किसे कहते हैं वास्तविक ‘धर्म’

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-तनवीर जाफरी

चाहे वह सऊदी अरब में पवित्र काबा हो या इराक में नजफ़ और करबला जैसे पवित्र स्थलों में बनी हारत अली व हारत इमाम हुसैन की दरगाहें। चाहे भारत में अमृतसर का स्वर्ण मंदिर हो या दक्षिण भारत में तिरुपति का प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर। इसी प्रकार के विभिन्न धर्मों व संप्रदायों के और भी कई तीर्थ स्थल ऐसे हैं जहां उन स्थानों के प्रति अपनी आस्था रखने वाले लोग अपनी श्रद्धा से अब तक न जाने कितना सोना व चांदी अर्पित कर चुके हैं। नि:संदेह अब तक हजारों टन सोना ऐसे धर्मस्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाया जा चुका है और यह सिलसिला अभी भी जारी है। पिछले दिनों शिरडी में सांईं बाबा के मंदिर में किसी भक्त द्वारा कई क्विंटल चांदी का रथ भेंट किया गया। बेशक यह एक श्रद्धालु की अपनी श्रद्धा जरूर हो सकती है। परंतु जो लोग भगवान राम और कृष्ण के त्याग और तपस्या से भरे जीवन चरित्र के विषय में जानते हैं अथवा जिन लोगों ने शिरडी, नानक, हुसैन, अली या हजरत मोहम्मद का इतिहास पढ़ा है, वे यह बात भी भली-भांति समझ सकते होंगे कि यदि यह देवतागण, अवतारगण तथा महापुरुष यदि आज हमारे बीच होते तो क्या वे ऐसी भेटें अपने श्रद्धालुओं से स्वीकार करते? सत्य, अहिंसा, त्याग, बलिदान के मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाने वाले उपरोक्त तथा इन जैसे कई महापुरुष क्या कभी अपने भक्तों से इस बात की अभिलाषा रख सकते थे कि वह उन्हें सोना चांदी लाकर भेंट करे अथवा उन्हें धन-दौलत से नवाजें ? शायद कतई नहीं।

फिर आखिर धर्म के नाम पर चली आ रही इस परंपरा का रहस्य क्या है। क्या हमारा समाज ऐसी स्वर्ण दान करने वाली अथवा चांदी या ढेर सारे रुपये दान करने जैसी परंपराओं से लाभान्वित होता है? और यदि इन सबसे किसी को लाभ पहुंचता है तो वह समाज का आख़िर कौन सा वर्ग है? इन सबके लिए दानी सानों को प्रोत्साहन आंखिर कहां से मिलता है? क्या धर्म पर चलने का सबसे बेहतर उपाय यही है कि अपने किसी श्रद्धा के केंद्र बने मंदिर, दरगाह अथवा मजार पर अपनी हैसियत के अनुसार सोना, चांदी या ढेर सारा धन-दौलत या संपत्ति चढ़ा दी जाए। अपने इस लेख में मैं दो महापुरुषों से जुड़ी घटनाओं का उल्लेख विशेष रूप से इसलिए करना चाहूंगा ताकि समाज के आज के जिम्मेदार लोग यह समझ सकें कि धर्म तथा धार्मिक सोच दरअसल क्या होती है तथा वास्तव में धर्म कहते किसे हैं।

वैश्य समाज के प्रणेता महाराजा अग्रसेन जी से जुड़े वैसे तो अनेक किस्से ऐसे हैं जो हमें यह बताते हैं कि धर्म की राह पर कैसे चला जाता है। परंतु यहां मात्र एक ही घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। महाराजा अग्रसेन जी ने अपनी रियासत अग्रोहा में आकर बसने वाले अपने समाज के लोगों के कल्याण हेतु एक ऐसी योजना कार्यान्वित की थी जिससे उस का कल्याण हो सके तथा आत्मनिर्भर होकर वह अपना जीविकोपार्जन विशेषकर जरूरत की तीन प्रमुख चीजों रोटी,कपड़ा और मकान का तत्काल प्रबंध कर सके। महाराजा ने अपनी प्रजा को यह निर्देश दिया था कि यहां आकर बसने वाले किसी नवागंतुक को प्रत्येक अग्रोहा वासी एक-एक ईंट तथा एक रुपया दान में देगा। इस योजना के अनुसार ईंटों के द्वारा वह व्यक्ति अपने घर का निर्माण करता था तथा प्राप्त हुए पैसे से वह अपना रोजगार शुरु करता था। महाराजा अग्रसेन जी का यह भी निर्देश था कि ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा शुरु किए गए नए व्यापार में समस्त समाज उसका सहयोगी बनें तथा उससे ख़रीदो फरोख्त करे। इस प्रकार वह व्यक्ति जल्दी ही आत्म निर्भर हो जाता था और अपना व अपने परिवार का जीविकोपार्जन करने लगता था।

