भारतीय के पासपोर्ट खोने की सज़ा मौत?

-अजय कुमार

बीता सोमवार का दिन एक तरफ जहां भारत के लिए खुशियों से भरा दिन रहा,- राष्ट्रमंडल खेलों के सफ़ल आयोजनों का सातवाँ दिन। पदक तालिका में दूसरा स्थान, सुशील को 28वाँ स्वर्ण, हॉकी में पाक को पटखनी। वगैरह-वगैरह। मगर इस खुशी के माहौल में एक महत्वपूर्ण ख़बर खो गई। वह ख़बर थी एक भारतीय महिला की मस्कट ओमान हवाई अड्डे पर पाँच दिन फँसे रहने के बाद गुमनाम मृत्यु। उसका एकमात्र कसूर था कि उस भारतीय महिला ने अपना पासपोर्ट खो दिया था, यात्रा के दौरान। ये कहां का कानून है कि पासपोर्ट खोने की इतनी बड़ी सज़ा? – पर ये तो होना ही था। क्योंकि वो महिला भारतीय थी और खाड़ी देशों में भारतीयों के साथ ऐसा व्यवहार आम बात है। उनके लिए भारतीय निकृष्ट प्राणी हैं और वहाँ काम कर रहे लाखों भारतीयों का न कोई सम्मान है ओर न ही कोई अधिाकार। ये अलग बात है कि अपने तमाम प्रयासों के बाद आज भी खाड़ी देश अपने अपने मुल्क को चलाने के लिए पूरी तरह से भारतीयों पर ही निर्भर हैं। हमने उनकी आर्थिक प्रगति एवं समृध्दि में अभूतपूर्व योगदान दिया है। पर उनकी नज़र में हमारी कोई इज्ज़त नहीं है। ये वही खाड़ी देश हैं जो ब्रिटेन, अमेरिका एवं कनाडा जैसे शक्तिशाली देशों के नागरिकों के आगे डरकर कांपते हैं पर जैसे ही भारतीयों की बात आती है उनका सुर और रुख पूरा अमानवीय और निकृष्ट हो जाता है।

ऐसा कौन सा कानून है, जिसमें कहा गया हो कि पासपोर्ट खो जाने की सज़ा मौत है? आखिर यह सवाल हर भारतीय को करना चाहिए कि वह कौन सा कुसूर था जिसके चलते एक भारतीय महिला को हवाई अड्डे पर कैद कर तड़पा तड़पा कर मार डाला गया? क्या इतना अमानवीय हो गया है ओमान का कानून या महज इसलिए कि मृतका एक भारतीय थी और ओमान की यह धारणा बन चुकी है कि उसकी ऐसी बेजा हरकतों पर उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। वर्षों से वहाँ ऐसा सिलसिला चलता आ रहा है और हर रोज़ इससे भी ज्यादा क्रूर कृत्य होते रहते हैं लेकिन हम खामोश रहते हैं। रोज़ी रोटी की तलाश में वहाँ गया हुआ भारतीय नागरिक रोज़ शर्मसार होता है और भारत का स्वाभिमान और अस्मिता हर रोज़ चूर चूर होती है। पर यह देखने की फुर्सत किसे है क्योंकि वहां तो मीडिया पर पूर्णत: पाबंदी है। पुलिस में अपराध दर्ज होते नहीं और हमारे दूतावास के अधिकारी अपनी सैरगाहों में मस्त रहते हैं। यह अधिकारी हमारे द्वारा अदा किए गए टैक्स से ही मोटी- मोटी तनख्वाहें लेते हैं और मुसीबत में फँसा आम भारतीय जब इनसे मदद माँगता है तो अव्वल तो यह मिलते ही नहीं हैं और मिल भी जाएं तो उनका व्यवहार भी खाड़ी देशों के मुकाबले कम अमानवीय नहीं होता है। यह अधिकारी साफ घुड़की देते हैं कि चुपचाप भारत भाग जाओ।

यह जानकर आश्चर्य होगा कि बलात्कार की शिकार भारतीय महिला और उसके परिजनों से यह अधिकारी खुल्लमखुला कहते हैं कि इस लफड़े में मत पड़ो, हम एयर इंडिया के मैनेजर से कहकर आपकी मुफ्त यात्रा की तुरंत व्यवस्था करवाते हैं।

अमीना जैसी भारतीय महिलाएं, जो एक तरफ तो शादी के बहाने 80 वर्ष के बुजुर्ग के साथ भेज दी जाती हैं या फिर नौकरानी की शक्ल में निर्यात की जाती हैं, जो हर रात बलात्कार का शिकार होती हैं और अपनी जान बचाने के लिए उनके सामने चुप रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। जाहिर सी बात है कि इन बलात्कारों के दोषी हमारे यह अफसरान भी हैं जो सारे गुनाह के मूक दर्शक बने रहते हैं।

