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राजनीति विधि-कानून

वक्फ के सुप्रीम फैसले पर पक्ष-विपक्ष दोनों खुश

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राजेश कुमार पासी वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन करने वाले वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन कानून केन्द्र सरकार ने बनाया था । लोकसभा और राज्यसभा से पास होने के पश्चात 5 अप्रैल 2025 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षरों के बाद यह कानून देश में लागू हो गया था । 5 अप्रैल को ही आम आदमी पार्टी के नेता अमानतुल्लाह खान व अन्य ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी थी । असदुद्दीन ओवैसी,मोहम्मद जावेद, एआईएमपीएलबी और अन्य भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए । 17 अप्रैल को केन्द्र सरकार  ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया कि मामले की सुनवाई तक ‘वक्फ वाई यूजर’ या ‘वक्फ वाई डीड’ सम्पत्तियों को गैर-अधिसूचित नहीं किया जाएगा ।  22 मई को सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं की सुनवाई पूरी कर ली और फैसला सुरक्षित कर लिया था । 15 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपना अंतरिम फैसला दे दिया है । वक्फ कानून के खिलाफ अदालत गए याचिकाकर्ताओं की मुख्य मांग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है । याचिकाकर्ता  चाहते थे कि सुप्रीम कोर्ट पूरे कानून पर रोक लगा दे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी कानून पर अंतरिम रोक  लगाने को लेकर सावधानी बरतनी चाहिए और दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में ही पूरे कानून पर रोक लगानी चाहिए । इस फैसले से सरकार और कानून के पक्षधर बहुत खुश हैं लेकिन कानून के खिलाफ गए याचिकाकर्ता भी खुश हैं क्योंकि अदालत ने इस कानून के कुछ प्रावधानों पर रोक लगा दी है । देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से दोनों पक्षों को कुछ खुशी दी है और कुछ गम भी दिए हैं । याचिकार्ताओं का कहना था कि वक्फ संपत्ति देने के लिए 5 साल इस्लाम पालन की शर्त लगाई गई है जो कि भेदभावपूर्ण प्रावधान है । सरकार का कहना था कि जमीनों का अतिक्रमण किया जा रहा है, इसलिए यह प्रावधान किया गया है । अदालत ने फैसला सुनाया है कि जब तक राज्य सरकारें  यह तय करने के लिए नियम नहीं बनाती कि कोई व्यक्ति मुस्लिम है या नहीं, तब तक तत्काल प्रभाव से इस प्रावधान पर रोक रहेगी । इससे याचिकाकर्ता खुश हैं लेकिन सरकार को भी परेशानी नहीं है क्योंकि यह अस्थायी रोक है । राज्य सरकारें कानून बनाकर इसे लागू कर सकती हैं । कानून में प्रावधान था कि कलेक्टर वक्फ संपत्ति का फैसला कर सकता है लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इससे वक्फ संपत्ति की जमीन सरकारी दर्ज हो जाएगी । सरकार का कहना था कि कलेक्टर केवल प्रारंभिक जांच करता है, अंतिम फैसला ट्रिब्यूनल या कोर्ट का होगा । अदालत ने इस प्रावधान पर रोक लगा दी है और कहा है कि कलेक्टर को नागरिकों के संपत्ति अधिकारों पर फैसला लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती । जब तक ट्रिब्यूनल या अदालत फैसला नहीं दे देते, तब तक वक्फ की संपत्ति का स्वरूप नहीं बदलेगा ।                      