कविता-हमको बिरासत में झुकी गरदन मिली-प्रभुदयाल श्रीवास्तव

हमको बिरासत में झुकी गरदन मिली

 

वह शेर हम बकरी बने जीते रहे

मिल बैठकर तालाब को पीते रहे|

 

वह बाल्टियों पर बाल्टियां लेते रहे

हम चुल्लुओं को ही फकत सींते रहे|

 

पाबंदियों के गगन में हमको उड़ा

मन मुताबिक डोर वे खींचे रहे|

 

शोर था कि कान कौआ ले गया

सुन देखकर भी आँख हम मींचे रहे|

 

पेड़ पर चढ़ फल सभी वे खा गये

डालियों के हम सदा नींचे रहे|

 

श्वान बनकर दौड़ कई दौड़े मगर

दौड़ में अब्बल सदा चीते रहे|

 

सारी जमीनें आज उनके नाम हैं

हम नापने के काम के फीते रहे|

 

वह आसमां तक को उड़ाकर ले गये

हर तरफ से हम गये बीते रहे|

 

अगुआई ऐंजिन की तरह उनको मिली

गार्ड बनकर हम सदा पीछे रहे|

 

सारे जहां का जल समंदर पी गया

तालाब पोखर और कुंए रीते रहे|

 

हमको बिरासत में झुकी गर्दन मिली

इसलिये तलवार वे खींचे रहे|

6 COMMENTS

  1. ऐसी रचनाओं कोघर घर पहुंचाकर आम लोगों की चेतना को जागृत तो किया ही जा सकता है|लोग देखें की सत्ता के भूखे भेड़िये
    कुचलेदबे गरीबों का लहू चूसकर कैसे फल फूल रहे हैं|

  2. तभी तो हमारा ‘एयर इंडिया’ का महाराजा का भेष पहना हुआ पगड़ी धारी झुक झुक कर प्रणाम करते दिखाया जाता है|
    ===>
    भाई का द्वेष करे,

    परदेशीको मारे सलाम,

    भारत कब स्वतंत्र हुआ?

    क्यों, रह गए अब भी गुलाम?

    अंग्रेजी संसद में चले,

    उन्नत और होती चले,

    क्या भारत , या इंग्लैण्ड है?

    जहां हिंदी होती है नीलाम?

    ‘हिंदी’– माँ की बिंदी, को,

    मिटाकर, नीलाम कर,

    झुकी झुकी गरदन लिए,

    घूमता यह देश गुलाम?

    प्रभु दयाल जी आपने हमारे मन की बात कह दी|
    शतश: धन्यवाद|

  3. बहुत बढ़िया और सत्य कविता लिखी है श्री श्रीवास्तव जी ने. काश संसद में कोई इस पढ़े …………….

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