अस्त्र के रूप में लात का चिंतन !

आत्माराम यादव पीव

       आज लात मारना आम बात हो गई है ओर लात का प्रयोग एक अस्त्र की तरह हो रहा है ओर चारों युगों कि बात कि जाए तो सबसे पहले भृगु जी द्वारा विष्णु की छाती पर लात मारने का प्रसंग हो या लंकाधिपति रावण द्वारा अपने भाई विभीषण को लात मारने का, ये सभी युगांतकारी अस्त्र के रूप में लात का प्रयोग करने में अग्रणी रहे है। धर्म हमारे जीवन का अविच्छिन्न अंग है ओर हम सभी धर्म के साथ ही पैदा होते है, धर्म को जीते है ओर धर्म के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते है। धर्म के बिना सभी का जीवन अधूरा तथा संकटग्रस्त है अगर धर्म को हमारे जीवन से पृथक कर दिया जाय तो हम मनुष्य से ओर मनुष्यता से गिर जाएँगे फिर पशु आदि प्राणियों में ओर हममे कोई भेद नहीं रहेगा। मनुष्य जब पैदा होता है उस समय अन्य प्राणियों की तरह प्राकृत व असंस्कृत रूप  में ही पैदा होता है। फिर उस में संस्कार किये जाते हैं तब वह संस्कारवान बनता है। यह सरकार मनुष्य के दोषों को दूर कर उसे गुणवान बनाता है। परंतु आज का गुणवान आधुनिक समाज मानवीय संवेदनाओं को कुचलकर आधुनिक समय में  मानवीय भावनात्मक की सीमाओं का खुलेआम उल्लंघन कर रहा है वह शर्मनाक है।

 पूर्व युगों की कुछ घटनाओं ओर आज की घटनाओ में लात मारने के प्रसंग पर बात करना चाहूँगा जिसमें पाश्चात संस्कृति की होड ने भारत के प्रत्येक घर परिवार ओर खूनी रिश्ते के भाइयो, माता पिता ओर बहनो के बीच परिवार के ही सदस्य एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए संबंधो की कभी न खत्म होने वाली दीवार खड़ी कर गधे के स्वभाव की तरह लात मार खून के नाते तोड़ने पर आमादा दिखाई देंगे या यह सब कुछ कर चुके होंगे। घर में एक बेटा हो या पाँच या अधिक सभी नैतिक मूल्यों के ह्रास के कारण घर के बुजुर्गों का अपमान कर रहे है ओर समाज मुकदृष्टा बना है। होगा किन्तु जब आज प्रत्येक घर, परिवार काम, क्रोध ओर लोभ के वशीभूत अपनी अपनी मर्यादाए लांघ चुका हो ओर छोटे भाई ओर उसका परिवार बड़े भाई के चरणस्पर्श ओर आशीर्वाद प्राप्त करने को भूलकर लात मारने लग जाये तो हमारा यह धर्म मृत ही माना जाएगा भले दुनिया को ढिखावे के लिए लात मारने वाले भाई बगुला भगत बन सुबह शाम घंटो मंदिरो में आरती भजन करे, तीर्थों की यात्रा कर अपने सनातनी होने का प्रमाण दे ओर घर में माता से या पिता या अपने छोटे भाई बहन या बड़ों से बोलचाल बंद करे तो उनका यह सारा आयोजन व्यर्थ ठकोसला ही तो होगा जो कोई पुण्यदायी नहीं बनने वाला।   जनता इस समय धर्मविमुख होकर अपने को धर्मसंगत क्यों मानती है इन कारणों कि गवेषणा की जाय तो यह सत्य प्रतीत होगा कि आज मनुष्य समाज प्रत्येक आचरण को भीड़ ओर दिखावे का अंग मानकर आँख बंद कर विश्वास कर लेना ज्यादा उचित समझता  है किन्तु किसी यथार्थ तथ्य वस्तु को विज्ञान व तर्क की कसौटी पर कस कर देखने में अब उसकी रुचि नहीं रही है।

