1971 (फ़िल्म समीक्षा)

पहले ने पूछा –
“एक बात बताओ, ये पाकिस्तान में अपने पंजाबी भाई रहते हैं ।
“हां रहते हैं “ दूसरे ने कहा ।
“और सिंधी भी रहते हैं पाकिस्तान में “ पहले ने फिर पूछा ?
“हां सिंधी भी रहते हैं पाकिस्तान में “ दूसरे ने फिर उत्तर दिया।
“और अपने मुसलमान बिरादर तो पाकिस्तान में रहते ही हैं ना “
पहले ने फिर पूछा ।
“हां ,मुसलमान बिरादर भी पाकिस्तान में रहते हैं क्यों“
दूसरे ने झल्लाते हुए फिर जवाब दिया।
“अरे सब तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं ,फिर पाकिस्तान बनाने की जरूरत ही क्या थी”
पहले ने ठंडी सांस लेते हुए फिर सवाल किया।
“गलती हो गयी ,अब नहीं बनाएंगे दुबारा पाकिस्तान “
दूसरे ने फिर झल्लाते हुए उत्तर दिया।
लेकिन ये गलती भारत की बॉर्डर की पोस्ट पर तैनात सेना की एक यूनिट का अफसर भी करता है जो लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर पहुंचे मेजर सूरज सिंह के बारे में पाकिस्तान के फौजी अफसर की बात को मान लेता है ।

लेकिन बेहोश हिंदुस्तानी प्रिजनर ऑफ वार (मेजर सूरज सिंह ) के बदन पर पाकिस्तान की सेना की वर्दी और फौजी अफसर का परिचय पत्र भी होता है ,जिस पाकिस्तानी वर्दी और सेना के परिचय पत्र के बदौलत मेजर सूरज सिंह पाकिस्तानी फौज के कहर से पाकिस्तान में बचने में कामयाब हो जाते हैं लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर वही चीज उनके खिलाफ हो जाती है ।
किसी ने सत्य ही कहा कि आंखों देखा सच भी कभी -कभी सच नहीं होता है।
“अश्वत्थामा हतो ,नरो या कुंजरो “ वाली बात इस फ़िल्म में लाइन ऑफ कन्ट्रोल पर चरितार्थ होती है।
पिछले बहुत वर्षों से युद्दबन्दियों पर बनी फिल्मों में ये फ़िल्म अनूठी है । फ़िल्म का समय 1977 का दिखाया गया है यानी कि जब भारत का भी राजनैतिक परिवेश अस्थिर था। क्योंकि हाल के वर्षों में अभिनन्दन को पाकिस्तान में पकड़ा गया लेकिन राजनीति,कूटनीति की बदौलत उनको सकुशल छुड़वा लिया गया।
लेकिन 1977 का भारत न तो राजनैतिक रूप से इतना स्थिर था और ना ही इतना मजबूत । वरना 1977 के इन पांच पांडवों (5 प्रिजनर्स ऑफ वार “ को समूची कौरव सेना (पाकिस्तानी सेना) से कुरुक्षेत्र में महाभारत ना करनी पड़ती।
फ़िल्म मोतीलाल सागर की लिखी एक वास्तविक कहानी पर आधारित है जैसा कि बताया जा रहा है। फ़िल्म की कहानी शुरु होती है जिसमें आर्मी और एयरफोर्स के कुछ प्रिजनर्स ऑफ वार पाकिस्तान ने पकड़ रखे हैं जिनकी संख्या पचास से ज्यादा है जो पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद हैं। ये 1965 और 1971 की जंग के प्रिजनर्स आफ वार हैं।
बांग्लादेश की जंग एक सच्चाई है और उस हार से पाकिस्तान अभी तक उबर नहीं पाया है । और 1977 में तो पाकिस्तान के घाव और भी ताजा थे इसलिये हमने जंग के बाद उनके 93000 हजार सैनिक छोड़ दिये थे और वो पचास भी नहीं छोड़ सके।
“जंग रहमत है लानत
ये सवाल अब ना उठा
जंग सब सर पे आ ही गयी
तो रहमत होगी
दूर से देख ना भड़के हुए
शोलों का जलाल
इसी दोजख के किसी
कोने में जन्नत होगी”
दोजख जैसी ज़िंदगी जी रहे बैरक नम्बर छह के छह कैदी इसी जन्नत यानी हिंदुस्तान की तरफ जाने की कोशिश करते हैं जिसमें से एक फौजी बेस कैंप पर ही शहीद हो जाता है और बाकी पांच समर के लिये निकल पड़ते हैं।
