राकेश उपाध्‍याय की चार कविताएं

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DSC00064 (Small)छंटे तिमिर, खिले तो उपवन

उठे जलजला जले जरा फूटे यौवन

छंटे तिमिर तरे जन खिले तो उपवन।

मन कानन में बाजे बंशी़, भोरे रे

गाय रंभाती,हमें बुलाती, दुह ले रे

यह सूर्य किरण, चमके घर~आंगन

भाग्य जगा है सुन~सुन तो ले रे।

उठे जलजला जले जरा फूटे यौवन

छंटे तिमिर तरे जन खिले तो उपवन।

 

इक आग जल रही है

इक आग जल रही है

ह्रदय में, ह्रदय मैं

निगलने को आतुर

मिलने को आतुर

उससे जो आग जल

रही है सबमें, रब में

इक आग जल रही है।

मुझको मालूम है

क्या तुमको मालूम है

कण कण में जो छिपी है

पैदायशी जो सबको मिली है

वो तुममे भी है

वो मुझमे भी है ,

वो आग तुममें भी

जल रही है ।

आओ जाने थोड़ा विचारें

अन्याय के सारे ठिकाने

इस आग में जला दें

मिला दें राख में

जो बन गए हैं शोषण के पुतले ॥

इक आग जल रही है।

 

दिए ज़िन्दगी के रोशन करेंगे….

अमराइयां अब नहीं हैं, कोयल की कूक भी नहीं है

तालों में देखो पानी नहीं है, पपीहे की पीकहां नहीं है

गीधों की टोली दिखती नहीं है, कउवा बैठा उदास है

मनों में हमारे जहर भर रहा, जहरीली होती सांस है

कैसी अजब छाई है जड़ता उठती नहीं अब आवाज है

हाले-चमन बुरा है बहुत, सोचो कैसे जीएंगे

कैसे तुम जीओगे सोचो तो कैसे हम जीएंगे…….

तपती धरती चढा बुखार

मानो न मानो मेरे यार

हमारे तुम्हारे दिन हैं चार

मगर पीढियाँ आगे भी हैं

बच्चों की खुशियाँ आगे ही हैं

सोचो उनको क्या दोगे

न बरसेगा पानी न होगी फुहार….

वक्त रहते अब जागना है

हक़ जिंदगी का अब माँगना है

हर सितम बाधा को तोड़ो

जुड़ती है दुनिया सबको जोडो

धरती हमारी ये घर है हमारा

चेहरा इसका किसने बिगाडा

जहाँ को बदलने हम चलेंगे

दिए ज़िन्दगी के रोशन करेंगे….

 

हाँ, यही ज़िन्दगी…

रात स्याह होती गई रास्ते हम भटकने लगे

उम्र ज्यों बढ़ती गई हम भी छोटे होने लगे

स्वप्न देखे-दिखाए, जाने क्यों बिखरने लगे

हंसते हंसते अरे क्या हुआ, फूट फूट हम रोने लगे १

हंसाती रुलाती यही जिंदगी

रूठती मनाती यही जिंदगी

जीतती हारती यही जिंदगी

मेरी ज़िन्दगी हाँ तेरी जिन्दगी २

मन में था एक सपना, बदलता गया….

चोट मिलती गयी, स्वप्न ढहता गया…

बदलने की सोची थी हमने फिजाएं

वक्त ऐसा चला सब बदलता गया

हमको लगा कि कुछ मैंने है किया

वक्त आया तो पाया मैं ही बदलता गया

बदलता है क्या सिर्फ आदमी

बदलती नहीं क्या तक़दीर है

झाडे पोंछे नहीं अगर रोज तो क्या

धुंधलाती नहीं तस्वीर है

जलती धधकती अगर आग है

उठाती धुआं भी वही आग है

यही है बदलना हम भी हैं बदले

मगर आग है ये छुपी आग है।

अँधेरा घना है कुहासा है छाया

पथ पर रुके क्यों, ये जवानी नही है

भटके हो थोडा पर चलो तो sahi

रुकना कहीं से बुद्धिमानी नहीं है।

पग है तुम्हारा तो राहें तुम्हारी

छोटी सी सबकी कहानी यही है

बड़प्पन ना खोना छोटे न होना

हराती जिताती यही जिन्दगी है यही जिंदगी है….

 

-राकेश उपाध्‍याय

5 COMMENTS

  1. the last one “haan,yahi zindagi”,is mind blowing and it shows the depth of your thinking,and the view that you have given through ur poem that artificial nature of a human being is really true and u have interpreted it really well and i am one of ur admirer.

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