शब्दों में छिपा हमारा सांस्कृतिक इतिहास

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डॉ. मधुसूदन
(एक) शब्दों में इतिहास की खोज:

सोचा न था, ऐसा छिपा हुआ सांस्कृतिक इतिहास इन शब्दों के पीछे होगा. जिसे पाकर मैं स्वयं हर्षित ही नहीं चकित भी हूँ; और धन्यता अनुभव कर रहा हूँ. इतिहास उजागर करने के लिए जैसे भूमि का खनन कर अवशेष ढूँढे जाते हैं. और उन अवशेषों के सहारे फिर इतिहास का शोध वा अनुसंधान किया जाता है. कुछ उसी प्रकार, शब्दों के अर्थों को खोज कर सांस्कृतिक इतिहास को उजागर करने का यह प्रयास है. क्यों न हम कुछ शब्दों को चुनकर उनके अर्थों को खोज कर देखें?

(दो) शिक्षा, और गुरुकुल से जुडे शब्द: 

इस आलेख में गुरुकुल से संबंधित शब्दों का चयन किया है. एक चर्चा के अंतर्गत चर्चे गए प्रश्नो के संदर्भ में आलेख का गठन किया है. जिस चर्चा में गुरुकुल से जुडे शब्दों पर ऊहापोह हुआ था. अतः इस आलेख में विद्यार्थी, छात्र, गुरु, गुरुकुल, आचार्य, ग्रंथ, ग्रंथि, पत्र, भूर्जपत्र, ताडपत्र, हस्तलिपि, पाण्डुलिपि, इत्यादि शब्दों का अर्थ खनन करते हैं

(१) छात्र:

शब्द की व्युत्पत्ति (जड) छत्र शब्द में मानी जाती है. पतंजलि ने इसकी व्याख्या करते हुए बताया है कि गुरु छत्र है, क्योंकि वह शिष्य को पितृवत आच्छादित करता है और छत्र के समान उष्णादिवत्‌ अज्ञान को दूर करता है. यह *छात्र* शब्द हमारी विशुद्ध गौरवशाली गुरुकुल परम्परा का अवशेष है. आज सामान्य विद्यार्थी को भी छात्र कहा जाता है.

वास्तव में, गुरुकुल की छत और वहाँ गुरु की छत्र-छाया में रहनेवाला शिक्षार्थी ही छात्र कहलाया जाता था. आज इस शब्द का प्रयोग स्थूल अर्थ में सामान्य विद्यार्थी के लिए किया जाता है. पर आज भी शब्द का वास्तविक अर्थ व्युत्पत्ति के आधार पर लगा सकते हैं.

यदि हमारे शब्द ऐसे व्युत्पत्ति-द्योतक ना होते तो यह अर्थ हम पुनरुज्जीवित नहीं कर पाते. यह व्युत्पत्ति का गुणविशेष हमारे शब्दों में जैसा है; किसी और भाषा में आपको नहीं मिलेगा. आज के इस उन्नत युग में भी यह शब्द हमारी सांस्कृतिक गरिमा का प्रमाण दे रहा है.

आज का बालक पहले दिन शाला जाते समय भी रोता है; तो सोचिए, उस युगमें नन्हा शिशु अपने माता पिता को छोडकर प्रदीर्घ कालावधि के लिए गुरुकुल कैसे चला जाता होगा? उसकी मानसिकता की तनिक कल्पना करें. ऐसी कर्तव्य परायणता का और समर्पण का इससे बडा दृष्टान्त आप को किसी और संस्कृति के इतिहास में इस संसार में नहीं मिलेगा. और ऐसा बालक गुरुकुल जाकर वर्षों तक गुरु की छत्र-छाया में शिक्षा के लिए, रहा करता था.
गुरु भी निःस्वार्थ, समर्पित, और पवित्र-कर्तव्य भाव से अध्यापन करता. उच-नीच का भेदभाव नहीं था.

