भाषा की गरीबी: गरीबी उन्मूलन के लिए पहले भाषा की गरीबी हटानी पड़ेगी

-विराट दिव्यकीर्ति-
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नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में ‘हिन्दी पहले’ का आग्रह क्या किया एक अच्छी खासी बहस शुरू हो गयी. आधुनकि भारत में भाषा का प्रश्न कई बार उठाया गया है. हिन्दी भाषी बहुसंख्यकों को लगता है कि यह स्वाभाविक है कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना चाहिए. परन्तु भारत बहु-भाषा संपन्न देश है. अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वाले इस बात का घोर विरोध करते हैं कि उनकी भाषाओं की उपेक्षा करते हुए हिन्दी को साम्राज्य दे दिया जाए. विरोध के स्वर इतने प्रबल हैं कि कुछ लोग इस को लेकर देश के विगठन तक की संभावना से चेताते हैं. भारत की इस आपसी कलह के बीच अंग्रेजी – जो कि सबके लिए ही बाहर वाली है, को स्वीकृति मिल जाती है. कुछ वैश्विक, आर्थिक और इतिहासिक कारण हैं जो अंग्रेजी की सर्व-स्वीकृति में सहयोग करते हैं.

कभी आश्चर्य होता है कि इतने बहुआयामी विषय की चर्चा का ध्रुवीकरण हिन्दी बनाम अंग्रेजी में क्यों परिवर्तित हो जाता है? प्रायः हिन्दी के पक्ष में तर्क राष्ट्रवादी सोच और संस्कृति प्रेरित रहते हैं. फिर भी हम यह देख रहे हैं कि जिस समाधान को स्वीकार किया जा रहा है वह विरोध के मुख्य बिंदु- प्रादेशिक पहचान- के संरक्षण में कोई सहयोग नहीं करता. पहचान और संस्कृति जैसे कारण छोड़ कर अन्य ठोस कारण भी हैं जो निर्दिष्ट करते हैं कि ना अंग्रेजी, ना हिन्दी और ना ही दोनों साथ में पूरे भारत पर लागू की जानी चाहिए.

आंकड़ों पर आधारित झूठ

भाजपा को जनादेश आर्थिक विकास के मुद्दे पर मिला है. कुछ लोग अब सोच रहे हैं, जब मुद्दा आर्थिक है तो यह भाषा बीच में कहां से आ रही हैं? जिस देश में 25 करोड़ जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे रहती हो, क्या उस सरकार का पहला काम आर्थिक विकास नहीं होना चाहिए?

इन प्रश्नों को लेकर एनडीटीवी पर एक बहस आयोजित की गयी. बहस में टीम लीज़ के संस्थापक मनीष सभरवाल ने भी भाग लिया, वे उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मानती है कि अंग्रेजी को हटा भारतीय भाषाओं को लाने की बात सरासर मूर्खता है. बहस में उन्होंने अपनी बात रखी कि अंग्रेजी का ज्ञान जनसांख्यिकीय-लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड: जनसँख्या में काम कर सकने वालों का आधिक्य) वसूलने के लिए अनिवार्य है.

उनकी कही हुयी बात, कि अंग्रेजी का ज्ञान दुनिया की तरफ खिड़की खोलता है, में कुछ सत्य तो है. परन्तु साथ में यह बात भी सत्य है कि अंग्रेजी को छोड़ जो दुनिया है वह अंग्रेजी की दुनियाकी तुलना में और बहुत अधिक बड़ी है. उनका एक अन्य वक्तव्य- अंग्रेजी का ज्ञान अपने आप में एक पेशेवर योग्यता है, बिल्कुल निराधार है. यह विचार अंग्रेज शासकों की देन है, जिन्हें केवल कुछ क्लर्कों की आवश्यकता थी. दुनिया में अंग्रेजी और हिन्दी (हिन्दुस्तानी स्वरूप में) दोनों करीब 50 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाती हैं. 50 करोड़ अपने आप में दुनिया ही है.

