टीम अन्ना का संगठन शास्त्र

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विजय कुमार

अन्ना इन दिनों बीमार हैं। यद्यपि उनका उत्साह कम नहीं हुआ; पर क्या करें, शरीर साथ नहीं दे रहा। उनके साथियों को भी समझ नहीं आ रहा कि इस सरदी के मौसम में अब आगे क्या रास्ता पकड़ें कि आंदोलन में फिर से गरमी आ सके।

अन्ना अपने गांव रालेगढ़ सिद्धि के शांत वातावरण में रहने के आदी हैं, तो उनके साथी दिल्ली की चकाचौंध में। अन्ना को मोबाइल, इंटरनेट, फेसबुक और ट्विटर की बात समझ नहीं आती, तो उनके साथी इसके बिना एक दिन भी नहीं रह सकते। फिर भी भ्रष्टाचार विरोध और जन लोकपाल की गोंद ने उन्हें जोड़ रखा था। यह देखकर कांग्रेस ने सरकारी लोकपाल को बाजार में उतार दिया। यह गोंद उतनी अच्छी तो नहीं थी; पर ग्राहक तो भ्रमित हो ही गये।

अन्ना की अनुपस्थिति में दिल्ली के एक वातानुकूलित भवन में उनके नये-पुराने सब साथी सिर जोड़कर बैठे। समस्या गहरी थी और ठंड भयंकर; इसलिए चाय-कॉफी और स्नैक्स के कई दौर चले। शर्मा जी की अध्यक्षता में कई घंटे के विचार-विमर्श के बाद निष्कर्ष यह निकला कि अन्ना और मौसम, दोनों के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाए। उसके बाद ही आंदोलन के नये दौर के बारे में सोचेंगे।

– पर तब तक लोग क्या करेंगे ?

– लोगों को अपने घर के काम नहीं हैं क्या ? पांच राज्यों में चुनाव हैं। छात्रों को परीक्षाएं देनी हैं। फिर कुछ दिन बाद शादी-ब्याह का सीजन आ जाएगा। सब उसमें व्यस्त हो जाएंगे।

– पर तब तक लोगों को कुछ संदेश तो देना ही होगा। वरना लोग कहेंगे कि अन्ना के बिना टीम ठंडी पड़ गयी।

– सच तो यही है। उनके बिना तो हम बिन दूल्हे की बारात की तरह हैं; पर फिर भी कुछ तो करना ही होगा। करें भले ही नहीं; पर कुछ कहना तो होगा ही। ये तो अच्छा है कि मीडिया वाले इस समय चुनाव में व्यस्त हैं, वरना वे हमारी बखिया उधेड़ देते।

– तो मीडिया को क्या कहें, वे बाहर हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ?

– उन्हें कहो कि अब हम देश के हर गांव और शहर के हर वार्ड में संगठन खड़ा करेंगे। अगला आंदोलन संगठन के बल पर होगा, मीडिया, मोबाइल या इंटरनेट के बल पर नहीं।

– पर संगठन तो हमने आज तक किया नहीं। इसके विशेषज्ञ तो संघ वाले हैं।

– तो हम संघ की तरह का ही संगठन बनायेंगे।

– इसके लिए हमें संघ का कोई आदमी अपने साथ जोड़ना होेगा। इससे तो दिग्विजय सिंह का आरोप सिद्ध हो जाएगा।

– फिर.. ?

– यदि हम सब कुछ दिन संघ की शाखा में जाएं, तो हो सकता है हमें उनके काम की विधि समझ में आ जाए।

– पर उनकी शाखा तो सुबह खुले मैदानों में लगती हैं। क्या हम इतनी जल्दी उठ सकेंगे ?

– मेरे बस की बात तो नहीं है। मैं तो सुबह सात बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ता। उठते ही मुझे दो कप चाय और तीन अखबार चाहिए। इसके बिना मेरा पेट जाम हो जाता है।

– वहां लोग खाकी निकर पहन कर आते हैं और व्यायाम के बाद जमीन पर ही बैठकर कुछ बातचीत करते हैं।

– अच्छा ..? हमें तो कुर्सी पर बैठने की आदत है। नीचे बैठे तो कई साल हो गये।

– तो क्या करें…?