कृष्ण के साथ सुदामा भी रहता. कृष्ण और सुदामा से अलग अलग व्यवहार नहीं होता. सुदामा को ईंधन की लकडियाँ लाने या काँटोभरी कुश उखाडने का काम, और कृष्ण को विश्राम ऐसा भेद भाव नहीं था.

(२) विद्यार्थी: 

विद्यार्थी शब्द भी अपना सांस्कृतिक अर्थ लेकर चलता है. विद्यार्थी किसको कहते हैं? जिसका अर्थ, अर्थात हेतु विद्या है, उसे कहते है विद्यार्थी. जिसको शुद्ध ज्ञान पाना है, वह है विद्यार्थी. ऐसा विद्यार्थी रहता है, माता-पिता के साथ.

पर आज विद्यार्थी भी अर्थार्थी हो चुका है. विद्यार्थी दशा में ही उसका सारा ध्यान है अर्थ अर्थात पैसों पर. हमारी शिक्षा प्रणाली ही दूषित हो चुकी है. छात्र तो है ही नहीं; न कोई विद्यार्थी भी है. मात्र बचा है; प्रमाण-पत्र चाहनेवाला प्रमाणपत्रार्थी. और प्रमाण पत्रों से ही धनार्जन होता है इस लिए धनार्थी या वित्तार्थी. फिर जैसे तैसे धन की प्राप्ति करने से, भ्रष्टाचार पनपा है. और देश घोटालों में उलझ कर भगीरथ प्रयास से भी देश को उठाना कठिन होता जा रहा है.
(३) आचार्य: 

आचार्य शब्द की व्युत्पत्ति आचार से जुडी है. जो अपने स्वयं के आदर्श आचार-व्यवहार से शिक्षा दे वह था आचार्य. और छात्र आचार्य का अनुकरण करते. और आचार्य का आदर्श व्यवहार छात्रों पर अनायास संस्कार करता. और ऐसा प्रकृष्ट आचरण करनेवाला कहा जाएगा प्राचार्य. आज न आचार्य है, न प्राचार्य है, ऐसा पतन हो चुका है, केवल बचे हैं भ्रष्टाचार्य!
(४) गुरु और गुरुकुल
गुरु में व्युत्पत्ति-दर्शी गुरुता, गौर और गरिमा होनी चाहिए. गुरु का व्यवहार भी निष्कलंक और आदर्श होना चाहिए. ऐसे गुरु के गुरुकुल या आश्रम को समाज अपने पवित्र कर्तव्य भाव से दक्षिणा द्वारा आश्रम चलाता था. सारा समाज यथा-शक्ति गुरुदक्षिणा अर्पण करता; और गुरुकुल का योगक्षेम सम्पादित होता. मॅक्समूलर भी हमारी इस परम्परा की सराहना करता है; जो वास्तविक हमारे मतान्तरण का उद्देश्य रखता था. उसने गुरुकुल परम्परा की सराहना निम्न शब्दों में की थी.
गुरु के लिए Max Mueller: क्या कहता है?

*These Gurus were socially and intellectually a class of high standing. They were a recognized and, no doubt a most essential element in the ancient society of India. As they lived for others, and were excluded from most lucrative pursuits of life, it was a social and a religious duty that they should be supported by the community at large.*

भावानुवाद:

गुरु समाजमें ऊंचा आदर पाते थे, और बुद्धिमान माने जाते थे. वे प्राचीन भारतीय समाज के आवश्यक अंग थे. क्योंकि वे दूसरों के लिए त्यागमय जीवन व्यतीत करते थे, उनके लिए धनार्जन वर्ज्य था. अतः इन गुरुओं का योग-क्षेम शेष समाज का दायित्व था

(५) ग्रन्थि और ग्रंथ: 

ग्रंथि:

