डॉ. छन्दा बैनर्जी
प्रकृति ने हमें मौके दिए हैं हर बार लेकिन ,
हम बुद्धिजीवी कहलाने वालों ने
उसी प्रकृति पर प्रहार किये है बार-बार ,
चारों तरफ दो-दो गज ज़मीन पर
चढ़ा कर कई-कई मंज़िलें
सब कुछ सहने वाली धरती मां पर
हम जुल्म पर जुल्म क्यों कर चले ?
हम क्या सोच रहे है ?
कि …
आषाढ़ आया है तो बादल भी आएंगे?
सावन आया है तो संग घटाएं भी लाएंगे?
लेकिन …
बदल गया है आज
प्रकृति का समीकरण ,
क्योंकि …
हो रहा है चारों ओर
जंगलों का चीरहरण ,
पहले पथरीली धरती पर
बिखरे पड़े बीज
स्वतः फूट पड़ते थे ,
लेकिन आज
हाथों से लगाए गए बीज भी
प्रस्फुटित होने से डरने लगे हैं ,
इतना ही नहीं, बादल भी अब
समय पर बरसने से घबराने लगे हैं ,
कहीं अकाल
तो कहीं सुनामी जैसे लहरें उठने लगे हैं ,
आखिर क्यों ना हो ?
जब इंसान ही सृष्टि को
कृत्रिम समीकरणों में कसता जा रहा है
तब प्रकृति भी
कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ के रूप में
अपना विकराल रूप दिखा रहा है ,
ओ! बुद्धिजीवियों ,
अब भी वक्त है
ज़रा सोच लो
और
प्रकृति का समीकरण
बदलने से रोक लो |