– क्यों न वर्मा जी को यह काम दे दें। वे नौकरी से अवकाश प्राप्त हैं और उन्हें सुबह टहलने की आदत भी है।

इस बात पर सब सहमत हो गये। वर्मा जी को भी कोई आपत्ति नहीं थी। बैठक के एजेंडे में कई विषय और भी थे; पर सबकी अपनी व्यस्तताएं थीं। एक को कवि सम्मेलन में जाना था, तो दूसरे को एक सम्मान कार्यक्रम में। तीसरे ने बच्चों के साथ फिल्म का कार्यक्रम बना रखा था, तो चौथे को एक दुकान का उद्घाटन करना था। अतः अगली तारीख तय कर सभा विसर्जित कर दी गयी।

अगली बार वे मिले, तो ध्यान में आया कि वर्मा जी नहीं आये हैं। उन्हें ही तो संघ वालों से संगठन की तकनीक सीखनी थी। सब सोच रहे थे कि वे कुछ नयी बात बताएंगे; पर वे तो…।

फोन मिलाया, तो पता लगा कि वे संघ की साप्ताहिक बैठक में गये हैं। दूसरी मीटिंग में भी वे नहीं आये। उन दिनों वे शीत-शिविर में व्यस्त थे। तीसरी बार सहभोज, चौथी बार वन-विहार, पांचवी बैठक के समय सेवा बस्ती में कंबल वितरण, तो छठी बार वे पड़ोस के गांव में शाखा विस्तार के लिए गये हुए थे।

अन्ना के साथी परेशान हो गये। वर्मा जी सेवाभावी व्यक्ति थे। श्रद्धा से वे अन्ना हजारे और इस आंदोलन के साथ जुड़े थे। उन्हें जो काम दिया जाता, उसे वे पूरी निष्ठा और समर्पण भाव से करते थे; पर अब तो वे संघ वाले ही होकर रह गये।

कई दिन बाद शर्मा जी को रेलवे स्टेशन पर वर्मा जी मिल गये। हाथ में लाठी, सिर पर काली टोपी। चेहरे पर खिली चमक से वे अपनी उम्र से दस साल कम के लग रहे थे। साथ में उनका बिस्तर और एक बक्से में कुछ सामान भी था।

– वर्मा जी, आप बहुत दिन से बैठक में नहीं आये।

– जी, मैं आजकल संघ की बैठकों में व्यस्त रहता हूं।

– पर आपको तो संघ वालों से संगठन की तकनीक सीखने के लिए भेजा था।

– वही सीखने के लिए बीस दिन के संघ शिक्षा वर्ग में जा रहा हूं।

– तो आपने आज तक क्या सीखा ?

– सीखा तो कुछ अधिक नहीं; पर इतना जरूर समझ गया हूं कि संगठन का कोई शॉर्टकट नहीं होता। मोबाइल, इंटरनेट या मीडिया के बल पर चलने वाले आंदोलन से कुछ दिन शोर भले ही हो जाए; पर देश की व्यवस्था नहीं बदल सकती। इसके लिए तो युवा पीढ़ी में देशभक्ति, अनुशासन, चरित्र और टीम भावना चाहिए। वह संघ की शाखा से ही मिलती है। यहां जाति, प्रांत, भाषा और काम के आधार पर ऊंच-नीच नहीं मानी जाती। मेरी मानो, तो आप भी अपने साथियों के साथ संघ की शाखा में आयें। यहां आपको अच्छे लोग मिलेंगे, जिनके बल पर फिर आंदोलन भी ठीक से चल सकेगा।

शर्मा जी ने अपना माथा पकड़ लिया।

8 COMMENTS

  1. जाकी रही भावना जैसी तीन देखी मूरत तीन तैसी
    अन्ना को छोड़ कर उनके सारे साथी चोर है

  2. कांग्रेस के भी अधिकांश नेता संघ के मुरीद हैं । इतना बड़ा गैर सरकारी, गैर राजनीतिक संगठन विश्व में और कोई है भी तो नहीं ! यदि किसी व्यक्ति के विचारों की सफलता का पैमाना यह हो सकता है कि उसके देहावसान के पश्चात्‌ कितने लोग उनकी विचारधारा को निरन्तर आगे बढ़ा रहे हैं तो हम निर्विवाद रूप से डा. हेडगेवार को विश्व के गिने चुने विचारकों – चिंतकों में शामिल हुआ पायेंगे । वर्ष १९२५ में केवल पांच छात्रों को एक मैदान में लाकर, कबड्डी खिलाते हुए जिस संघ की स्थापना डा. हेडगेवार ने की थी, आज उसके द्वारा शुरु किये गये संगठनों की गिनती करना भी कठिन हो रहा है – राष्ट्रीय सेवा भारती, संस्कृत भारती, क्रीड़ा भारती, आरोग्य भारती, नेशनल मैडिकोज़ आर्गेनाइज़ेशन, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, राष्ट्रीय सिक्ख संगत, संस्कार भारती, सहकार भारती, स्वदेशी जागरण मंच, गंगा महासभा, भारत तिब्बत सहयोग मंच, विश्व संवाद केन्द्र, भारतीय किसान संघ, अखिल भारतीय पूर्व सैनिक सेवा परिषद, अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, प्रज्ञा भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय शिक्षण मंडल, भारतीय जनता पार्टी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान, भारत विकास परिषद, भारतीय मजदूर संघ, राष्ट्र सेविका समिति, उत्तरांचल उत्थान परिषद और भी न जाने कितनी संस्थाएं ऐसी हैं जिनकी सदस्य संख्या लाखों में है । ये सारी संस्थायें अपने आप में स्वतंत्र व्यक्तित्व और स्वतंत्र संविधान रखती हैं – संघ से सीधे – सीधे कोई संबंध नहीं है परन्तु हर कोई जानता है कि इन संस्थाओं को संघ के स्वयंसेवकों ने ही शुरु किया और वही इनको संघ के आदर्शों के अनुरूप चला रहे हैं । अकेले भारतीय मज़दूर संघ की सदस्य संख्या १ करोड़ से अधिक है।