का सीधा अर्थ गाँठ होता है. फिर पैसों की थैली, जिस के मुंह पर गांठ मारकर रखी जाती थी; उसे भी गांठ कहा जाने लगा. धोती पहने कमर पर गांठ में धन या मुद्रा रखी जाती. उसको भी कालान्तर में गांठ कहा जाने लगा.शरीर की भी विभिन्न Glands ग्रंथियाँ मानी जाती हैं. फिर मानसिक हीनता या गुरुता ग्रंथियाँ भी होती हैं. इसी ग्रंथि से जुडा ग्रंथ शब्द है. उस शब्द की जड भी ग्रंथि ही है.
ग्रंथ:

किसी हस्त लिखित भूर्ज पत्रों वा ताडपत्रों पर लिखित पाण्डु लिपि के संग्रह के खुले छोर पर गठ्ठन से बाँध दिया जाता है, तो उस को भी ग्रंथि (गांठ) से बँधा, इस लिए ग्रंथ कहा जाने लगा. ऐसा इतिहास भी ग्रंथ शब्द के पीछे छिपा है.

शब्दविस्तार:

इस ग्रंथ शब्दका भी भाषा में विस्तार हुआ और ग्रंथ, ग्रंथी, गुरुग्रंथ, ग्रंथसाहब, ग्रंथालय, ग्रन्थी. ग्रंथागार, ऐसे अनगिनत शब्द विकसित हुए. ऐसे सभी जुडे हुए शब्दों का विस्तार और उनके अर्थ हमें एक साथ प्राप्त होते हैं. इस विधा के भी अनगिनत उदाहरण हैं जो एक स्वतंत्र आलेख का विषय है. अस्तु.

आलेख को सीमित रख कर इस शब्द विस्तार को विराम देना उचित मानता हूँ.
(६) पत्र:

शब्द का मौलिक अर्थ, वृक्ष या पेड का पत्ता था. ऐसा ही अर्थ अमरकोष में मिलता है. और यही शब्द की व्युत्पत्ति प्रतीत होती है; प्राचीन समय में (कागज़ नहीं था) वृक्षों के पत्तों पर ही लिखा जाता था. उदाहरणार्थ, भूर्ज (Birch) पत्र पर लिखा जाता था. आगे चलकर ऐसे पेड के पत्ते पर लिखे गए विषय को भी पत्र कहा जाने लगा. इसी शब्द का पर्याय ताडपत्र में भी प्रचलित हुआ, और आगे चलकर ताम्र-पत्र सुवर्ण-पत्र इत्यादि भी. संस्कृत के प्राचीन ग्रंथ अधिकतर ताड पत्र पर ही लिखे जाते थे. अंग्रेज़ी में *द लिफ ऑफ ए बुक* इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है. तब कागज़ का आविष्कार भी न हुआ था; न मुद्रणकला विकसित हुयी थी. पर जब आगे कागज़ का आविष्कार हुआ तो उसे भी पत्र संज्ञा ही दी गयी.
(७) हस्तलेख वा पाण्डु लिपि:
अथाह परिश्रम से पूर्वजों ने हस्तलिखित पाण्डु लिपियाँ और प्रतिलिपियाँ लिखवाई. और विश्व में अद्‌भुत, और अप्रतिम महाकाय परिश्रम का इतिहास रचा. और ऐसा अध्यवसाय युगानुयुगों तक चलता रहा. तब हमारे हाथ में आज महाप्रचण्ड आध्यात्मिक ज्ञान का भण्डार आया. ऐसी दूसरी परम्परा सारे संसार में नहीं है.

पर, विलियम जोन्स की एशियाटिक सोसायटी (१७८४) द्वारा हमारी हस्तलिखित पाण्डु लिपियाँ भारत भर दलालों को भेजकर अलग अलग स्रोतों से खरीदी गयी, और गुप्त यंत्रणा द्वारा भारत बहार भेजी गयी. सारे के सारे सोसायटी के ३० सदस्य परदेशी, युरोपवासी थे. एक भी भारतीय सदस्य नहीं था.

उन हस्तलिखित लिपियों में कुछ तो होगा, जिसके चलते ऐसी हस्त लिखित लिपियाँ भारत के बाहर भेजी गई.

