ममता त्रिपाठी की कविता : सृष्टि

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धन्य है तिमिर का अस्तित्व

दीपशिखा अमर कर गया ।

धन्य है करुणाकलित मन

हर हृदय में घर कर गया ।

ज्योति ज्तोतिर्मय तभी तक

जब तक तिमिर तिरोहित नहीं ।

जगति का लावण्य तब तक

जब तक नियन्ता मोहित नहीं ।

पंच कंचुक विस्तीर्ण जब तक

तब तक सृष्टि प्रपञ्च साकार ।

बालुकाभित्ति सी ढह जायेगी

जैसे होगा उसका विस्तार ।

सृष्टि संकुचन उस महाशक्ति का

प्रलय है विस्तार उसका ।

बुलबुले सी मिटेगी लीला

होगा जैसे प्रसार उसका ।

अपनी इच्छा से ही उसने

उकेरा यह सुन्दर चित्र ।

समेटेगा अपनी ही इच्छा से,

यही शाश्वत सत्य विचित्र ॥

4 COMMENTS

  1. निराला के बाद इस तरह की दार्शनिक शैली की कविता मैंने आज पहली बार पढी है। अच्छी कविता है मैम आपकी……

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