याचिकाकर्ताओं की मुख्य मांग यह थी कि जिन वक्फ संपत्तियों का लंबे समय से धार्मिक कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उन्हें वक्फ संपत्ति घोषित करने का प्रावधान बना रहे बेशक उस संपत्ति के दस्तावेज न हों । इस कानून को ‘वक्फ वाई यूजर’ कहा जाता है । सरकार ने संशोधित कानून में यह प्रावधान खत्म कर दिया है । अदालत ने भी सरकार की बात मान ली है और ‘वक्फ वाई यूजर’ लागू करने से मना कर दिया है । इस मामले में अदालत ने याचिकाकर्ताओं को राहत देते हुए आदेश दिया है कि बिना दस्तावेज वाली ऐसी संपत्तियों  को, जहां लंबे समय से धार्मिक कार्य चल रहे हैं और उन्हें वक्फों द्वारा काबिज कर लिया गया है, उन संपत्तियों को ट्रिब्यूनल या अदालत द्वारा अंतिम फैसला आने तक न तो वक्फों को संपत्ति से बेदखल किया जाएगा और न ही राजस्व रिकॉर्ड में एंट्री प्रभावित होगी । सरकार के लिए परेशानी यह है कि बिना दस्तावेज वाली जिन संपत्तियों को पहले ही ‘वक्फ वाई यूजर’ घोषित करके वक्फों द्वारा कब्जा कर लिया गया है, उन्हें कैसे वापिस लिया जाएगा । सरकार को इस मामले में अदालत से दोबारा विचार करने के लिए कहना होगा । यह ठीक है कि ‘वक्फ वाई यूजर’ बोलकर अब किसी की संपत्ति पर वक्फ बोर्ड नाजायज कब्जा  नहीं कर सकता लेकिन जिन संपत्तियों पर कब्जा कर लिया गया है, उनके बारे में भी विचार करने की जरूरत है । हमें याद रखना होगा कि वक्फों द्वारा लाखों एकड़ सरकारी और गैर-सरकारी भूमि इस तरीके से कब्जा कर ली गई हैं ।  नए कानून में प्रावधान किया गया था कि केन्द्रीय वक्फ बोर्ड परिषद और राज्य वक्फ बोर्डो में गैर-मुस्लिम भी सदस्य बन सकते हैं । याचिकाकर्ताओं का कहना था कि गैर-मुस्लिम बहुमत बनाकर हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं । केन्द्र सरकार का कहना था कि ऐसा नहीं होगा क्योंकि गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या 2-4 तक ही होगी । अदालत  ने भी यह बात मान ली है और कहा है कि केन्द्रीय वक्फ परिषद में 22 में से अधिकतम 4 और राज्य वक्फ बोर्डो में 11 में से अधिकतम 3 सदस्य गैर-मुस्लिम हो सकते हैं । नए कानून में वक्फ बोर्ड के सीईओ का मुस्लिम होना अनिवार्य नहीं है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि सीईओ का मुस्लिम होना अनिवार्य होना चाहिए । अदालत ने याचिकाकर्ताओं की मांग को ठुकरा दिया है लेकिन कहा है कि जहां तक संभव हो सीईओ मुस्लिम ही होना चाहिए।                      नए कानून में प्रावधान किया गया है कि वक्फ संपत्ति की लिखित रजिस्ट्री व पंजीकरण होना चाहिए जबकि पहले मौखिक रूप से भी किसी संपत्ति को वक्फ घोषित किया जा सकता था । याचिकाकर्ता चाहते थे कि पुराना प्रावधान लागू होना चाहिए और मौखिक वक्फ भी मान्य होना चाहिए । केन्द्र सरकार का कहना था कि इस प्रावधान से वक्फ संपत्तियों में पारदर्शिता और जवाबदेही बनेगी और फर्जी वक्फ के मामले रुक जाएंगे । अदालत ने इस मामले में सरकार की बात मान ली है और इस प्रावधान पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है । अदालत का कहना है कि  यह प्रावधान 1995 और 2013 के कानून में था और सरकार  ने इसे दोबारा लागू किया है । विपक्षी दलों के कुछ नेता अदालत के फैसले से खुश हैं ।  कांग्रेस नेता पवन खेड़ा का कहना है कि सरकार ने यह कानून जल्दबाजी में बनाया था, इस पर बहस होती तो यह कानून नहीं बनता । अजीब बात यह है कि इस कानून को संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था, जिसके सामने सबको अपनी बात रखने का मौका दिया गया था। देखा जाए तो इस कानून पर लंबी बहस हुई थी। पवन खेड़ा और कितनी बहस चाहते हैं। वक्फ बोर्ड  बहुत से मुस्लिम देशों में हैं लेकिन ऐसा कानून किसी भी देश में नहीं है । वास्तव में वक्फ बोर्ड सिर्फ वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन का काम करता है, उसका यह काम नहीं है कि वो लोगों की जमीनों पर कब्जा करे । मुस्लिम देशों में वक्फ के पास जमीन दान देने से आती है जबकि भारत में वक्फ बोर्ड के पास जमीन कब्जे से आ रही है । 