भाजपा खुश हो गई, बागी विधायक गदगद हो गए लेकिन कांग्रेस दुखी हो गई। वैसे अगर 31 मार्च को शक्ति-परीक्षण हो जाता तो भी पता नहीं क्या होता? कांग्रेस बहुमत का जुगाड़ कैसे करती? इस तिकड़म से वह पता नहीं कितनी और बदनाम होती? राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए नया सिरदर्द खड़ा हो जाता। लेकिन यहां एकल फैसले ने काफी धूम पहले ही मचा दी थी। लोग पूछ रहे थे कि उत्तराखंड में जब कोई सरकार ही नहीं है तो विश्वास-मत कौन प्राप्त करेगा और कैसे करेगा?
सदन में शक्ति-परीक्षण के पहले निवर्तमान मुख्यमंत्री को शपथ दिलाकर मुख्यमंत्री बनाना होगा और फिर जिन नौ कांग्रेसी सदस्यों को मुअत्तिल किया गया है, वे वोट कैसे दे देते? उनकी मुअत्तिली को मुअत्तिल कौन करेगा? इस समय अध्यक्ष और विधानसभा दोनों ही विश्राम की मुद्रा में हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति-शासन के चलते जज का यह फैसला एकदम अटपटा और अव्यावहारिक था। हालांकि सदन में शक्ति-परीक्षण की बात सैद्धांतिक रुप से काफी अच्छी लग रही थी लेकिन वह तो 18 मार्च को ही हो गया था।
उत्तराखंड में अब जो हो रहा था, वह तो रिश्वतखोरी, धंधेबाजी, धांधली और अफरा-तफरी के अलावा कुछ नहीं था। अब जो खंडपीठ का फैसला आया है, वह बेहतर है। उसने दोनों पक्षों को हफ्ते भर का समय देकर अपने-अपने तर्क रखने के लिए कहा है। लेकिन फिर इस घटना का मजेदार पहलू यह भी है कि एकल अदालत और खंडपीठ अदालत, दोनों में यह मामला चलेगा। एक में नौ विधायकों की मुअत्तिली का और दूसरी में राष्ट्रपति-शासन के औचित्य का! क्या पता, दोनों अदालतों के फैसलों में कहीं फिर मुठभेड़ न हो जाए। जो भी हो, उत्तराखंड में अब जिसकी भी सरकार बनेगी, उसे चलाए रखना आसान नहीं होगा। बेहतर तो यही होगा कि राष्ट्रपति शासन खत्म होते ही चुनाव की घोषणा हो जाए।