उन सभी कैदियों को जिनेवा कन्वेंशन के तहत प्रिजनर्स ऑफ वार माना जाता है और प्रिजनर्स ऑफ वार को कुछ मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं जिनमें से एक है उनकी सकुशल घर वापसी। लेकिन पाकिस्तान उन कैदियों को छोड़ना नहीं चाहता और भविष्य में की जा सकने वाली अपनी किसी सम्भावित ब्लैकमेलिंग के लिये इनको बचाकर रखना चाहता है। इसलिये पाकिस्तान ऑफिशयली इस बात से इंकार करता है कि उसके पास कोई हिंदुस्तानी प्रिजनर्स ऑफ वार हैं। बकौल पाक उस समयकाल में पाकिस्तान के पास कोई प्रिजनर्स ऑफ वार नहीं थे जबकि ये थे और पचास से ज्यादा थे 1977 में।
भारत में किसी तरह वहां के युद्दबन्दी खत भेज देते हैं और उसी खत को आधार मानते हुए रेडक्रॉस की मदद से युद्दबन्दियों के परिवार उनकी तलाश में पाकिस्तान जाते हैं।
पाकिस्तान को दुनिया की नजर में गुड ब्याव भी बने रहना है ,जिनेवा कनवेंशन की इज्जत रखने का दिखावा भी करना है और भारतीय युद्दबन्दियों को लौटाना भी नहीं है।
इसलिये पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद भारतीय कैदी रेडक्रॉस और पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की नजरों से बचाने के लिये चकलाला नामक जगह पर एक इकट्ठे किये जाते हैं ताकि रेडक्रॉस और पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की जेलों में जांच पूरी होने के बाद उन्हें फिर से वापस पाकिस्तान की विभन्न जेलों में वापस भेजा जा सके भविष्य में हिंदुस्तान से होने वाली किसी ब्लैकमेलिंग में उनका इस्तेमाल किया जा सके।
लेकिन पहले ही भागने की नाकाम कोशिश कर चुके भारतीय सिपाही फिर भागने की फिराक में जुट जाते हैं। फ़िल्म का शुरुआती दृश्य ही मेजर सूरज सिंह राजपूताना रेजीमेंट के भागने के निष्फल प्रयास से टार्चर किये जाने की कहानी कहती है ।
14 अगस्त को पाकिस्तान की आजादी के दिन पांच युद्दबन्दी पाकिस्तान कश्मीर के मुजफ्फराबाद से सौ किलोमीटर की दूरी पर बनायी गए आर्मी के बेस कैम्प से पाकिस्तनी सिपाहियों की वर्दी पहनकर उन्हीं की गाड़ी लेकर भागते हैं हिंदुस्तान के लिये। और उसके बाद समूचे पाकिस्तान की सेना और उन पांच युद्दबन्दियों के पीछे पड़ जाती है ताकि ना तो वो पाकिस्तान ह्यूमन राइट कमीशन की नजरों में आ सकें और ना ही रेडक्रॉस के और हिंदुस्तान बॉर्डर तक तो हर्गिज ही ना पहुंच सकें।
पाकिस्तानियों के बेस कैंप पर बम विस्फोट करके भारत के बॉर्डर की तरफ भागे पांच युध्द बंदी ना सिर्फ उनका वाहन लेकर फरार होते हैं लेकिन हथियार भी साथ ले जाते हैं और यहीं से शुरू होता है सशस्त्र विद्रोह । पांच पांडव की तरह ये पांच युद्दबन्दी हिंदुस्तान के बॉर्डर की तरफ भागते हुए पाक सेना से तो लड़ते ही हैं बल्कि मौसम और दुरूह रास्तों से भी जूझते हैं। आम कैदी और फौज के युद्दबन्दियों के भागने के मकसद और तौर -तरीकों को भी फ़िल्म में दिखाया गया है।
फ़िल्म को दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं । अभिनय लगभगसभी का बढ़िया है । मनोज वाजपेयी का अभिनय बेहद उम्दा है , कुमुद मिश्रा, रवि किशन ने भी अच्छा अभिनय किया है , दीपक डोबरियाल अपनी पहली फ़िल्म में ही बेजोड़ रहे हैं और मानव कौल के साथ उनकी केमेस्ट्री अच्छी जमी है।पीयूष मिश्रा अपनी छोटी सी भूमिका में छाप छोड़ने में सफल रहे हैं।