 हम लात कि बात कर रहे है ओर मैंने रामचरित मानस में कुछ प्रसंग पढ़े है  जो मेरी चेतना में भ्रमण करते  है । पहला प्रसंग कि जिस समय भरत शत्रुघन अपने मामा के घर से अयोध्या आकार अपना सर्वस्य नष्ट होना मानकर दुखित ओर कैकई पर नाराज है तब उसकी दासी मंथरा सजधज कर आती है तब पहली बार रघुवंश कि मर्यादा का उल्लंघन देखने को मिला जब शत्रुघन ने मंथरा के कूबड़ में लात मारी देखे – हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुँह भर महि करत पुकारा ॥ भावार्थ:-मंथरा को (सजी) देखकर शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गए। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से तककर कूबड़ पर एक लात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ी॥2॥ शत्रुघन के द्वारा लात मारने ओर भरत के द्वारा लात मारने के प्रसंग धर्म आध्यात्म के गगनचुंभी प्रयोग है जिसमे पात्रों का चरित्र भी प्रगट होता है ओर जीवन  आदर्श, धर्म के दर्शन और दृष्टिकोण के बदलने में लात का अनुपम सम्पर्क और सहयोग रहा है। तुलसीदासजी ने भी चित्रकूट में राम को राज्याभिषेक के लिए मनाने आए भरत के अनमोल शब्द को युगांतकारी अस्त्र लात का स्वरूप दे दिया जहां सभी ने लात अस्त्र को साबित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी- छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान। लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥ नगे पाँव चलने वाल भरत कि लात से धरा कि धूल कण उड़कर ऊपर नीचे हो रहे हो तब निश्चित ही यहा शब्दों में उच्च भावों के लात ओर धूल को गौरवान्वित किया है, इस तरह कि धूल पर पड़ने वाली लात किसे धन्य नहीं करेगी। जबकि इसके भाव में भरत के सद्गुणों कि खुसबु महक रही है जो कहते है कि मैं क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं श्री रामजी (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह जगत्‌ जानता है। (फिर भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥

       लात किसी कि भी हो सकती है, आपकी या मेरी। प्रसिद्ध महर्षि ओर ब्रह्मा जी के मानस पुत्र भृगु जी  ने छीर सागर में शेषनाग कि सैया पर विश्राम कर रहे तीनों लोको के स्वामी भगवान श्रीहरि विष्णु को जो लात मारी उस समय उनकी पत्नी जगत माता महादेवी लक्ष्मी उनके पद चाप रही थी, किन्तु भृगु जी ने किसी मर्यादा को न मानकर अमर्यादित कारी किया तब विष्णु जी नाराज नही हुये ओर सहज मुस्कुराके लात मारने वाले ऋषि से प्रश्न कि मुनिदेव आपके चरणों में चोट तो नहीं आई, मेरी कठोर छाती के कारण चोट लग सकती है।  विष्णु जी कि छाती पर महादेवी लक्ष्मी कि मौजूदगी में मारी लात कि परिकल्पना आप विष्णु कि जगह खुद को रखकर कर सकते है। संभवतया आप रहे होते हो लात मारने वाले के खानदान का नाश किए बिना आप चैन से नहीं बैठ सकते थे। पर आज भी विष्णु जी कि छाती पर लात के प्रहार के बाद किसने क्या खोया, क्या पाया पता नही चल सका किंतु आश्चर्य तो देखिये कि रहीम जी कहते है – का रहीम हरि को गयौ, जो भृगु मारी लात ? अर्थात् जो भृगु ने लात मारी उससे हरि का क्या गया आज तक पता नहीं चला। लात खुद मारने में शामिल होने से कर्ता है कर्म करने वाली क्रिया करने वाली, सारे विशेषण लात के लिए है।  अगर शरीर में आत्मा कि तरह लात कि आत्मा होती तो क्या लात कि आत्मा यह सब करके खुद को क्षमा कर सकती थी, शायद कदापि नहीं। लात का प्रयोग हमारी विचारधारा में क्रान्ति ला सकता है परंतु लात का प्रयोग कभी भी सुंदरतम नही हो सकता है।

