नई दिल्लीः भले ही अधिकतर मां-बाप बच्चों को अंग्रेजी बोलते देखना चाहते हैं, लेकिन विज्ञान यह बात साबित कर चुका है हिंदी ज्यादा बेहतर ढंग से दिमाग में घुसती है। यहां तक कि ‘डिस्लेक्सिया’ (पढ़ने की समस्या) से पीड़ित बच्चों के लिए भी हिंदी दवा का काम कर रही है। इसका कारण है कि ऐसे बच्चे भारतीय भाषाएं बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
भाषा और दिमाग के संबंधों पर लंबे समय से शोध कर रहीं डॉक्टर नंदिनी चटर्जी ने इस समस्या के निदान के लिए हिंदी का ही सहारा लिया। उन्होंने ‘डिस्लेक्सिया एसेसमेंट फॉर लैंग्वेज ऑफ इंडिया’ (डॉली) नाम का कार्यक्रम तैयार किया। इसके माध्यम से शिक्षक एवं मनोवैज्ञानिक डिस्लेक्सिया पीड़ित बच्चों को बेहतर ढंग से समझ पा रहे हैं। इस कार्यक्रम से भारत दुनिया का इकलौता देश बन गया, जहां डिस्लेक्सिया की समीक्षा के लिए मातृभाषा का प्रयोग किया जा रहा है। डॉक्टर नंदिनी के मुताबिक बोली और भाषा से यह पता लगाया जा सकता है कि दिमाग कैसा काम कर रहा है। यह हमें बताता है कि दिमाग ध्वनि को सही ढंग से प्रोसेस कर रहा है या नहीं। ध्वनि के माध्यम से ही संचार और सामाजिक विकास का अंदाजा लगता है।
इस क्षेत्र में हिंदी का जवाब नहीं –
डॉक्टर नंदिनी का कहना है, ‘पढ़ना सीखने के लिए हमें संकेतों को समझना होता है और इस मायने में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं का कोई जवाब नहीं है। हम पहले बोलना सीखते हैं, बाद में पढ़ना। इसलिए हम ध्वनि के आधार पर शब्दों को पढ़ना सीखते हैं। उच्चारण से शब्दों को लिखने की प्रक्रिया में भारतीय भाषाएं शानदार हैं।.
पांच कदम-
यूनेस्को के दिल्ली स्थित ‘महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट फॉर पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ में प्रोजेक्ट निदेशक डॉक्टर नंदिनी कहती हैं कि हिंदी में दो अक्षरों से शब्द बनाना संभव है। स्वर अंग्रेजी की तरह बदलते नहीं हैं। बस सिखाने के तरीके में बदलाव हो।
राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान संस्थान में शोधकर्ता रहीं डॉक्टर नंदिनी कहती हैं, ‘ध्वनि से शब्द लिखने की प्रक्रिया में अंग्रेजी बहुत ही खराब है। एक ही जैसे लिखे गए शब्दों का उच्चारण बिल्कुल अलग-अलग है। इससे किसी भी बच्चे को इसे समझने में परेशानी होगी।’