फ़िल्म में गीत -संगीत ना के बराबर है और उसकी गुंजाइश भी कम ही थी ,सिनेमेटोग्राफी अच्छी है ,पहाड़ों और बर्फ के सीन अच्छे बन पड़े हैं। कहानी थोड़ा और बेहतर हो सकती थी क्योंकि उम्मीदों और संघर्षो से जूझती हुई कहानियों के अंत ऐसे प्रत्याशित नहीं होते जैसा इस फ़िल्म में है।
फ़िल्म में पाकिस्तान के लोगों का हिंदी बोलना काफी अखरता है और पंजाबी मिश्रित उर्दू की कमी भी खटकती है जो कि पाकिस्तान की प्रमुख भाषा है। युद्दबन्दियों के भयानक टॉर्चर का ज़िक्र पूरी फिल्म में है लेकिन उसको दिखाया कहीं नहीं गया है। पाकिस्तान में ह्यूमन राइट्स कमीशन के लोगों को बेहद पावरफुल दिखया गया है जो सेना के टॉप कमांडरों से उलझते दिखती हैं जबकि फ़िल्म में पाकिस्तान उस समय मिलट्री शासन था। मिलिट्री शासन में ह्यूमन राइट्स कमीशन वालों का पाक फौज के अफसरों को हड़काना काफी हास्यास्पद लगता है। लेखकद्वय अमृत सागर और पीयूष मिश्रा ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि दक्षिण एशिया में ह्यूमन राइट्स की संस्थाएं बिना नाखून की शेर हैं।
सागर पिक्चर्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म की कहानी मोतीलाल सागर ने लिखी थी जिस पर उनके सुपुत्र अमृत सागर ने फ़िल्म बनायी । इसके पहले भी इस विषय पर कई फिल्में बन चुकी हैं लेकिन ये शायद सबसे ज्यादा प्रेक्टिकल फ़िल्म है इंडो -पाक के प्रिजनर्स ऑफ वार पर।
फ़िल्म 2007 में रिलीज हुई थी लेकिन ढंग से रिलीज भी नहीं हो पायी थी ,फ़िल्म को पर्याप्त थियटर नहीं मिले थे और कुछ ही हफ्तों में ना सिर्फ सिनेमाघरों से उतर गई बल्कि भुला भी दी गयी। मनोज वाजपेई के इसरार पर अमृत सागर ने फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए भेज दिया। चमत्कार ये हुआ कि फ़िल्म को 2009 में दो नेशनल अवार्ड मिल गए। जिसमें से एक अवार्ड उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म का था और दूसरा सर्वश्रेष्ठ आडियोग्राफी का।
अवार्ड पाने के बाद भी फ़िल्म गुमनाम ही रही । लाकडाउन के दौरान किसी ने मनोज वाजपेयी से 1971 फ़िल्म को देखने की इच्छा जाहिर की ,उन्होंने अमृत सागर को टैग कर दिया और अमृत सागर ने इस फ़िल्म को यूट्यूब पर डाल दिया । पांच पांडवों के वनवास की तरह इस फ़िल्म ने अपना बारह वर्षों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास काटते हुए यूट्यूब पर आते ही इतिहास रच दिया और अब तक करीब पौने पांच करोड़ लोग इस फ़िल्म को देख चुके हैं।
इसे फ़िल्म को मनोज वाजपेयी के जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम माना जा रहा है । फ़िल्म आप भी देखें और इस बात पर अपना सिर धुनें कि सागर पिक्चर्स जैसे बड़े बैनर के तले बनी ऐसी बेहतरीन फिल्मों को अगर रिलीज होने के लिये पर्याप्त थियेटर नहीं मिलते तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री यानी बॉलीवुड कितने गहरे दलदल में है और समय आ गया कि हिंदी सिनेमा के कुत्सित चक्रव्यूह से ऐसी फिल्में निकलें और आम दर्शकों को तभी देखने को मिल सकें जब ये बनी हों।
लेकिन फिर भी आप ये फ़िल्म देखें क्योंकि अच्छा सिनेमा और साहित्य कभी बासी नहीं होता है।
दिलीप कुमार

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