1995 में कांग्रेस सरकार ने वक्फ कानून में संशोधन करके वक्फ बोर्डों को लैंड माफिया में बदल दिया था । वक्फ बोर्ड सरकारी और गैर-सरकारी जमीनों पर कब्जा करने लगे थे क्योंकि उन्हें वक्फ वाई यूजर का हथियार मिल गया था । उन्हें किसी की जमीन पर कब्जा करने के लिए किसी कागज की जरूरत नहीं थी । उनका यह मानना ही काफी था कि वो जमीन वक्फ की है । अदालत में भी इस कब्जे को चुनौती नहीं दी जा सकती थी । बेशक नए कानून से ये नाजायज कब्जे बंद हो जाएंगे लेकिन सवाल यह है कि लाखों एकड़ जमीनों पर किए गए कब्जों का क्या होगा ।                   ऐसा लग रहा है कि यह कानून अभी भी अधूरा है क्योंकि वक्फ बोर्ड का काम केवल प्रबंधन का है, जो कि मुस्लिम देशों में भी होता है लेकिन हमारे देश के वक्फ बोर्डों के पास कब्जा की गई जमीनें हैं । यह कानून तभी पूरा माना जाएगा, जब कब्जा की गई जमीनें वापिस मिल जाएँगी । कितनी अजीब बात है कि एक आदमी पूरे जीवन मेहनत करके कमाई गई पूंजी से जमीन खरीदे और अचानक वक्फ बोर्ड आए और उसकी जमीन वक्फ बताकर छीन ले । वो बेचारा रोता रहे और उसकी सुनवाई कहीं न हो । कमाल की बात है कि संविधान होते हुए भी ऐसे पीड़ितों के लिए अदालत का दरवाजा भी बंद कर दिया गया था ।  मोदी सरकार ने कानून बनाकर यह अन्याय बंद कर दिया है लेकिन जो अन्याय हो चुका है, उसका भी हिसाब होना चाहिए । दूसरी बात यह है कि वक्फ की जमीन का इस्तेमाल कब्रिस्तान, मस्जिद, शैक्षणिक संस्थान और गरीबों के फायदे के लिए किया जा सकता है लेकिन वक्फ बोर्ड के पास लाखों एकड़ भूमि होने के बावजूद गरीब मुस्लिम जमीन के लिए सरकार के सामने खड़े रहते हैं । इसका कारण यह है कि वक्फ की संपत्तियों का गलत इस्तेमाल हो रहा है । अदालत को इस कानून पर फिर विचार करने की जरूरत है । यह देखना जरूरी है कि भविष्य में इस कानून का गलत इस्तेमाल न हो लेकिन यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि जो गलत इस्तेमाल हो चुका है, उसे भी ठीक किया जाए ।  राजेश कुमार पासी

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लेख विधि-कानून

वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 में हुए सुप्रीम संशोधन के मायने

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कमलेश पांडेय सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 पर तो रोक नहीं लगाई लेकिन उसके कुछेक प्रावधानों में विधिसम्मत और तर्कसंगत संशोधन किया है या फिर पूरी तरह से उन पर रोक लगा दी है। इसलिए वक्फ संशोधन अधिनियम में हुए सुप्रीम संशोधन के मायने समझना बहुत जरूरी है। लोगों को उम्मीद है कि कोर्ट के इस ताजातरीन फैसले से वे आशंकाएं दूर हो जाएंगी जो इस नए कानून को लेकर इससे पहले  जताई जा रही थीं। चूंकि कोर्ट का यह निर्णय संविधान के अनुरूप है, इसलिए दोनों पक्षों ने इसे मान लिया है। यह एक शुभ लक्षण है। बताया जाता है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से किए गए संशोधन महत्वपूर्ण और जरूरी हैं, क्योंकि इनमें संविधान की भावनाओं का भी ख्याल रखा गया है। इसलिए इसके परिवर्तित मायने राष्ट्रीय एकता के लिहाज से अहम हैं। लिहाजा इस फैसले का मुख्य असर निम्नलिखित है:- पहला, कोर्ट ने उस प्रावधान पर रोक लगा दी है जिसमें वक्फ बनाने के लिए व्यक्ति का 5 वर्षों तक इस्लाम का अनुयायी होना जरूरी था, बताया गया है। हालांकि यह रोक तभी तक लागू रहेगा जब तक राज्य सरकारें इसके लिए अलग से नियम नहीं बना देतीं। चूंकि यह शर्त मनमानी हो सकती थी, इसलिए अदालत ने इसे स्थगित कर दिया है। समझा जाता है कि वक्फ करने के लिए न्यूनतम 5 बरसों तक इस्लाम का अनुयायी होने के प्रावधान पर तब तक रोक रहेगी, जब तक राज्य सरकारें इसके सत्यापन के लिए नियम नहीं बना लेती। चूंकि देश में धर्म व्यक्तिगत मामला है और यह जरूरी नहीं कि कोई नागरिक अपनी धार्मिक पहचान का सार्वजनिक प्रदर्शन करे। इसलिए यह तय करना कि कोई किसी धर्म को कब से मान रहा है, बेहद जटिल है। राज्य सरकारों से