गायत्री मंत्र जाप की महिमा

संध्या का प्रयास का प्रधान अंग गायत्री जप ही है। गायत्री को हमारे वेद शास्त्रों में वेदमाता कहा गया है। गायत्री की महिला चारों ही वेद गाते हैं, जो फल चारों वेदों के अध्ययन से होता है, वह एक मात्र गायत्री मंत्र के जाप से हो सकता है, इसलिए गायत्री मंत्र की शास्त्रों में बड़ी महिमा गाई गई है। भगवान मनु कहते हैं कि जो पुरूष प्रतिदिन आलस्य त्याग कर तीन वर्ष तक गायत्री का जप करता है, आकाश की तरह व्यापक परब्रह्य को प्राप्त होता है।

जप तीन प्रकार का होता है-वाचिक, उपांशु एवं मानसिक। इन तीनों यज्ञों में जप उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। जप करने वाला पुरूष आवश्यकतानुसार ऊंचे, नीचे और समान स्वरों में बोले जाने वाले शब्दों का वाणी से सुस्पष्ठ उच्चारण करता है, वह वाचिक जप कहलाता है, इसी प्रकार जिस जप में मंत्र का उच्चारण बहूत धीरे-धीरे किया जाए, होंठ कुछ-कुछ हिलते रहें और मंत्र का शब्द कुछ-कुछ स्वयं ही सुने, वह जप उपांशु कहलाता है। बुद्धि के द्वारा मंत्राक्षर समूह के प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक पद और शब्दार्थ का जो चिंतन एवं ध्यान किया जाता है, वह मानस जप कहलाता है। अधिक से अधिक 1000 साधारण तथा एक सौ अथवा कम से कम दस बार जो द्विज गायत्री का जप करता है, वह पापों में लिप्त नहीं होता।

महाभारत शांति पर्व के 119 वें अध्याय में गायत्री की महिमा एक बड़ा सुंदर उपाख्यान मिलता है। कौशिक गोत्र में उत्पन्न हुआ पिप्लाद का पुत्र एक बड़ा तपस्वी धर्मनिष्ठा ब्राह्मण था। वह गायत्री का जप किया करता था। लगातार एक हजार वर्ष तक गायत्री का जप करने पर गायत्री देवी ने उसको साक्षात-दर्शन देकर कहा कि मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ. परंतु उप समय पिप्लाद का पुत्र जप कर रहा था, चुपचाप जप करने में लगा रहा और गायत्री देवी को कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वेदमाता गायत्री देवी उसकी इस जपनिष्ठा पर और भी अधिक प्रसन्न हुई और उसके जप की प्रशंसा करती वहीं खड़ी रहीं। जिनकी साधना में ऐसी दृढनिष्ठा होती है कि साध्य चाहे भले ही छूट जाए, परंतु साधन नहीं छूटना चाहिए, उनसे साधन तो छूटता ही नहीं, साध्य भी श्रद्धा और प्रेम के कारण उनके पीछे-पीछे चलता है। साधन-निष्ठा ऐसी महिमा है।

जप की संख्या पूरी होने पर वह धर्मात्मा ब्राह्मण खड़ा हुआ और देवी के चरणों में गिरकर उनसे यह प्रार्थना करने लगा कि यदि आप मुझे पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मुझे यह वरदान दीजिए कि मेरा मन निरंतर जप में लगा रहे और जप करने की मेरी इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ती रहे। गायत्री देवी उस ब्राह्मण के निष्काम भाव को देखकर बड़ी प्रसन्न हुई और तथास्तु कहकर अन्तर्ध्यान हो गई। ब्राह्मण ने फिर जप प्रारंभ किया। देवताओं के 100 वर्ष और बीत गए। पुनश्चरण के समाप्त हो जाने पर साक्षात धर्म ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को दर्शन दिए और स्वर्गादिलोक मांगने को कहा, परंतु ब्राह्मण ने धर्म को भी यही उत्तर दिया कि मुझे सनातन लोकों से क्या प्रयोजन है, मैं तो गायत्री का जप करके आनंद करूंगा। इतने में ही काल मृत्यु और यम ने भी उसकी तपस्या की बड़ी प्रशंसा की।

