मिस्र का जनांदोलन और वाम की हताशा

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

काहिरा में जनांदोलन चरम पर है राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक इस्तीफा देकर अज्ञातवास के लिए जा चुके हैं । लेकिन पश्चिम बंगाल में मिस्र की राजनीतिक गरमी पहुँच गयी है। 13 फरवरी को कोलकाता में वाममोर्चे की विशाल चुनाव रैली के आरंभ में ही माकपा सचिव विमान बसु ने जिस उत्तेजना में मुबारक और बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासन की तुलना की आलोचना की और एक बांग्ला दैनिक को गरियाया ,उससे साफ था कि मिस्र के जनांदोलन से माकपा घबड़ाई हुई है। विमान वसु जैसे माकपा के नेताओं की नींद गायब है। जबकि मुख्यमत्री ने मिस्र के जनांदोलन पर कुछ नहीं बोला। यह संकेत है कि माकपा बंटी हुई है मिस्र पर।

काहिरा के जनांदोलन का संदेश है सर्वसत्तावादी राजनीतिज्ञों के दिन अब खत्म हुए। राज्य में माकपा और वाममोर्चे की कार्यप्रणाली सर्वसत्तावादी है और इसे बड़े सुंदर तर्कों के आधार पर वैध ठहराया जाता है। सर्वसत्तावादी पद्धति का नमूना है पार्टी निर्देशों पर काम करना। राज्य प्रशासन को माकपा ने जिस तरह पंगु बनाया है ,उसने सभी लोकतांत्रिक लोगों की चिन्ताएं बढ़ा दी हैं। योग्यता,कार्यकुशलता,पेशेवर दक्षता और नियमों आदि को पार्टी आदेश के आधार पर लागू करने की शैली मूलतः सर्वसत्तावादी शैली है, मुबारक की भी यही शैली थी।

आगामी दिनों में राज्य प्रशासन को इस शैली से चलाने वालों को जनता एकदम चुनने नहीं जा रही। सर्वसत्तावादी शासन पद्धति को भूमंडलीकरण और नव्य उदारनीतियों ने जगह-जगह कमजोर किया है। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में वाममोर्चे की व्यापक पराजय का प्रधान कारण यही था। पश्चिम बंगाल की जनता अब सर्वसत्तावादी कार्यशैली को वोट देने नहीं जा रही। सतह पर पश्चिम बंगाल में मिस्र को लेकर कोई बड़ी हलचल नहीं है लेकिन मिस्र के जनांदोलन से पश्चिम बंगाल के लोग,खासकर मुसलमान गहरे प्रभावित हैं। सर्वसत्तावाद लोकतंत्र के माध्यम से भी आ सकता है और बगैर लोकतंत्र के भी आ सकता है। इसलिए वामनेताओं का यह कहना सही नहीं है कि मिस्र और पश्चिम बंगाल में तुलना नहीं की जा सकती। मिस्र और अरब देशों के जनांदोलन का पश्चिम बंगाल की सामयिक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीयतावादी चेतना के लिए महत्व है ।

मिस्र में फौजी तानाशाही के युग का अंत होने वाला है। सरकारी खेमे में भगदड़ मची हुई है और इस भगदड़ में भविष्य में क्या निकलेगा यह कोई नहीं जानता,लेकिन यह तय है मिस्र का भविष्य में वह चेहरा नहीं रहेगा जो अब तक रहा है और यही बात पश्चिम बंगाल के बारे में कही जा सकती है। राज्य में भविष्य में विधानसभा चुनाव के बाद सरकार किसी भी दल की बने लेकिन राज्य का चेहरा बदल जाएगा, माकपा जैसा शक्तिशालीदल भी इस प्रक्रिया में बदलेगा।

मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का लगातार विभिन्न जिलों में सार्वजनिक सभाओं में भाषण देना, बड़े पैमाने पर टेलीविजन विज्ञापन जारी करना और लगातार विभिन्न समुदाय के लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करना इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र का जो दबाब वाममोर्चा विगत 34 साल में महसूस नहीं कर रहा था वह दबाब उसे विगत एक साल में महसूस हुआ है। जिस तरह की लोकलुभावन घोषणाएं मुख्यमंत्री कर रहे हैं उससे एक बात साफ है कि उनका दल हताश है और ताबड़तोड़ ढ़ंग से जनता का दिल जीतना चाहता है।

मुख्यमंत्री ने लोकसभा चुनाव के बाद पार्टीलाइन की बजाय निजी विवेक से काम करने का फैसला किया है और इस क्रम में वे लगातार सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के करीब चले गए हैं। मसलन सोनिया गांधी ने कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले के बाद कहा था कि मुख्यमंत्री कोटा जैसी केटेगरी को अपने राज्य में खत्म कर दें। लेकिन अभी तक किसी भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने यह कोटा खत्म नहीं किया लेकिन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने यह काम कर दिया।