सोचिए, जब मुद्रण-कला विकसित नहीं हुयी थी. कागज़ भी नहीं था. ताडपत्रों पर वा भूर्ज पत्रों पर लिखा जाता था. कालान्तर में ये पत्र पुराने होते थे तो, पीले पड जाते थे. इस लिए पाण्डु (अर्थात पीला) लिपि शब्द प्रचलित हुआ, ऐसा अर्थ मैं करता हूँ. पीलिया रोग को भी पाण्डु रोग कहा जाता है.

समग्र ऋग्वेद गुरुकुल में कण्ठस्थ किया जाता था. प्रति दिन बालक ६ ऋचाएँ कण्ठस्थ करता. दूसरे दिन और ६, तीसरे दिन और ६. सारे वर्ष भर में ३० दिन छुट्टी के होते. ऐसा क्रम १८ वर्ष की आयु तक चलता. ७-८ वर्ष का बालक गुरुकुल जाता और १७-१८ की आयु तक सारा ऋग्वेद कण्ठस्थ कर लेता. फिर अनेक प्रकार के पाठ जैसे; गण-पाठ, पद-पाठ, जटा-पाठ, क्रम-पाठ, घन पाठ, इत्यादि दस प्रकार के पाठ हुआ करते. शलाका पद्धति से परीक्षा होती थी. गुरु की शलाका (सुई) जिस पृष्ठ को खोलती वहाँ से ऋचाएँ छन्द में शुद्ध वैदिक मन्त्रोच्चार सहित सुनानी पडती.

अनेक ग्रंथों के सूत्रों को भी कण्ठस्थ किया जाता. इसी प्रकार ४ वेद, १०८ उपनिषद, पाणिनि व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त, पतंजलि योगदर्शन, इत्यादि, इत्यादि, अनगिनत ग्रंथ हम तक पहुँच पाए हैं. कुछ ग्रंथ खो भी गए, लाखो ग्रंथ एशियाटिक सोसायटी ने चोरी छिपे भारत के बाहर ऑक्सफ़र्ड, कॅम्ब्रिज, लन्दन, बर्लिन इत्यादि ग्रन्थालयों में भिजवा दिए हैं.

क्या हमारे पास कुछ ज्ञान नहीं था? तो फिर क्या चुराके ले गए?

सोचिए; कितना कठोर और अनुशासित सामूहिक परिश्रम किया गया होगा?

पीढियों पीढियों तक ऐसी परम्परा अबाधित रखी गई होगी; इस लिए हम तक यह ज्ञान की पूँजी पहुँच पाई.

मात्र इन शब्दों को कुरेदने पर यह छिपा हुआ सांस्कृतिक इतिहास उजागर हुआ:

संदर्भ 

(१) अमरकोष का कोषशास्त्रीय तथा भाषाशास्त्रीय अध्ययन –डॉ. के. सी. त्रिपाठी.

(२) मॅक्स मूलर का भाषण ( हस्त लिखित– वेदान्त सोसायटी के सदस्य द्वारा लिखित वृत्तान्त)

(३) Encyclopedia of Authentic Hinduism

15 COMMENTS

  1. आदरणीय झवेरी जी,
    जिस दिन हम लोगों ने डैलस में अधिवेशन करने का संकल्प लिया उसी दिन हमने सोच लिया था कि शब्द रचना के ऊपर आप द्वारा प्रस्तुत सत्र लोगों को बहुत ही पसंद आएगा. आपकी विद्वत्ता से मैं व्यक्तिगत रूप से चिर परिचित था पर अपने मित्र गणों को वह अनुभूति प्रदान करने की बड़ी चाह थी.
    स्वास्थ्य के इतर आप पल्लवी जी के साथ इतनी लम्बी यात्रा कर अधिवेशन में सम्मिलित होकर आपने हमारे सत्रों को जो जीवन प्रदान की वह अविस्मरणीय रहेगा. आपकी भावयुक्त, विद्वतापूर्ण प्रस्तुति लोगों के मस्तक पटल पर अमिट छाप अंकित कर गयी है.
    हम आपके सर्वदा आभारी रहेंगे.
    पल्लवी जी को हमारा नमन.
    सादर – नन्दलाल सिंह

