कविता ; अश्क बनकर वही बरसता है – श्यामल सुमन

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नहीं जज्बात दिल में कम होंगे

तेरे पीछे मेरे कदम होंगे

तुम सलामत रहो कयामत तक

ये है मुमकिन कि हम नहीं होंगे

 

प्यार जिसको भी किया छूट गया

बन के अपना ही कोई लूट गया

दिलों को जोड़ने की कोशिश में

दिल भी शीशे की तरह टूट गया

 

यार मिलने को जब तरसता है

बन के बादल तभी गरजता है

फिर भी चाहत अगर न हो पूरी

अश्क बनकर वही बरसता है

 

इश्क पे लोग का कहर देखा

और मुस्कान में जहर देखा

प्यार की शाम जहाँ पर होती

वहीँ से प्यार का सहर देखा

 

भले दिल हो मेरा विशाल नहीं

तेरे अल्फाज से मलाल नहीं

चाहे दुनिया यकीं करे न करे

इश्क करता सुमन सवाल नहीं

 

 

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