    स्वाभाविक ही है कि ये सभी संस्थायें स्वयं में विशाल परिवार की भांति हैं पर इन सब में आपस में इतना साहचर्य, सहयोग और स्नेह है कि मीडिया को और बाकी देश के लोगों को ये सब एक विशाल संघ परिवार के रूप में दिखाई देती हैं । यदि संघ घृणा सिखाता होता तो वह इतने बड़े – बड़े संगठन कभी भी खड़े नहीं कर सकता था। घुणा के सहारे यदि कुछ लोग साथ-साथ आते हैं तो आपस में भी एक दूसरे पर भी अविश्वास करते हैं। पर इनको जोड़ने वाली शक्ति तो देशप्रेम है, समाज को एकसूत्र में बांधने की भावना है।

    सुशान्त सिंहल

  3. यह अनुभव संघ वालों को, बार बार बहुत बार आया है। एक उदाहरण:
    अमरिका में आपात-काल के समय न्यू योर्क नगर में भी बैठक बुलायी गयी थी। लगभग २००-२५० लोग एकत्रित हुए थे।
    परोपदेशे पांडित्य का भरपूर परिचय मिला।
    ये करो और वो करो। सेनेट को, यु एन ओ को जताओ, इत्यादि। (सही याद नहिं)
    जब उत्तरदायित्व लेने की बात आयी, तो जो हाथ उपर उठे थे, वे सारे संघवालों के ही थे।
    जो नए लोग सम्पर्क में आए, परिचय करने पर पता चला कि सारे के सारे (एक अपवाद भी नहीं था) संघवाले ही थे।
    संघवालो ने ही आपातकाल समाप्त करने में भगीरथ कार्य किया। पर जब श्रेय (क्रेडिट) लेने देने की बारी आयी, तो किसी एकका भी सत्कार जनता पार्टी ने भी नहीं किया। चार लोगों के पास पोर्ट भी छिन गए थे। जान बुझकर उन्हीं के नाम आगे करके अन्य लोगों को सुरक्षित रखा गया।

    हर्षित नहीं हूं। पीडा होती है, कि अन्य किसी संस्था में दम नहीं, है।
    क्या होगा, भारत का यदि संघ ना होता?
    यह चिन्ता का विषय है।
    सारे क्रेडिट लेने के लिए ? कोई भी नहीं, काम करने के लिए?
    सूचना: मुझे अन्ना की संस्था की सही जानकारी नहीं है। मैने अनुभव किया हुआ है, संघवालों को निचोडके युज़ किया जाएगा, क्रेडिट दूसरे ले जाएंगे।

  4. प्रवक्ता के माननीय सम्पादक ने इस लेख को विविधा की श्रेणी में रखा है,पर मेरे विचार से यह लेख व्यंग्य की श्रेणी में आयेगा.खैर! अब इस लेख के परे बात आती है अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन और उसकी वर्तमान स्थिति.हम अगर एकदम निराशात्मक दृष्टि कोण सामने रखें तो हम यह कह सकते हैं की यह आन्दोलन बुरी तरह असफल हो गया,अगर ऐसा हुआ तो हानि किसकी हुई?अन्ना का इसमे क्या बिगड़ा ? मैं नहीं समझता कि आज अन्ना की स्थिति उससे खराब है जो इस आन्दोलन के आरम्भ करने के पहले था. इस पर आपलोग विचार कीजिये. ऐसे इस आन्दोलन के दूसरे पहलुओं पर पहले भी बहुत विचार विमर्श हो चुका है,अतःमैं नहीं समझता कि उन पहलुओं के पुनरावृति की आवश्यकता है.

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