उनका दूसरा तर्क था कि अंग्रेजी की शिक्षा से नौकरी मिलने की संभावना 300 % बढ़ जाती है. आम उपलब्ध सूत्रों के अनुसार टीम लीज़ कुल आवेदकों में से केवल 3 % आवेदकों को नौकरी दिलवा पाते हैं. जब इन दोनों संख्याओं का विश्लेषण एक साथ देखते हुए करते हैं तो हमें पता यह चलता है कि हर 1000 आवेदकों में से वे केवल 30 को नौकरी दिलवाते हैं, और उन 30 में भी 8 को नौकरी बिना किसी अंग्रेजी योग्यता के मिल जाती है. अनर्गल सांख्यिकी उछाल कर अंग्रेजी के हमदर्द हमारा ध्यान मुख्य समस्या – नौकरियों का ना होना, से भंग करते हैं. जब स्थिति यह है तब समस्या का हल क्या अंग्रेजी शिक्षा है? अंग्रेजी शिक्षा प्रोत्साहन से केवल एक परिणति हो सकती है कि फिर बेरोजगार अंग्रेजी बोलने वाले होंगे.

आधारभूत सुविधा (इंफ्रास्ट्रक्चर) की कमी

मुद्दे का प्रश्न है कि हमारे पास आवश्यकतानुसार नौकरियां क्यों नहीं है, जिनके आधार पर हम अपने जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनवा भारत को समृद्ध बना पाते? ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में विकसित वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (ग.सू.) कई आयामों पर गरीबी को नापता है. इस सूचकांक में शिक्षा की हिस्सेदारी 33% रखी गयी है. ग.सू. के शिक्षा खंड में उन्होंने दो उपखंड रखे हैं: ‘विद्यालयी वर्षों की गणना’ और ‘विद्यालय में दाखिला’. यह दोनों ही खंड इस बात को प्रतिबिम्बित नहीं करते कि क्या शिक्षित व्यक्ति अपनी शिक्षा का प्रयोग आर्थिक क्रियाकलापों में कर पा रहा है?

समकालीन विकास अर्थशास्त्र पानी, परिवहन जैसे मूर्त और नीति जैसे अमूर्त आधारभूत सुविधाओं का होना गरीबी उन्मूलन के लिए आवश्यक मानता है. जब आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, तब लोग स्वयं ही अपने आर्थिक विकास के लिए पहल करते हैं. जहां ग.सू. इस बात को तो मानता है कि शिक्षा लोगों के आर्थिक पहल करने का कारण होती है, ग.सू. इस बात को नज़रअंदाज कर देता है कि जानकारी एकत्रीकरण, विश्लेषण, संवाद और लेनदेन जैसी क्रियाएं एक भाषायी प्रसंग में ही की जाती हैं. हमारा यह मत है कि किसी शिक्षित व्यक्ति के विकल्प उस व्यक्ति की शिक्षा भाषा में उपलब्ध भाषायी आधारभूत सुविधाओं द्वारा सीमित रहते हैं. भाषायी आधारभूत सुविधाओं में नवीनतम ज्ञान, उत्पाद, सेवाएं तथा क्षेत्र विशेष से संबद्ध भाषाई समुदाय जैसे कारक शामिल हैं.

आज विकास के नाम पर डिजिटल विभाजन की बात करने का चलन तो आ गया है परन्तु इस तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं खींचा जा रहा कि डिजिटल दुनिया भी भाषायी आधारभूत सुविधाओं पर बनती है. दूसरी तरफ उद्योग जगत से गूगल इंडिया के राजन आनंदन ने यह स्वीकार किया है कि इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की वृद्धि इस बात पर निर्भर करेगी कि भारतीय भाषाओँ में कितनी सामग्री उपलब्ध हो पाती है.