अब एक घटना इस्लाम धर्म के महापुरुष हजरत अली से जुड़ी हुई गौर फरमाईए। एक बार हारत अली अपने भक्तों के साथ बैठकर एक दूसरे से धार्मिक व सामाजिक चर्चा करने में में मशगूल थे। इसी बीच एक व्यक्ति ने उनसे छठी शताब्दी के सबसे बड़े दानी समझे जाने वाले हातिम का जिक्र किया और कहा कि- मौला अली आजकल दुनिया में हातिम की सख़ावत (दरियादिली)के किस्से बहुत मशहूर हो रहे हैं। हारत अली ने पूछा कि इस प्रकार का कोई किस्सा मुझे भी सुनाओ। इसपर उस व्यक्ति ने खड़े होकर बताया कि हातिम ने केवल दान करने के उद्देश्य से अपना एक ऐसा नया महल बनवाया था जिसमें नौ दरवाजे हैं। हातिम ने अपने ख़िदमतगारों को हुक्म दिया था कि प्रत्येक जरूरतमंद तथा मांगने वाले को महल के सभी अलग-अलग नौ दरवाजों से दान दिया जाना चाहिए। हातिम की सख़ावत की इससे बढ़कर दूसरी मिसाल और क्या हो सकती है। यह किस्सा सुनाकर वह व्यक्ति बैठ गया। हातिम की कथित दरियादिली की यह दास्तान सुनकर हारत अली ने उत्तर दिया कि सख़ावत इसे हरगिज नहीं कहते। बल्कि हातिम तो महादानी तब कहलाता जब वह किसी जरूरतमंद को एक ही दरवाजे पर इतना कुछ दे देता कि उसे दूसरे दरवाो पर जाने की जरूरत ही न पड़ती। बजाए इसके उसने अपनी सख़ावत का प्रदर्शन करने मात्र के लिए 9 दरवाजे अपने महल में बनवाए तथा एक जरूरतमंद को उन सभी 9 दरवाजों पर जाने के लिए मजबूर किया। इसे सख़ावत नहीं कहते, हारत अली ने फरमाया।

उपरोक्त दोनों ही महापुरुषों से जुड़ी धटनाएं हमें धर्म के विषय में लगभग एक जैसे ही संदेश देती हैं। और वह यह कि सबसे बड़ा दान अथवा महादान है किसी व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना। उसे इस योग्य बनाना कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके तथा अपने परिवार का पालन-पोषण कर सके। परंतु ऐसे ही महापुरुषों की दिन-रात आराधना करने वाले आज के दानी व महादानी कहे जाने वाले लोग नि:संदेह जो कुछ भी करते हैं वह अपनी गहन श्रद्धा तथा अपने आराध्य के प्रति अटूट विश्वास के तहत ही करते हैं। चाहे वे कहीं सोना दान कर रहे हों, चाहे मंदिर या दरगाहों के निर्माण हेतु अपनी धन दौलत कुर्बान कर रहे हों। चाहे चांदी का सिंहासन शिरडी के साईं जैसे अति साधारण महापुरुषों के चरणों में समर्पित कर रहे हों या किसी तीर्थ स्थल पर चलने वाले भंडारे में अर्थदान या अन्नदान कर पुण्य अर्जित करने का प्रयास कर रहे हों। परंतु ऐसे सभी दानों के बाद समाज का जरूरतमंद वर्ग जोकि इन्हीं दानी सानों के ही समुदाय अथवा समाज से संबंधित है, वह वहीं पर खड़ा रह जाता है जहां वह कल खड़ा था। कहने का तात्पर्य यह है कि धार्मिक आस्था के अंतर्गत दान किया जाने वाला सोना-चांदी भगवान, अवतार या देवता तक तो पहुंचता ही नहीं बल्कि किसी व्यक्ति को आत्म निर्भर भी नहीं बना पाता। यहां तक कि लंगर और भंडारे भी किसी भूखे व्यक्ति की एक समय की भूख तो शायद मिटा देते हैं जबकि दूसरे समय वही व्यक्ति फिर भूखे का भूखा खड़ा रह जाता है।

