उत्तराखंड की आपदा: जब हिमालय ने चुप्पी तोड़ी, और हमारे तैयार न होने की कीमत चुकाई गई

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दोपहर का वक्त था। बादल घिरे थे, पर कोई डर नहीं था। यह तो पहाड़ों का रोज़ का मिज़ाज है। लेकिन अचानक, जैसे किसी ने आसमान के दरवाज़े को खोल दिया हो।
एक गगनचुंबी जलधारा सीधी पहाड़ से उतरती हुई धाराली की गलियों में घुस गई। जो सामने आया, उसे बहा ले गई। घर, दुकान, पुल, सड़क… सब कुछ।

स्थानीय लोगों को पहले लगा कि यह सामान्य बादल फटना होगा, लेकिन जब आवाज़ें तेज़ होती गईं, पानी का रंग गाढ़ा होता गया, और ज़मीन कांपने लगी—तब सब समझ गए, यह एक और जलवायु-जनित आपदा है।

लेकिन क्या यह वाकई ‘अचानक’ हुआ? या फिर यह वह तबाही थी, जिसकी चेतावनी हमें सालों से मिल रही थी… और जिसे हमने बार-बार नजरअंदाज़ किया?

बदलता मानसून और पहाड़ों पर बढ़ता ख़तरा

जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि मानसून अब पुराने ढर्रे पर नहीं चलता। अरब सागर पर गर्म होती हवाएं, मध्य एशिया में तेज़ी से बढ़ते तापमान और दक्षिण-पश्चिमी हवाओं का उत्तर की ओर झुकाव, ये सब मिलकर उत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्रों में बारिश के ‘तूफानी पैटर्न’ बना रहे हैं।

स्कायमेट वेदर के महेश पलावत समझाते हैं:
“जब गर्म समुद्री हवा भारी नमी लेकर हिमालय से टकराती है, तो पहाड़ उसे रोकते हैं। नतीजा होता है Cumulonimbus बादलों का बनना—ऐसे बादल जो 50,000 फीट तक ऊंचे जा सकते हैं। ये बादल जब फटते हैं, तो अपने साथ पूरी घाटी में तबाही ला सकते हैं।”

यह सिर्फ एक स्थानीय घटना नहीं थी, यह उस मानसूनी सिस्टम का परिणाम था जिसे Middle East Spring Heating ने और अस्थिर कर दिया है।

पिघलते ग्लेशियर और कमजोर होती चट्टानें
DRDO और MoES के आंकड़ों के मुताबिक, हिमालय के ग्लेशियर हर साल औसतन 15 मीटर पीछे हट रहे हैं। कुछ इलाकों में यह दर 20 मीटर से भी ज़्यादा है।
गंगा बेसिन: 15.5 मीटर/वर्ष
इंडस बेसिन: 12.7 मीटर/वर्ष
ब्रह्मपुत्र: 20.2 मीटर/वर्ष

Wadia Institute of Himalayan Geology के वैज्ञानिक बताते हैं कि जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, नीचे की ज़मीन अस्थिर होती जाती है।
पिघलती बर्फ, बहती चट्टानें और अचानक बनने वाले झीलें, जिनके टूटने पर कई गांव बह जाते हैं।

2018 तक Karakoram और Hindu Kush जैसे इलाकों में 127 बड़े glacier-related landslides रिकॉर्ड किए गए हैं।

हिमालय अब चेतावनी नहीं दे रहा, वो सीधे जवाब दे रहा है

IPCC की Cryosphere रिपोर्ट साफ़ कहती है कि high-elevation regions में हर 1°C तापमान बढ़ने पर वर्षा की तीव्रता 15% बढ़ जाती है। यह सामान्य विज्ञान से दुगुनी दर है।

अब ऊंचे इलाकों में बारिश बर्फ की जगह होती है। क्यों? क्योंकि zero-degree isotherm, वो स्तर जिस पर बर्फ गिरती है, ऊपर चला गया है। जहां बर्फ गिरती थी, अब मूसलधार बारिश होती है। और जब बारिश होती है, तो वह बर्फ की तरह शांत नहीं होती, वो मिट्टी, चट्टान और पेड़ों को बहाकर ले जाती है।

अंधाधुंध विकास: विकास या विनाश का न्योता?

2013 का केदारनाथ
2021 की ऋषिगंगा
और अब 2025 की धाराली आपदा, तीनों एक जैसी कहानियां कहती हैं:
“प्राकृतिक आपदाएं हमारी नीतिगत विफलता का आइना हैं।”

होटल, सड़कें, सुरंगें, और हाइड्रो प्रोजेक्ट, इन सबका निर्माण बिना भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के किया गया।
दून यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वाईपी सुंद्रियाल कहते हैं:
“हिमालय दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है—अभी यह भूगर्भीय दृष्टि से अधपका है। और हम इसमें निर्माण कर रहे हैं, जैसे यह किसी पठार पर बना शहर हो। बारिश की हर बूंद अब विनाशक बन सकती है।”

समाधान क्या है? और क्यों हम अब भी टाल रहे हैं?

IIT मुंबई के डॉ. सुभीमल घोष कहते हैं,
“जैसे हमने चक्रवातों के लिए चेतावनी प्रणाली बनाई है, वैसे ही हमें पहाड़ी इलाकों के लिए भी Floodplain Zoning, Early Warning Systems और खतरे की लेवल आधारित प्लानिंग करनी चाहिए।”

Automatic Weather Stations (AWS), खासकर हिमालय की ऊपरी पहाड़ियों में, जान बचाने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
ISB के प्रोफेसर अंजल प्रकाश, जो IPCC के लेखक भी हैं, चेतावनी देते हैं:
“हमें AWS का जाल फैलाना होगा। हर घाटी, हर जलग्रहण क्षेत्र, हर पहाड़ी की नब्ज़ हमें पढ़नी होगी—तभी हम समय रहते अलर्ट जारी कर पाएंगे।”

हम क्या खो रहे हैं, ये सिर्फ आंकड़े नहीं बताते, वो ज़मीनी कहानियां हैं

हर बार जब एक घर बहता है, कोई अपनी ज़मीन छोड़ता है, या कोई बच्चा अपने स्कूल का रास्ता खो बैठता है, हम सिर्फ जलवायु परिवर्तन की मार नहीं झेल रहे, हम अपनी योजनात्मक अक्षमता की कीमत चुका रहे हैं।

हिमालय कोई ‘अदृश्य खतरा’ नहीं है। वो हर साल, हर मानसून, हर जलप्रलय में हमें याद दिला रहा है:
“मैं थक चुका हूं सहन करते करते। अब आपकी बारी है सीखने की।”

क्या हम तैयार हैं? या फिर अगली बार की बारी किसी और धाराली की होगी?

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