मुसलमानों की बदहाली पर केन्द्र सरकार द्वारा बनाए कमीशन की रिपोर्ट पर देश में किसी भी राज्य ने ध्यान नहीं दिया लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने मुसलमानों के लिए नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवाद को देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माना और बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तुरंत मान लिया। उल्लेखनीय है प्रधानमत्री मनमोहन सिंह के बोलने के पहले माकपा का कोई नेता माओवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा नहीं मानता था। माकपा ने माओवाद के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष पर हमेशा जोर दिया था। लेकिन प्रधानमत्री मनमोहन सिंह ने सशस्त्रबलों की कार्रवाई पर जोर दिया और मुख्यमंत्री ने पार्टी की नीति और राय के खिलाफ जाकर केन्द्र के फैसले का समर्थन किया। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पार्टीलाइन के बाहर जाकर माओवादियों के खिलाफ संयुक्त सशस्त्रबलों की साझा कार्रवाई पर सक्रियता दिखाई है। मुख्यमंत्री के रवैय्ये में दूसरा परिवर्तन यह हुआ है कि प्रशासन चलाने के मामले में विमान बसु को हाशिए पर डाल दिया गया है। इसके कारण अनेक क्षेत्रों और समुदायों लोगों के लिए कल्याणकारी घोषणाएं करने में मुख्यमंत्री सफल रहे हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि प्रशासन के मामले में मुख्यमंत्री महत्वपूर्ण है,प्रशासन महत्वपूर्ण है, पार्टी गौण हो गयी है। ये सारे परिवर्तन सन् 2009 के लोकसभा चुनावों में भारी पराजय के बाद उठाए गए हैं। इससे एक संकेत यह मिलता है कि माकपा से राज्यप्रशासन को स्वायत्त बनाने की प्रक्रिया में मुख्यमंत्री को किसी हद तक सफलता मिली है। लेकिन अभी इस दिशा में बुनियादी परिवर्तन करने की जरूरत है। मसलन् 13 फरवरी की विशाल चुनावसभा में मुख्यमंत्री कोई सकारात्मक भावी कार्यक्रम की घोषणा नहीं कर पाए। वाममोर्चे की पहली विशाल चुनावसभा में आगामी चुनाव के लिए कोई नारा नहीं दिया गया । भावी नई वाम सरकार की कोई परिकल्पना और कार्यक्रम भी घोषित नहीं किया गया। मुख्यमंत्री का समूचा भाषण ममता बनर्जी पर केन्द्रित था। ममता बनर्जी पर हमला करने के चक्कर में मुख्यमंत्री यह भूल गए कि उन्हें आगामी चुनाव का प्रधान एजेण्डा बताना है। यह बड़ी चूक है। इस बार वाममोर्चे ने चुनावी नारे और कार्यक्रम के अभाव में चुनाव अभियान की शुरूआत की है। यह अशुभ संकेत है।

2 COMMENTS

  1. Prof.Jagdishver chaturvedi, you have wrongfully analyzed and compared the total situation in Egypt & Bengal. Left front government of Bengal is a being always properly an elected govt. socalled Egyptian democracy had been totally farce. If Left front government of Bengal would have been defeated in forthcoming election that would have been because of their misdeeds. There is no communist dictatorship in Bengal, which is vary well functioning under Indian constitution. In words of Jyoti Basu Bengal is not at all a socialist republic but a dignified municipality.

  2. जगदीश्वर जी आपको हो क्या गया है?आपने तो एक ही झटके में पूरे साम्यवादी सिद्धांत को ही कठघरे में खड़ा कर दिया. आपने जब यह कहा की” सर्वसत्तावादी राजनीतिज्ञों के दिन अब खत्म हुए। राज्य में माकपा और वाममोर्चे की कार्यप्रणाली सर्वसत्तावादी है और इसे बड़े सुंदर तर्कों के आधार पर वैध ठहराया जाता है।” तो मैं आप सब साम्यवाद के समर्थाकोसे पूछता हूँ की जब हमारे जैसे लोग यह कहते थे की साम्यवादी सरकार का गठन तानाशाही का ही एक रूप है तो आप सब भड़कते क्यों थे?मैंने तो बार बार लिखा है की तानाशाही जिस रूप में भी आये वह दीर्घ जीवी नहीं होता.भारत जैसे देश में तो इस तरह के शासन पद्धति का दीर्घजीवी होना और कठिन है,क्योंकि यहाँ समाचारों पर अंकुश लगाना लगभग असंभव है.
    आपने अपने आलेख में आगे यह भी लिखा है की “सर्वसत्तावादी पद्धति का नमूना है पार्टी निर्देशों पर काम करना”.मैंने हमेशा लिखा है की साम्यवादी सरकारे एक तानाशाह के बदले पार्टी गत तानाशाही में चलती है.आप तो यहाँ उसको दुहरा कर हमारे जैसे लोगों के कथन पर केवल प्रमाणिकता की मुहर लगा रहे हैं.आप जैसे लोग जागते तो अवश्य हैं पर ज़रा देर से.
    हालाकि मुझे लगता है की बड़े हताशा में आपने यह चोला बदला है पर देखिये आगे क्या होता है?

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