ग़ज़ल

जवानी के दिन हमने यूँ ही गँवाए,
न मौजें उड़ाईं, न पैसे कमाए।

न आँखों में डूबे, हँसे, खिलखिलाए,
न वादी में घूमे, न बारिश नहाए।

अगर चेहरे पढ़ते तो होते शहंशाह,
किताबों को पढ़-पढ़ के नौकर कहाए।

कहीं रख के भूले वो खुशबू भरे ख़त,
वो साँसों की गर्मी, वो चिलमन के साए।

चले घर से जब-तब तो दफ़्तर ही पहुँचे,
जो दफ़्तर से निकले तो घर लौट आए।

कभी फिक्र मां की तबीयत नरम है,
कभी बच्चे रूठें — खिलौने न लाए।

बड़ा बोझ कंधों पे उसके रहा है,
जब अदनी सी तनख़्वाह चूल्हा जलाए।

हुआ सस्ते दामों जवानी का सौदा,
कि रोटी के बदले बुढ़ापे में आए।

डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’

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