पिछले दिनों मेरी मुलाकात कट्टर धार्मिक विचार रखने वाले एक मौलवी साहब से हुई। वे इस्लाम धर्म के विषय में तो कुछ न कुछ जरूर जानते थे। परंतु वे अपनी प्रत्येक जानकारी को इस प्रकार प्रस्तुत कर रहे थे गोया कि वे बातें अल्लाह की बताई हुई बातें हैं तथा प्रत्येक बात आख़िरी बात ही है। टोपी, दाड़ी, नमाज, रोजा आदि के बिना वह किसी को मुसलमान तो क्या इंसान भी मानना नहीं चाहते थे। मैंने उनसे बंगलादेश के नोबल पुरस्कार विजेता विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री मोहम्मद युनुस के विषय में पूछा तो वे उनके नाम से वाक़िफ नहीं थे। जाहिर है जब नाम से वाकिफ नहीं तो वे उनके काम से क्या वाकिफ होते। मैंने उन्हें मोहम्मद युनूस के कार्यकलापों के विषय में उनकी सोच तथा विशेषकर उनके द्वारा चलाई जा रही विश्वव्यापी माईक्रो फाइनेंस योजना के बारे में बताया तथा यह बताया कि युनुस साहब बिना किसी जाति व धर्म को ध्यान में रखे हुए पूरी दुनिया से गरीबी का समूल नाश किए जाने की योजना पर काम कर रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि युनुस साहब न तो दाढ़ी रखते हैं, न गोल जालीदार टोपी लगाते हैं। परंतु मेरी नजर में आज के अवतार पुरुष युनुस साहब जैसे लोग ही हैं जो वास्तविक धर्म को धरातल पर लाकर कुछ रचनात्मक व प्रयोगात्मक रूप से कर दिखाना चाहते हैं। केवल दान दक्षिणा, दिखावा, आशीर्वाद और भंडारे आदि पर वह विश्वास नहीं करते। परंतु मेरे भाषण दिए जाने के बावजूद मौलवी साहब अपनी इस बात पर अड़े ही रहे कि वह जो चाहे करें परंतु यदि वह इस्लामी मूल सिद्धांतों पर अमल नहीं करते तो वह सच्चे मुसलमान नहीं कहे जा सकते। आख़िरकार मैंने यह कह कर मौलवी साहब से अपना पीछा छुड़ाया कि आप जैसे लोगों द्वारा युनुस साहब सच्चे मुसलमान कहे जाएं या न कहे जाएं परंतु दुनिया आज उनको सच्चा इंसान ज़रूर स्वीकार करती है और यही उनके जीवन की सबसे बड़ी सफलता हँ। गरीब लोगोंको आत्मनिर्भर बनाने के अंतर्गत चलाए जा रहे उनके प्रयासों से कई देशों के करोड़ों लोग अब तक आत्म निर्भर हो चुके हैं तथा आत्मसम्मान के साथ अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं। युनुस साहब अपनी इसी कारगुजारी को सच्चा धर्म मानते हैं।

