हारा लोक, जीता तंत्र

डॉ. हिमांशु द्विवेदी

प्रबंध संपादक, हरिभूमि

यह सतयुग तो है नहीं कि समाज हित में जीते जी हड्डियों को दान में देने से ‘दधिचि’ पूज्यनीय हो जाते थे और एक कबूतर के जीवन की रक्षा की खातिर राजा शिवि अपने शरीर का संपूर्ण मांस तराजू पर रखकर ईश्वर की अनुकंपा प्राप्त कर जाते थे। यह दौर तो कलियुग का है लिहाजा ‘जन हित-देश हित’ में अभियान छेड़ने की गुस्ताखी के एवज में हम अपनी ही चुनी हुई सरकार के द्वारा भेजे गये वर्दी वाले गुंडों से रात के अंधेरे में पहले लाठियों द्वारा हांक दिये जाते हैं और फिर उपेक्षा का शिकार हो अंतत: अनशन तोड़ने के लिए विवश हो जाते हैं। सरकार अभी निहाल हो सकती है कि उसका ‘अहं’ जीत गया और ‘जन’ झुक गया लेकिन निश्चित ही यह पड़ाव है मंजिल नहीं। क्योंकि अभी अनशन ही खत्म हुआ है, आंदोलन नहीं।

किसी तानाशाही हुकूमत और लोककल्याणकारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आत्मा के स्तर पर यदि कोई वास्तविक अंतर होता है तो वह ‘संवेदनशीलता’ का होता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणतंत्र होने का दंभ भरते हम भारतीयों की हुकूमत की संवदनशीलता की असलियत लेकिन गत नौ दिनों से सड़क पर है। देशवासियों के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को कुछ भ्रष्ट तत्वों के द्वारा विदेशी बैंकों की तिजोरियों में जमा रखने के खिलाफ और सवा सौ करोड़ जिंदगियों को भ्रष्टाचार के चंगुल से मुक्त कराने की कोशिश में जुटे स्वामी रामदेव और उनके समर्थकों का अनशन तो संतों की सलाह या दबाव में टूट ही गया और साथ-साथ अवाम का यह भ्रम भी टूट गया कि लोकतंत्र का अर्थ ‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन होता है।’ अतीत का हमें अनुभव है कि सत्ता जब मदांध होती है तो अच्छे-बुरे का फर्क भूल ही जाती है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जिस राज में संतों का निरादर होता है उसका सर्वनाश भी तय होता है। जिस संत के भाल पर उनके सामाजिक योगदान के चलते सत्ताधीशों के द्वारा आस्था व विश्वास की रोली का तिलक लगाया जाना चाहिए था, वह हाथ कालिख पोतने पर आमादा हैं और हम खामोश हैं। देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की खातिर जुटे दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रभक्तों को 4 जून की रात में अंधेरे में जानवरों की तरह वर्दीधारियों द्वारा पीटे जाने से आहत स्वामी रामदेव यदि आत्मरक्षा की खातिर शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देने की बात करते हैं तो देश के गृहमंत्री का ‘पुरुषत्व’ जाग उठता है। लेकिन स्त्रियों, वृद्धों और बच्चों पर लाठियां बरसाने को जायज करार दे रहे गृहमंत्री की मर्दानगी ज्ञानेश्वरी बम हादसे के बाद से गत एक वर्ष से हावड़ा मार्ग पर रात के अंधेरे में रेलें चलवाने के मुद्दे पर कहां दुबक जाती है। यह सवाल जन मानस में सहज ही कौंध रहा है।

देश की राजधानी में आकर काश्मीर की स्वतंत्रता का ऐलान करने वाले गिलानी से आपको कोई गिला नहीं होता लेकिन ‘अखंड भारत’ का स्वप्न देखते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के जिक्र मात्र से आपकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं। पूरी दुनिया में शायद ही अन्य कोई मुल्क होगा जो अपने देश के प्रति सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर संगठन के प्रति सत्ताधारियों द्वारा इस कदर अपमानित और उपेक्षित होता आया हो। क्या आजादी हमने इसीलिए चाही थी कि राष्ट्रप्रेम ‘अपराध’ करार दिया जाए। स्वामी रामदेव के द्वारा उठाये गये मुद्दों पर जवाब देने की जगह आरोपों की झड़ी लगाने में जुटे केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के नुमाइंदे केवल इतनाभर बता दें कि जब स्वामी रामदेव इतने ही खराब थे तो आपके तमाम नेता गत अनेक वर्षों से उनके स्वागत में पलक-पांवड़े क्यों बिछाते रहते आये?