भाषायी आधारभूत सुविधाओं में चिरकालिक अपर्याप्त निवेश, भाषायी आंतरिक कलह, और अल्पदृष्टि ने हमें यह परिणाम दिया है: अंग्रेजी शिक्षित अभिजात्य वर्ग जिन्हें भाषायी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं (5%), भारतीय भाषाओं में शिक्षित जनगण जिनके पास कोई भाषायी सुविधा उपलब्ध नहीं है (70%) और अनपढ़ (25%). अंग्रेजी में सुलभ आधारभूत सुविधाएं सरकारकी उपस्थिति नहीं बल्कि उसकी अनुपस्थिति की देन है. अगर हम पाखंड का पर्दा हटा दें तो हम देख सकते हैं की वस्तुत: आज़ादी पर्यान्त 65 वर्ष चरखा कातने के बाद भी गांधी जी की धोती और छोटी हो गयी है.

कोई भी रास्ता चुनने से पहले हमें ‘सबके लिए अंग्रेजी’ अथवा ‘हमारी अपनी भाषाओँ की आधारभूत सुविधाएं’ के बीच तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए. विश्लेषण की सुविधा के लिए यदि हम समस्या का सरलीकरण इस प्रकार करें: हम अंग्रेजी के 1 पृष्ठ ज्ञान को 100 करोड़ जनता के बीच जो 22 भाषाएं बोलते हैं, कैसे पहुंचाएंगे? क्या हम सबको अंग्रेजी सिखाएंगे या हम उस ज्ञान का 22 भाषाओँ में अनुवाद करेंगे? दोनों विकल्पों में से किस विकल्प में कम साधनों की आवश्यकता पड़ेगी? यदि वह ज्ञान-पृष्ठ आर्थिक सक्रियता के लिए प्रेरणा है, तो किस विकल्प से सक्रियता जल्दी मिलेगी? अर्थशास्त्र के प्रश्न हमेशा इतने जटिल नहीं होते जितने की कुछ अर्थशास्त्री उन्हें बना कर प्रस्तुत करना चाहते हैं. और आज की तारिख में तो सूचना प्रौद्योगिकी बहुभाषीय व्यवहार को पहले की तुलना बहुत ही सरल बना रहा है.

खोज जारी रहे

हमें अपनी नौकरियां खुद पैदा करनी होंगी और अपनी समस्याओं के समाधान भी खुद ही ढूंढ़ने होंगे. दुनिया के दूसरे लोग इस प्रकार के मुद्दे किस तरह हल करते हैं, इसकी समझ से हमें सहायता मिल सकती है. जहां हमें गर्व है कि भारत बहुभाषा संपन्न राष्ट्र है, वहीं योरोपीय संघ 24 अधिकृत भाषाओं के साथ बहुभाषा का सबसे बड़ा जलसा है. नॉर्वे, डेनमार्क, स्लोवाकिया, हंगरी और अन्य छोटे-छोटे देशों, जिनकी आबादी हमारे शहरों से भी काम है, के पास भी पुष्ट पल्लवित स्वभाषा की आधारभूत सुविधाएं हैं. हमें जानना चाहिए कि वे अपनी ऐसी अनजान सी भाषाओं, जिनके बारे में दुनिया को पता भी नहीं है, का पोषण-संवर्धन क्यों करते रहते हैं? यदि हम उनके उत्तर से संतुष्ट होते हैं, तब हमें सीखना चाहिए कैसे.

लैसेस-फेयर नीतियां भाषायी आधारभूत सुविधाओं जैसी जनसुविधाओं में कारगर सिद्ध नहीं होतीं। भाषा के प्रश्न का समाधान ही भारत की नियति तय करेगा, क्या भारत फिर से विश्व शक्ति के रूप में उदय होता है, या भारत केवल एक सम्भावना बना रह जाता है?