    • अन्यत्र प्रवक्ता.कॉम में श्री ललित गर्ग जी के लेख, “विकास परियोजनाओं की गति की तलाश” पर मैंने निम्नलिखित प्रतिक्रिया दी है|

      “केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शासन के चलते आज स्वतन्त्र भारत में यदि कोई बड़ी चुनौती है तो वह देश को संगठित करती राष्ट्रीय भाषा है| कुछ समय से मैं विभिन्न प्रांतीय शासनो में स्थित नगरपालिकाओं के अंग्रेजी जाल-स्थल देख रहा हूँ और मन में उठे प्रश्नों के उत्तर सोच पाने से पहले ही मेरे मानसिक पटल पर साधारण भारतीयों के ऐसे दयनीय चित्र उभर कर आते हैं कि मैं कुंठित हो उठता हूँ| अभी अभी मैं डिजिटल इंडिया के जाल-स्थल पर “जैसे तैसे, मत पूछो कैसे, मैं यहां अंग्रेजी के चक्रव्यूह में आ फंस गया हूँ| कृपया मुझे बाहर मेरे देश भारत ले जाओ तो मैं ठीक से सांस ले सकूँ| धन्यवाद”

      प्रो. गिरीश नाथ झा जी, मेरा आपसे अनुरोध है कि तनिक विचार करें कि सैंकड़ों वर्ष फिरंगी राज और तथाकथित स्वतंत्रता के उपरान्त भारत में विद्यालयों, महाविद्यालयों, और उच्चतर शिक्षा केंद्रों में थोपी गई अंग्रेजी भाषा भारत के अधिकांश जनसमूह में लोकप्रिय न बन पाई वह राजनीति की भाषा अंग्रेजी क्या शासन और नागरिकों में सामंजस्य व समन्वय लाए बिना आज के समाज में प्रगति हेतु सहायक हो सकती है? कृप्या बताएं साधारण नागरिकों को लाभ पहुंचाती अंतरजाल पर प्रांतीय भाषाओँ, विशेषकर हिंदी, में जाल-स्थल क्यों नहीं उपलब्ध हो पाए हैं? इस गंभीर स्थिति से उत्पन्न हिंदी व अन्य भारतीय मूल की भाषाओं का रोमन लिप्यंतरण कथित भाषाओँ की आत्मा, उनकी लिपि को ही नष्ट न कर दे!

    • प्रिय राकेश जी धन्यवाद. चाहता भी हूँ, समय निकाल नहीं पाता. हर्ष की बात: यहाँ संस्कृत/हिन्दी के कारण ही व्यस्त रहता हूँ. ==>**आप अवश्य आलेख** लिखते रहिए. *युगान्तर**अपेक्षित है.

  2. आदरणीय मधु भाई,
    सदा की भाँति आपके ये आलेख भी सत्य रहस्य का उद्घाटन
    करते हुए शोधपूर्ण , प्रभावी और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
    प्रश्नोत्तर विधा में विषयवस्तु अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट हो जाने
    से आलेख अधिक उपयोगी सिद्ध हो रहा है ।
    अनेकश: साधु्वाद !!
    शकुन बहिन