राजा जब-जब असहाय होता है तब-तब दरबारियों की बन आती है। फिर चाहे वह सतयुग के दशरथ हों या द्वापर के धृतराष्टÑ और अब चाहे कलियुग में मनमोहन सिंह, सब अपनी कायरता और कापुरुषता के वशीभूत वनवास से लेकर चीरहरण को महज ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ करार देकर कर्त्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं लेकिन इसकी कीमत रामायण और महाभारत के तौर पर चुकाने की कहानी हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज है। राम का वनवास, दौपदी का चीरहरण और दिल्ली के रामलीला मैदान में जनता के दमन को एक ही निगाह से देखे जाने की जरूरत है।

‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’ जैसी सूक्ति का जन्म इन्हीं परिस्थितियों के लिये ही हुआ है। पूज्य रविशंकर जी समेत तमाम सामाजिक और राजनैतिक हस्तियों द्वारा केंद्र सरकार से बाबा रामदेव के अनशन को तुड़वाने की पहल के संदर्भ में आग्रह के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाकर सरकार ने अपनी संवेदनहीनता का प्रमाण ही तो दिया है। जो सरकार देश की अखंडता को चुनौती देने वाली हुर्रियत के लिये लाल कालीन बिछा सकती है, हजारों निर्दोषों की हत्याओं के आरोपी नक्सलियों से चर्चा करने के लिए मध्यस्थों की नियुक्ति कर सकती है, और तो और राजद्रोह के आरोप में दंडित विनायक सेन को सलाहकार बनाने में भी जिसे गुरेज नहीं रहा वही सरकार लाखों भारतीयों की जीवन शैली को संस्कारवान-कर्त्तव्यनिष्ठ और शरीर को रोगमुक्त बनाने वाले स्वामी रामदेव से संवाद करने में अपनी तौहीन समझ बैठी। यह मुद्दा सम्मान का है या अभिमान का, इसका फैसला तो आने वाले समय में अब जनता के ही हाथों तय होगा।

दरअसल आंदोलन की अधोगति के लिए कहीं न कहीं स्वामी रामदेव भी जिम्मेदार रहे हैं। राम कितने ही शक्तिमान क्यों न हों रावण के खात्मे के लिए हनुमान और विभीषण की दरकार होती ही है। और कृष्ण कितने ही पुरुषार्थी क्यों न हों उन्हें भी अर्जुन तो अनिवार्य होते ही हैं। चाणक्य का बुद्धि कौशल भी चंद्रगुप्त बिना कमाल नहीं दिखा पाता और महात्मा गांधी का जादू भी बिना जवाहर लाल और सरदार पटेल के कहां छा पाता। लिहाजा किसी भी आंदोलन के लिये नेतृत्व में सामूहिकता और क्रमबद्धता का होना अनिवार्य है, खासकर तब, जब आपका सामना शातिर राजनीतिज्ञों से है। लिहाजा जादुई व्यक्तित्व और ऊंचे विचारों से इतर भी कई बाते हैं जिनके लिए कुशल रणनीतिकारों का साथ होना जरूरी है। राजनीति दल के गठन से लेकर सशक्त सेना बनाने का ऐलान जैसे बयान स्वामी रामदेव के इरादों की नेकनियति को संदेह के घेरे में सहज ही ले आते रहे और नतीजतन उनके समर्थन में बढ़ते अनेक पांव आधे रास्ते से ही वापिस लौट गये। दरअसल यह बयान स्वामी रामदेव की शातिरता नहीं बल्कि सरलता के ही परिचायक थे, लेकिन राजनीति में सरलता का स्थान ही कहां बचा है?

उम्मीद है असफलता का यह अनुभव आंदोलन को आने वाले समय में नई ऊंचाई देगा और भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र का सपना देखती हर सच्चे भारतीय की आंखों का सपना आखिरकार साकार होगा।

आखिरी बात, धृतराष्ट्र की सभा में भीष्म का मौन रहना हमें कटोचता रहा है और इस दौर में राहुल गांधी की चुप्पी कटोच रही है। गत आठ वर्षों से देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के भविष्य की उम्मीद राहुल गांधी अपने आचार-व्यवहार से यह उम्मीद जगा रहे थे कि वह कुछ बदलाव जरूर लायेंगे, उनकी निष्क्रियता ने खासा निराश किया है। इस पूरे घटनाक्रम में उनकी सहमति के प्रमाण तो नहीं मिले हैं लेकिन वक्त का तकाजा है कि वह बुजुर्ग भीष्म की भूमिका छोड़ युवा ‘कृष्ण’ की भूमिका में आयें और ‘भारतीय होने की र्शमिंदगी’ से अपने आपको उबारें।

4 COMMENTS

  1. अच्छा लेख लिखा है श्री डॉ. द्विवेदी जी ने.
    श्री राम जी की कार्य श्री हनुमान जी के बिना अधुरा था. सही बात कही है लेखक महोदय जी ने. किन्तु श्री राहुल जी से उम्मीद पालना व्यर्थ है.

  2. कोरवों की सभा में आधुनिक भीष्म पितामह है मन मोहन सिंह /भीष्म पितामह के मौन ने एक महाभारत करवाया था /दूसरा आधुनिक भीष्म पितामह के मौन की वजह से होगा/

  3. लेख पढ़कर अच्छा लगा, लेखक भी बाबा रामदेव के आन्दोलन या अनशन की इस इस परिणिती से करोडो भारतीयों की तरह दुखी है, लेकिन अंत में राहुल गांधी से इस तरह की उम्मीद लगाना कुछ समझ में नहीं आया, जिन लोगों के बिना इशारे के संसद या यो कहूं पूरे देश में पत्ता भी नहीं खड़कता वहां पर ऐसा भीषण अत्याचार बिना इन लोगों की सहमती के हुआ होगा यह सोचने के लिए मेरा दिल तैयार नहीं है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here