2 COMMENTS

  1. हिन्दी का अपमान , रक्षक मौन
    गुजरात / जामनगर । जहां एक तरफ़ गुजरात के मुखिआ हिन्दुओं का मसीहा होने का दावा करते हैं वहीं उन्हीं के राज्य मे हिन्दुओं की मात्र भाषा हिन्दी को अपमान का सामना करना पड़ रहा है । ऐसा नही कि इस बात की जानकारी श्री मोदी के मंत्री मंडल और उनके सरकार के सिपा सलारों को नही है 1 सारी जानकारी के बावजूद की चुप्पी कहीं ना कहीं मोदी के कथनी और करनी मे फ़र्क को साफ़ दर्शाती है । मामला है जामनगर गुजरात के रिलांयस टॉउनशिप मे बने के डी अम्बानी विद्या मंदिर का जहां अशोक तिवारी पिछ्ले 10 वर्षों से हिन्दी के पीजीटी पद पर कार्यरत थे । पहले तो सबकुछ ठीक चलता रहा लेकिन जैसे ही स्कूल मे नये प्रचार्य उन्होंने हिन्दी भाषा को दरकिनार करना शुरू कर दिया यहाँ तक कि वे सार्वजनिक रूप से बच्चों से कहने लगे कि कौन कहता है हिन्दी पढना अनिवार्य है ऐसा कौन से संविधान मे लिखा है । प्राचार्य द्वारा बच्चों से कही बातों का विरोध करते हुये हिन्दी शिक्षक श्री तिवारी ने प्राचार्य से कहा कि ऐसा कहने से बच्चों का हिन्दी के प्रति रूझान कम हो जायेगा , बस इतना ही कहना प्राचार्य को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने अशोक तिवारी को शाला से विदा कर दिया । श्री तिवारी से जबरदस्ती त्यगपत्र पर दस्तखत करने का जोर दिया गया और ऐसा नही करने पर प्राचार्य अपने मित्र आलोक कुमार और स्कूल में लगी सेक्युरिटी मैन के साथ उनके साथ मार पीट भी कर बैठे और उन्हें फ़र्जी तरीके से टर्मिनेट भी कर दिया । प्राचार्य सुन्दरम का कहना है कि हमारे दक्षिण भारत मे बच्चे हिन्दी नही पढ़ते तो उससे उनका क्या नुकसान होता है । श्री सुन्दरम ने हिन्दी दिवस या अन्य किसी दिवस के दिन भी लगाये जाने वाले वॉल पोस्टर या ग्रिटिंग को हिन्दी की वजाय अंग्रेजी मे लिखने का तुगलकी फ़रमान जारी कर रखा है। बहरहाल हिन्दी शिक्षक पिछले कई माह से न्याय के लिये दर – दर भटक रहे है , लेकिन कोई भी उनकी सहायता के लिये आगे नही आया अलबत्ताउनकी पत्नी जो उसी स्कूल मे शिक्षिका हैं अब उन्हें प्रताड़ित करने का सिलसिला शुरू हो गया है । अब प्राचार्य दवारा उनकी पत्नी सुनंदा तिवारी को मकान से बेदखली का आदेश दे दिया गया है । इसी आदेश के चलते श्रीमती सुनंदा के पति पिछले कई महीने से घर से बाहर अकेले रहने को मजबूर हैं । श्री तिवारी ने बताया कि आज उनकी पत्नी और उनके बच्चे जो उसी स्कूल मे पढते हैं उन्हें भी प्रताड़ित किया जा रहा है । यहां तक कि उन्होंने इस बात की शिकायत प्रदेश के मंत्री और आला अधिकारियों से लेकर संस्थान के प्रमुख मुखेश अंबानी तक को की है लेकिन वहां से भी कोई राहत नही मिली लिहाजा अब वे इस लड़ायी को अकेले लड़ रहे हैं । अगर इस तरह की घटनाओं पर जल्द ही काबू नही किया गया तो गुजरात मे चल रही ये घटना इस बात की गवाह होगी कि देश मे हिन्दी पर करोड़ों रूपये किये जा रहे खर्च महज दिखावा बन कर रह जायेंगे

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