उसी समय तीर्थ यात्रा के निमित निकले हुए राजा इक्ष्वाकु भी वहां पहुंचे, राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण को बहुत-सा धन देना चाहा, परंतु ब्राह्मण ने कहा कि मैंने प्रवृत्ति धर्म अंगीकार किया है, अतः मुझे धन की कोई आवष्यकता नहीं है। तुम्हें कुछ चाहिए तो मुझ से मांग सकते हो। मैं अपनी तपस्या के द्वारा तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करू। राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण अपने जप का पूरा फल मांग लिया। तपस्वी ब्राह्मण अपने जप का पूरा फल राजा को देने के लिए तैयार हो गया, किंतु राजा उसे स्वीकार करने में हिचकिचाने लगा। बड़ी देर तक विवाद चलता रहा। ब्राह्मण सत्य की दुहाई देकर राजा को मांगी वस्तु स्वीकार करने के लिए आग्रह करता था और राजा क्षत्रियत्व की दुहाई देकर उसे लेने में धर्म की हानि बदले में राजा के पुण्य-फल को ब्राह्मण स्वीकार कर ले। उसके निश्चय को जानकर विष्णु आदि देवता वहीं उपस्थित हुए और दोनों के कार्य की सराहना करने लगे। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी।

अंत में ब्राह्मण और राजा दोनों योग-द्वारा समाधि में लीन हो गए। ब्राह्मण ने कहा कि जो फल योगियों को मिलता है, वही जप करने वालों को भी मिलता है। इसके बाद ब्राह्मण ने उस तेज को नित्य आत्मा और ब्रह्या की एकता का उपदेश दिया तथा उस तेज ने ब्रह्मा के मुख में प्रवेश किया और राजा ने भी ब्राह्मण की भांति ब्रह्या के शरीर में प्रवेश किया। इस प्रकार शास्त्रों में गायत्री जप का महान फल बतलाया गया है। कल्याण-कारी को चाहिए कि वे इस स्वल्प प्रयास से साध्य होने वाले संध्या और गायत्री रूप साधन के द्वारा शीघ्र मुक्ति लाभ करें।

गायत्री मंत्र में समाहित शक्तियां:-

हम नित्य गायत्री मंत्र का जाप करते हैं। लेकिन उसका पूरा अर्थ नहीं जानते। गायत्री मंत्र की महिमा अपार हैं। गायत्री, संहिता के मुताबिक, गायत्री मंत्र में कुल 24 अक्षर हैं। ये चौबीस अक्षर इस प्रकार हैं- 1. तत् 2. स 3. वि 4. तु 5. र्व 6. रे 7. णि 8. यं 9. भ 10. गौं 11. दे 12. व 13. स्य 14. धी 15. म 16. हि 17. धि 18. यो 19. यो 20. नः 21. प्र 22. चो 23. द 24. यात्

 

वृहदारण्यक के मुताबिक हम उक्त शब्दावली का भाव इस प्रकार समझते हैं-

तत्सवितुर्वरेण्यं- अर्थात् मधुर वायु चलें, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हों। द्युलोक हमें सुख प्रदान करें।

भगों देवस्य धीमहि- अर्थात् रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारण हों। पृथ्वी की रज हमारे लिए मंगलमय हो।

धियो यो नः प्रचोदयात्- अर्थात् वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं। गायत्री मंत्र का अगर हम शाब्दिक अर्थ निकालें तो, उसके भाव इस प्रकार निकलते हैं-तत् वह अनंत परमात्मा, सवितुः-सबको उत्पन्न करने वाला, वरेण्यम्ः-ग्रहण करने योग्य या तृतीय के लायक, भर्गों-सब पापों का नाश करने वाला, देवस्यः-प्रकाश और आनंद देने वाले दिव्य रूप ऐसे परमात्मा का, धीमहिः-हम सब ध्यान करते हैं, धियः-बुद्धियों को, यः-वह परमात्मा, नः-हमारी, प्रचोदयात्ः-धर्म, काम, मोक्ष में प्रेरणा करके, संसार से हटकर अपने स्वरूप में लगाए और शुद्ध बुद्धि प्रदान करे।

4 COMMENTS

  1. जीत भार्गव जी, काश! हम हिंदू इसको समझ पाते और इसके अनुसार आचरण करते.

  2. आर सिंह जी,
    ब्राह्मण और शूद्र जैसी व्यवस्था जातिगत न होकर कर्म अनुसार है. जिस व्यक्ति का कर्म शुद्ध, सात्विक है वही ब्राह्मण है. और जिस ब्राह्मण का कर्म धर्म-विरुद्ध, भ्रष्ट है वह शूद्र है, चाहे वह ब्राह्मण के रूप में भी क्यों ना जन्मा हो.

  3. गायत्री जाप के बारे में महाभारत से उद्धृत उपाख्यान सराहनीय है.किसी मंत्र या ध्यान की महिमा निष्काम कर्म में है और इंसानियत को हिन्दू धर्म के महान ग्रन्थ भगवद गीता की यही देन है,पर आपका यह कहना की जो द्विज गायत्री का जाप करता है वह पाप में लिप्त नहीं होता,दिल में शंका उत्पन्न करता है.यहाँ द्विज से आपका मतलब यदि ब्राहमण जाति से है तो क्या दूसरे जाति वालों को गायत्री मंत्र का जाप नहीं करना चाहिए?

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