  विशेषकर पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय मुसलमानों के बीच से यह आवाजें अब अधिक मुखरता से आने लगी हैं की सेक्यूलर राजनीति मुसलमानों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं. कुछ कट्टरपंथी मुल्लाओं को ध्यान में रख कर ही यह राजनीति की जाती रही है जबकि तरक्की पसंद मुसलमान इस तहरीख से बाहर हैं. ताज्जुब नही कि ऐसे तरक्की पसंद मुसलमान अब संघ एवं बीजेपी से खुल कर जुड़ रहे हैं और राम मंदिर को हिंदुओं को दिये जाने तक की माँग कर रहे हैं ताकि यह विवाद ख़त्म हो और मुस्लिम समाज विकास के पथ पर आगे बढ़े.

मोदी ने मुसलमानों के मन में स्वाभिमान के भाव की पुनर्प्रतिष्ठा भी की है. हालांकि यह प्रयास अटलजी ने ही शुरू कर दिया था । उन्होने राष्ट्रीय संस्कृति में रचे बसे मुसलमानों को आगे किया और कलाम साहब को देश का राष्ट्रपति भी बनाया. यह सर्वथा नयी पहल थी जिसे पसमांदा मुस्लिम समाज ने गहराई से अनुभव किया.

मोदी ने अटल जी के इसी विज़न को आगे बढ़ाया. विदेश सेवा के अकबरुद्दीन को संयुक्त राष्ट्र में भारत का नेतृत्त्व दिया. परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम देशों के संघ ने सुषमा स्वराज को विशेष मेहमान का दर्जा दिया, बालाकोट स्ट्राइक पर किसी अन्य मुस्लिम देश ने भारत की निंदा नही की.

तीन तलाक के मुद्दे को भी मोदी ने राष्ट्रीय सामाजिक आंदोलन में तब्दील कर दिया. मुस्लिम महिलाएँ खुल कर इसके समर्थन में आयीं । मुल्लों ने भले ही इसका घोर विरोध किया पर हमने उसी दौरान टेलीविजन की बहसों में देखा है कि कैसे मुल्लों के विरोध में स्वयं मुस्लिम महिलाएँ आयीं. वे महिलाएँ सड़कों पर भी आईं. इसे उन्होने अपने स्वाभिमान के  प्रश्न के रूप में लिया. इस आंदोलन की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनी. मोदी की राजनीति का एक लोक-कल्याणकारी रूप इससे सामने आया. तथाकथित कठमुल्लापन इस आंदोलन में पस्त हुआ एवं पसमांदा मुस्लिम समाज विजयी हुआ.

भारतीय राजनीति के मुहावरे अब बदल चुके हैं. तुष्टीकरण की राजनीति का शिल्प अब बीते दिनों की बात हो गयी है. झूठे सपनों के नारों को अब कोई नही सुनना चाहता. ओसामा जी, हाफिज साहब, मसूद अज़हर जी कहने से अब भारतीय मुसलमान आपसे नही रीझेगा. टोपी पहन कर इफ्तारी कर लेने भर से अब उसके वोट आपको नही मिलने वाले. तरक्की पसंद भारतीय मुसलमान अब आत्म-गौरव के भाव से भरा हुआ है. ISIS उसका आदर्श नहीं, हाफिज उसका आदर्श नहीं, पाकिस्तान उसका आदर्श नहीं । उसका आदर्श भारत है. उसकी मिट्टी भारतीय है. यह सच है कि पिछले पाँच वर्षों में देश बदला है. यह बदलाव मुसलमानों में भी आया है. आजादी के बाद सेक्युलर राजनीति की घुट्टी में अपने आत्म-गौरव को विस्मृत किया हुआ भारतीय मुसलमान अब जाग चुका है. स्वयं मुस्लिम समाज के भीतर से यह जागरण वर्षों से चलता आ रहा था. मोदी ने इस जागरण की खिड़कियों को पूरा खोल दिया है. एक बेहतर सकारात्मक राजनीति की परस पाकर अब भारतीय मुसलमान निर्णायक राजनैतिक शक्ति के रूप में बदल चुका है.

अविश्वसनीय, पर सच यही है कि, मोदी इस नए मुसलमान के नायक बनते गए हैं.

डॉ सर्वेश सिंहलेखक बाबासाहब अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रफेसर हैं    

साभार : Acedemics4namo

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