       रामचरित मानस में तुलसी ने लात से मोक्ष प्राप्ति का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत कर ऋषि गौतम के श्राप से पत्थर कि शिला बन चुकी अहिल्या का प्रसंग रखा है जिसमे कहा जाता है कि स्वयं श्री राम को जब अहिल्या के तारने की समस्या का सामना करना पड़ा तो उन्होंने इसी माध्यम का अर्थात लात का आश्रय ग्रहण किया।चेतनापुंज लात के स्पर्श  होते ही जड़ अहिल्या हिलने डोलने, बतलाने वाली चेतन अहिल्या बन गई। पत्थर बनी जड़ता मानवता में परिवर्तित हो गई। एक अन्य मामला लंकाधिपति रावण का है जिसने अपने छोटे भाई विभीषण को देशद्रोही होने का लांछन लगाकर देश निकाला का दंड दिया किन्तु मामले कि सुनवाई किए बिना अपनी लात मारके भगा दिया जिसकी पुष्टि  तुलसीदास करते हुये लिखते है -‘तात-लात रावण मोहि मारा। यहा मजेदार प्रसंग अंगद का भी है जिसने प्रभु श्री राम की आन रखने के लिए रावण को चुनोती दी की वे उसका पैर जमी से उठाने में सफल हो जाते है तो वह सीता को हार जाएगा। गोस्वामी जी लिखते है-तेहि अंगद कह लात उठाई ,गहि पद पटको भूमि भवाई। ओर उनके पैर को कोई भी महावीर ठिगा न सका। लात-जिसे पैर, पाँव,  पद, चरण तथा टाँग आदि अनेक रूपों से यथा स्थान जरूरत अनुसार पुकारा गया है, न सिर्फ हमारी देह का ही बल्कि हमारी संस्कृति का ही अविच्छिन्न अंग रहा है। जरूरत है लातों को पहचाने ओर लातों की उपेक्षा न कर उसके प्रगतिशीलता के गुण को स्वीकारे जो लातों के द्वारा ही अनिवर्चनीय रूप से प्रतिनिधित्व करके लात ही प्रगति ओर जीवन का केंद्र है, अगर लात न हो तो यह जद प्राणी बनकर रह जाये।

        अगर आपको लात मारने, लात चलाने जैसे गुण मे महारथ हासिल है ओर आप अपनी लातों का प्रयोग अपने घर परिवार के छोटे बड़े, बीमार-कमजोर बुजुर्ग माता पिता भाई, बहन आदि रिशतेदारों के हकों पर, बेईमानी से डाँका डाल अपनी लातों की सत्ता चलाना चाहते है तो कीजिएगा किन्तु परिणामो के लिए तैयार भी रहिएगा। ध्यान रखिए -लातों के प्रयोग का लोभ तो बड़े-बड़े साधकों द्वारा भी संवरण नहीं किया जा सका है किन्तु अगर आप घर परिवार या सम्मिलित परिवार के बुजुर्ग की खुशियो को छिनकर उन्हे  बन्धनों में जकड़े हुये है तो अपने इन प्रयोगों का प्रभाव निश्चित रूप से अपनी वृद्धावस्था में आपके सामने आने वाला है। हा अगर अपनी आत्मा में निखार लाकर लात के अनुचित संकेतों का परित्याग कर देंगे तो आपकी चेतना आपको मानवीय प्रकाश से भर देगी। इस प्रकार की लात फिर लात न रहेगी वह चरण बन जाएगी, पूजनीय चरण ,निर्णय आपको करना है की आप क्या बनना चाहते है।

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