पिछले दिनों माईक्रोसाँफ्ट कंपनी के मालिक तथा विश्व के सबसे धनी व्यक्ति बिल गेटस ने भारत की यात्रा की तथा उत्तर प्रदेश के अमेठी व बिहार के खगड़िया जैसे पिछड़े इलाक़ों में गए। उन्होंने यहां पर जनहित से जुड़ी कई योजनाओं को शुरु किए जाने में अपनी दिलचस्पी दिखाई। ख़बर है कि विश्व के इस सबसे धनी व्यक्ति ने अब तक की अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा समाज कल्याण से जुड़ी ऐसी ही अनेकों योजनाओं हेतु ख़र्च कर दिया है। संभव है हमारी जानकारी अधूरी हो परंतु हमने अब तक नहीं सुना कि किसी अंग्रो महादानी ने किसी चर्च की मीनार या बुर्ज पर सोना मढ़वाया हो या कोई अखंड लंगर चला रहा हो। हां एड्स की रोकथाम, कैंसर के इलाज, कंप्यूटर शिक्षा, गरीबी उन्मूलन तथा इन जैसे कई जनहित संबंधी कार्यों में अंग्रेजों द्वारा सबसे अधिक दान अवश्य दिया जाता है। विश्वव्यापी रेडक्रास सोसाईटी भी अंग्रेजों की ही सोच का एक ऐसा परिणाम है जिससे हमारे देश सहित पूरी दूनिया में लाखों लोग प्रतिदिन लाभ उठाते हैं।

अत: जरूरत इस बात की है कि हम दान-पुण्य अवश्य करें क्योंकि यह हमारी श्रद्धा और विश्वास से जुड़ा मामला है। परंतु उस दान से समाज को होने वाले लाभ-हानि को भी नजरअंदाज हरगिज न करें।

5 COMMENTS

  1. क्या ऐसा नहीं हो सकता की धर्मस्थलों पे श्रद्धालु दान दें और इन्ही धर्मस्थलों से ग़रीब की मदद की जाए. अगर ऐसा नहीं हो रह तो, उस धर्मस्थलों पे दान का कोई कारन मुझे नज़र नहीं आता..

  2. आदरणीय श्री जाफरी साहब एक शानदार आलेख के लिये शाधुवाद और आपके स्वस्थ एवं दीर्घजीवन के लिये भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के 4280 आजीवन सदस्यों तथा प्रेसपालिका परिवार की ओर से ढेर सारी शुभकामनाएँ। आज आप जैसे इस्लाम धर्म के अनुयाईयों की भारत के लिये अत्यन्त जरूरत है। एक नागरिक के रूप में आपके विचारों में जो स्पष्टता तथा एक इस्लाम के अनुयाई के रूप में आप में अपने ईमान के प्रति जो श्रृद्धा प्रतिबिम्बित हो रही है। उससे नयी पढियों को प्रेरणा लेने का मार्ग प्रशस्त होगा। आप जैसी प्रतिभाओं की इस समाज को बहुत जरूरत है। ऊपर वाला आपको खुशी और स्वास्थ्य बख्शेगा ऐसी मेरी कामना है। जब हम कहीं पर इस्लाम की वास्तविकताओं के बारे में बात करते हैं तो हमारे सामने ऐसे मौलवियों के कथन परेशानी खडे करते हैं, जिनका आपने उल्लेख किया है। इसलिये इस्लाम में इन मौलवियों को भी शिक्षित करने की आवश्यकता है और आप जैसे लोगों पर इसकी जिम्मेदारी है। आपके इस लेख को आपके नाम से मैं प्रेसपालिका में प्रकाशित करना चाहता हँू,यदि आपको कोई आपत्ति हो तो कृपया मुझे मेरे मेल पर अवगत करवाने का कष्ट करें। श्रेृष्ठ लेखन के लिये एक बार पुनः साधुवाद और धन्यवाद।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इसमें वर्तमान में 4280 आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8)

  3. ” वह यह कि सबसे बड़ा दान अथवा महादान है किसी व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना। उसे इस योग्य बनाना कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके तथा अपने परिवार का पालन-पोषण कर सके।” यह निश्चित रूपसे पूजास्थल पर सोना/चांदी इत्यादि चढानेसे अच्छा है।(१) लेकिन सच्चा धर्म उसके अनुयायियोंका, साथ साथ, आध्यात्मिक उत्थान करनेके लिए उचित मार्ग, विचारधारा भी उपलब्ध करता है।(२) और अन्य धर्मी, या पंथीयोंके साथ मेलजोलसे कैसे रहा जाए, यह भी विचार प्रणाली द्वारा सिखाता है।

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