उम्मीद है कि इस बारे में नियम बनाते समय वे सभी पहलुओं का ध्यान रखेंगी और ज्यादा संवेदनशीलता बरतेंगी। दूसरा, कोर्ट ने यह भी निर्णय दिया है कि जिला कलेक्टर को यह फैसला देने का अधिकार नहीं है कि कोई संपत्ति वक्फ है या नहीं, जब तक वक्फ ट्रिब्यूनल या कोर्ट अंतिम निर्णय न कर ले। इससे कलेक्टर की शक्ति सीमित हुई है और मनमानी पर रोक लगी है। यह एक अहम संशोधन है क्योंकि शीर्ष अदालत ने वक्फ संपत्ति जांच के प्रावधानों पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि नामित अधिकारी की आंशिक रूप से रिपोर्ट के आधार पर ही किसी प्रॉपर्टी को गैर-वक्फ नहीं माना जा सकता। समझा जाता है कि अदालत ने  संपत्ति अधिकार तय करने की ताकत जिलाधिकारी को देने को संविधान में की गई व्यवस्था शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ माना है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि लोकतंत्र के तीनों अहम अंगों- विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति का संतुलन बना रहे। एक पक्ष की ओर पलड़े का थोड़ा भी झुकाव व्यवस्था के संतुलन को बिगाड़ देगा।  तीसरा, वक्फ बोर्ड में सदस्यों की संख्या और गैर-मुस्लिम सदस्यों की सीमा में संशोधन भी कुछ हद तक सुरक्षित की गई है लेकिन कोर्ट ने कुछ प्रावधानों पर स्थगन लगाया है। लिहाजा लोगों को उम्मीद है कि अब उनकी सरकार अन्य धर्मों के लिए भी इसी तरह के कानून लाएगी व उसका अनुपालन का निर्णय करेगी। चतुर्थ, कोर्ट ने कुछ प्रावधानों को शक्ति के ‘मनमाने’ प्रयोग को रोकने के लिए अस्थायी रूप से स्थगित किया है जिसमें वक्फ संपत्तियों का पंजीकरण और बुजुर्गों का धर्म पालन जैसे मुद्दे शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि वक्फ संशोधन अधिनियम के कई बिंदुओं पर विपक्ष को गहरी आपत्ति थी। इसे लेकर दोनों सदनों में और सड़क पर भी काफी हंगामा हुआ। इस मामले की गंभीरता और उसके असर को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिम्मेदारी भरा है।  यूँ तो इस बाबत दायर याचिका में पूरे कानून को रद्द करने की मांग की गई थी लेकिन शीर्ष अदालत ने इसे नहीं माना। इस तरह के कदम बेहद दुर्लभ मामलों में उठाए जाते है और इनका प्रभाव बहुत व्यापक होता है। देखा जाए तो इस मायने में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक विवेक का इस्तेमाल किया और यह भी ध्यान रखा कि विधायिका के साथ सीमाओं का अतिक्रमण न हो। इसलिए उसने समझदारी पूर्वक बीच का रास्ता निकाला है। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने इस संवेदनशील मामले में बेहद संतुलित नज़रिया अपनाया है।  सच कहा जाए तो कोर्ट का यह फैसला वक्फ कानून में संतुलित नज़रिया को अधिक न्यायसंगत और संवैधानिक बनाने की दिशा में संकेत देता है। साथ ही इसके मार्फ़त सरकारी शक्तियों और व्यक्तिगत अधिकारों का संतुलन बनाने का प्रयास भी किया गया है। कोर्ट के इस फैसले से संबंधित कुछ नियम और प्रावधान तभी तक लागू नहीं होंगे, जब तक इस बारे में अधिक स्पष्ट नियम और निर्देश नहीं बन जाते। इस तरह से स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ संशोधन अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर रोक लगा दी है जबकि पूरे कानून पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाई है। ऐसा करके उसने एक ओर जहां संतुलित नजरिया अपनाते हुए शक्ति का संतुलन बिठाने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर वक्फ कानून पर फैसला देते हुए उसने अतिरिक्त संवेदनशीलता की जरूरत भी समझी है। यही वजह है कि  अपेक्षाकृत विवादास्पद मामलों में उसका एक और जिम्मेदारी भरा निर्णय सामने आया है जिससे देश-प्रदेश ने राहत की सांस ली है।  कमलेश पांडेय

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