अगर आप वहां से निकलकर भागना भी चाहें तो वहाँ के नौकरशाहों की इजाजत के बिना यह भी संभव नहीं है क्योंकि हवाई अड्डे पर उतरते ही आपका पासपोर्ट जब्त कर लिया जाता है, जिसकी इजाजत कोई भी अंतर्राष्ट्रीय कानून नहीं देता है। पासपोर्ट भारत के राष्ट्रपति की संपत्ति है। लेकिन बेचारा भारत का राष्ट्रपति वहाँ के हर लॉकर में कैद मिलेगा और भारत का नागरिक चंद पैसे कमाने की खातिर लगातार अपमानित होता रहता है और अत्याचार सहता रहता है क्योंकि उसके पास घर वापस लौटने का विकल्प भी नहीं होता क्योंकि वह जाता ही अपना घरबार बेचकर है। ऐसे में उसके सामने दोनों तरफ मौत ही मौत है।

भारतीयों पर इन खाड़ी देशों में हो रहे जुल्मों को सारे लोग जानते हैं लेकिन सब खामोश रहते हैं क्यों? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि इन मुल्कों में जिल्लत झेलने वाले ऑस्ट्रेलिया में शिक्षा प्राप्त करने जाने वाले बड़े घरों से ताल्लुक नहीं रखते, यह अधिकाँश खरादिए होते हैं, कारपेन्टर होते हैं या फिर नर्स और घरेलू नौकरानी। भारतीय नौकरानियों के साथ हो रहे इन बलात्कारों की जानकारी क्या हमारे नौकरशाहों को नहीं है? लेकिन उनके मुँह क्यों नहीं खुलते? बाँग्लादेश जैसा छोटा सा गरीब मुल्क भी अपनी अस्मिता और अपने देश की नारियों की सम्मान की खातिर इन खाड़ी देशों पर पूरी तरह रोक लगा रहा है लेकिन एक हम हैं न हमारी इज्जत है और न अस्मिता। खाड़ी देशों का रवैया हमारे प्रति जो भी हो लेकिन सवाल तो हमारे राजनयिकों, विदेश विभाग के अधिकारियों और राजनेताओं से है, वह चुप क्यों हैं इन अमानवीय कृत्यों पर? आखिर क्या वजह है कि एक मामूली सा टीवी एंकर भी शीला दीक्षित पर टिप्पणी कर देता है तो कभी फेनेल हमारी आबादी का मज़ाक उड़ाता है और कभी ऑस्ट्रेलिया का एक मामूली सा पुलिस अफसर हमारी खिल्ली उड़ाता है? आखिर कब तक भारतीयों के इस अपमान का सिलसिला चलता रहेगा? जब तक हमारा राजनयिक वर्ग और हमारे राजनेताओं मे भारतीयता नहीं आएगी तब तक हम दुनिया में ऐसे अत्याचारों को सहते के लिए अभिशप्त रहेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और खाड़ी देशों में लम्बे समय तक पत्रकारिता कर चुके हैं। श्री कुमार अरब के कई मशहूर समाचार पत्रों में संपादक रह चुके हैं)

4 COMMENTS

  1. इसमे नयी बात क्या है?यह तो हमेशा से होता आया है.लोहे की कुल्हाड़ी तबतक लकड़ी नहीं काट सकती जब तक उसमे लकड़ी का डंडा न लागा हो.यही हाल हम भारतीयों का है.भारतीयों की दुर्दशा पर रोने वाले भारतीय हैं तो उनको इस हाल में पहुंचाने वाले भी भारतीय ही है.इसमें हमारा भ्रष्ट नौकरशाही तो दोषी हैं ही पर वे एगेंट या मजहब के ठीकेदार भी कम दोषी नहीं हैं जिनकी मिलीभगत से आम भारतीय नागरिक सब्जबाग की खोज में इस दुर्दशा का शिकार बनता है.आवश्यकता है पूर्ण तंत्र को बदलने की,पर पता नहीं वैसा कब होगा?कभी होगा या नहीं यह भी तो नहीं पता .

  2. एक आम भारतीय नागरिक इसलिए सुरक्षित नहीं होता क्योंकि उसकी रक्षा और उसके अधिकारों की सुरक्षा हमारे सरकारी तंत्र द्वारा की जा रही होती है – बल्कि – वह केवल इसलिए और केवल तब तक सुरक्षित होता है जब तक कि कोई उसको नुकसान पहुँचाने का मन नहीं बनाता या जब तक कि कोई उसके अधिकारों का हनन करने की चेष्टा नहीं करता !

    एक आम भारतीय नागरिक अत्याचारी एवं आततायी की नज़र में न आने तक ही सुरक्षित है! यही कटु सत्य है !

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here