  3. आजकल एक प्रथा या प्रवाह बन गई हैं कि हर जगह हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं जबकि हिंदी में उपयुक्त शब्द उपलब्ध हैं। कई बार तो इतने कठिन उर्दू और अंग्रेजी के शब्द हिंदी में प्रयोग किये जाते हैं के सामान्य व्यक्ति समझ ही नहीं सकता। हिंदी का कोई भी ऐसा माध्यम (जैसे टेलीविज़न ,रेडियो, हिंदी प्रेस , फिल्म जगत ) नहीं हैं जो शुद्ध हिंदी का प्रयोग करता हो कई लोग जब हिंदी के माध्यम के लोगो से शिकायत करते हैं के शुद्ध हिंदी का प्रयोग करे तो कुछ प्रसार माध्यम के लोग कहते हैं के हिंदी को सरल करने के लिए उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं। कुछ हिंदी प्रसार माध्यम के लोग कहते हैं के हिंदी में उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का चलन चालू हो गया और जनता इन शब्दों को समझती भी हैं. कभी कभी हिंदी में जो उर्दू और अंग्रेजी के प्रयोग किये हुए शबद इतने कठिन होते हैं के एक शिक्षित व्यक्ति भी नहीं समझ सकता. हिंदी माध्यम के लोग कभी कभी यह भी कहते हैं के कुछ हिंदी के शब्द इतने कठिन हैं के लोग नहीं समझते इसलिए उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग की आबश्यकता हैं। जबकि वास्तबिकता हैं के उर्दू और अंग्रेजी के शब्द भी कठिन हैं. हिंदी में हिंदी माध्यम के लोगो ने ही हिंदी में उर्दू और अंग्रेजी के प्रचलन और प्रसार किया। यदि हिंदी माध्यम के लोग हिंदी के कठिन शब्दों का प्रयोग करते तो लोग कठिन, शुद्व और उचित हिंदी शब्द समझना आरम्भ कर देते और वह शब्द भी प्रचलित हो जाते। हिंदी माध्यम के लोगो को शुद्ध हिंदी के शब्दों का महत्ब ही मालूम नहीं हैं। डॉ मधुसूदन जी ने अपने लेख में वताया के शब्दों में हमारा इतिहास छुपा हुआ हैं और हिंदी के शब्द ब्युत्पत्ति घोतक होते हैं। उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों में यह गुण नहीं होते हैं। एक हिंदी के शब्द से कई अन्य शब्द बनाये जा सकते हैं। जैसे देश से विदेश, प्रदेश बनाये जा सकते हैं लेकिन उर्दू शब्द मुल्क से कितने शब्द बन सकते हैं. डॉ. मधुससूदन जी का लेख हिंदी को लोकपिर्य बनाने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता हैं।

    • मोहन गुप्ता जी, आपके विचारों से पूर्णतया सहमत होते वितर्क हेतु ऐसा भी कहा जा सकता है कि हिंदी में शब्दों के कठिन होने पर उस विदेशी भाषा का प्रयोग क्यों किया जाए जो शतकों से नहीं तो अवश्य ही पिछले सात दशकों से भारत और अधिकांश भारतीयों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का कारण रही है? केंद्र में राष्ट्रवादी शासन होने पर आज भारतीयों को समझना होगा कि अंग्रेजी केवल राजनीति की भाषा रही है| भले ही बहुत से अनपढ़ और गरीब भारतीय कांग्रेस द्वारा माथे पर लगे दलित चिन्ह के होते सामान्य रूप से अपना जीवन निर्वाह किये जाते हैं लेकिन एक अंग्रेजी पढ़ा-लिखा स्वार्थी दलित उनके जीवन में उथल-पुथल मचाए राजनीती के राष्ट्रीय स्वरूप को बिगाड़ समाज में एक दूसरे के लिए कटुता भर देता है| कोई अंग्रेजी पढ़े-लिखे उस राष्ट्र-द्रोही से पूछे आज इक्कीसवीं सदी में हमारे बीच क्योंकर कोई दलित बना बैठा है?

      स्वतन्त्र भारत पर इस राजनीति की भाषा अंग्रेजी के दुष्प्रभाव के सन्दर्भ में शोध-कार्य करते कई दृष्टिकोण अथवा विचार बनाए जा सकते हैं लेकिन मैं अल्पसंख्यक अधिकारी-वर्ग के समेत अन्य सभी अंग्रेजी-भाषा जानने वालों को संयुक्त-राष्ट्र अमरीका स्थित जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुमित अग्रवाल के उस लाटरी-विजेता की तरह देखता हूँ जिसके कारण उसके पड़ोस में रहते लोगों में आर्थिक दिवालियापन की संभावना तीव्र हो जाती है!

    • नमस्कार,
      सही कहा, मोहन जी. हमारे शब्द अपने पूरे परिवार के विस्तार के साथ भाषा में आते भी है; और सहज घुल मिल जाते भी हैं. साथ हमारी सारी प्रादेशिक भाषाएं भी इस प्रक्रिया से समृद्ध होती हैं. ऐसा किसी भी परदेशी भाषा के शब्दों के विषय में नहीं कहा जा सकता. साथ साथ कुछ ही उपसर्ग-प्रत्यय इत्यादि की जानकारी से हर कोई इसका लाभ उठा सकता है. आगे इसी विषय को केन्द्र बनाकर आलेख प्रस्तुत करूँगा.
      आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

  4. अभी अभी यह ज्ञान युक्त आलेख पढ़ा | आज जब दुनिया भारत के उस पुरातन सांस्कृतिक वैभव का लोहा मानकर यह जानने और मानने के लिए लालायित है कि भारत के पास कितना कुछ है विश्व को देने के लिए !!!! इस तकनीकी के जमाने में यदि हम भारत के लिए यह कहे की ” प्रत्यक्षं किं प्रमाणं ” तो अतिशयोक्ति न होगी | धन्यबाद भूली हुई ऐतिहासिक धरोहर की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए |

    • बहन रेखा जी
      धन्यवाद. आप की टिप्पणी ने आलेख को दीर्घजीवी कर दिया.
      पर कुछ पाठक आलेख ढूँढ नहीं पा रहे हैं.
      हमारी ऐतिहासिक संस्कृति और परम्परा ही थी जिसके कारण हम आज तक टिक पाए हैं. और भी कई सच्चाइयाँ हैं जिन्हें शब्दांकित करने की आवश्यकता है. समय मिलते ही प्रयास करूँगा.
      धन्यवाद-
      मधु भाई

    • सहानी जी–
      बिल्कुल सही कहा आपने.
      आज कल “प्रमाण पत्रों” का बोलबाला है.
      पर कुछ गुरुकुल आज भी जीवित हैं.
      अंग्रेजो ने गुरुकुलों को खतम (करने का प्रयास) किया था.
      नया आलेख बनने पर डाला जाएगा.
      टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

  5. हिन्दी के प्रकृष्ट पुरस्कर्ता युवा श्री जयन्त चौधरी द्वारा (जो सत्र संचालक थे.)-अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति के अधिवेशन में प्रस्तुति पर, निम्न संदेश आया था. (आज का आलेख प्रस्तुति पर नहीं, पर निजी और वैयक्तिक प्रश्नोत्तरी पर आश्रित है.) व्याख्यान का सार भी समय मिलते ही लिखा जाएगा.
    ==> कुछ पाठक मित्रों की अधिवेशन की प्रस्तुति पर जिज्ञासा है; समय मिलते ही प्रयास करूँगा.
    मधुसूदन
    ————————————————————————————————
    आदरणीय झवेरी जी,
    यह हमारा सौभाग्य था की आप जैसे विद्वान् का साथ और ज्ञान मिला.
    नन्दलाल जी ने जैसा कहा था, उससे भी उत्तम पाया आपके सत्र को.
    यह हम जीवन भर नहीं भूलेंगे.
    जो अद्भुत ज्ञान और नया आयाम मिला, उससे मानव को मानव बना दिया आपने.
    आपने और आदरणीय पल्लवी जी ने एक उच्चतम उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो हमारे लिए एक आदर्श है..
    इस ज्वलंत उदाहरण से आपने और दीप प्रज्वलित किये हैं…
    भविष्य में भी, यह ज्ञान गंगा प्रवाहित रहे, आप और पल्लवी जी यूँ ही प्रकाश फैलाते रहें… इन्ही शुभकामनायों के साथ,

    आपका कृतज्ञ,
    जयंत चौधरी (सत्र संचालक: अं हिन्दी अधिवेशन-डैलस टेक्सस)

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