जल्दी आए लोकपाल

प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से स्पष्ट तौर से कह दिया है कि लोकपाल की नियुक्ति तत्काल करे। साथ ही हिदायत दी है कि लोकपाल अधिनियम में बिना किसी संशोधन के भी नियुक्ति की जा सकती है। दरअसल लोकपाल की नियुक्ति में देरी को लेकर स्वयं सेवी संगठन काॅमन काॅज ने याचिका दायर की हुई है। इस बाबत केंद्र सरकार की ओर से महाधिवक्ता मुकल रोहतगी ने दलील देते हुए कहा था की ‘लोकपाल की नियुक्ति में देरी होने का कारण विधेयक में लंबित संशोधन हैं। लोकपाल के लिए जो नियुक्ति समिति बनाई जानी है उसमें बतौर सदस्य नेता प्रतिपक्ष का होना जरूरी है। जबकि वर्तमान लोकसभा में कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं है‘। हालांकि कांग्रेस 44 सदस्यों के साथ लोकसभा में विपक्ष का सबसे बड़ा दल है, पर सदन में उसी पार्टी का नेता प्रतिपक्ष बनता है, जिसके लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या कम से कम 10 प्रतिशत हो। वर्तमान में किसी भी विपक्षी पार्टी के सदस्यों की संख्या 10 प्रतिशत नहीं है, लिहाजा कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को लोकसभा अध्यक्ष ने प्रतिपक्ष का नेता मानने की कांग्रेस की अपील खारिज कर दी थी। किंतु अब न्यायालय ने स्पष्ट कह दिया है कि संसद में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता ही नेता प्रतिपक्ष होगा।

दरअसल लोकसभा में लोकपाल संशोधन विधेयक-2013 लंबित है। यह विधेयक जब लाया गया था तब भाजपा ने दोनों सदनों में भरपूर समर्थन दिया था, किंतु अब तकनीकि पेंच डालकर मोदी सरकार इस विधेयक को पिछले तीन साल से टाल रही है। एक-दो नहीं मूल विधेयक के प्रारूप में 20 संशोधन प्रस्तावित कर दिए हैं। इस कारण विपक्षी दल इसे पारित करने में सहमत नहीं है। शायद इसीलिए अदालत को कहना पड़ा है कि वह अपने स्तर पर तकनीकि बधाएं दूर करे।

गांधी जी ने कहा था कि ‘सच्चा स्वराज थोड़े से लोगों द्वारा सत्ता हासिल कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग हो, तब सब लोगों द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता जगा कर ही प्राप्त किया जा सकता है।’ इस नजरिए से राजकाज में बदलाव लाने का यह सक्रिय हस्तक्षेप और इसकी प्रासंगिकता दोहराई जाती रहनी चाहिए। जिससे इस प्रक्रिया के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र ने जो उपलब्धि हासिल की है, उसकी निरंतरता बनी रहे। क्योंकि भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसकी स्वीकार्यता की महिमा जिस अनुपात में समाज में व्याप्त हो चुकी है, उसका निर्मूलन हालांकि इस अकेले कानून से संभव नहीं है, लेकिन लोकपाल अस्तित्व में आना चाहिए। इससे संबंद्ध जो पूरक विधेयक लंबित हैं, उनके प्रारुप को भी वैधानिक दर्जा मिलना जरुरी है। तभी, लोकपाल जैसे सशक्त प्रहरी की वास्तविक सार्थकता सामने आएगी। लोकसेवकों की कार्यप्रणाली में पारदर्षिता और उत्तरदायित्व के समावेष भी तभी परिलक्षित होंगे।  अगर विपक्ष या सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जन हस्तक्षेप कालांतर में जारी नहीं रहता है तो लोकपाल जनता की जागी उम्मीदों पर खरा उतरने वाला नहीं है। केंद्र सरकार की लोकपाल के बाबत शिथिलता के चलते लग रहा है कि संसद में किसी एक दल को असाधारण बहुमत मिलना लोकपाल के मार्ग में बड़ी बाधा है, क्योंकि ऐसे में कोई विपक्षी पार्टी नेता प्रतिपक्ष के पद की अधिकारी नहीं रह जाती। जबकि सच्चाई यह है कि ऐसी ही स्थिति में लोकपाल की अधिक जरूरत है, जिससे लोकसेवक भय का अनुभव करते रहें।

स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार का सुरसामुख लगातार फैलता रहा है। उसने सरकारी विभागों से लेकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सभी संस्थाओं को अपनी चपेट में ले लिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानवीय मूल्यों से जुड़ी संस्थाएं भी अछूती नहीं रहीं। नौकरशाही को तो छोड़िए, देश व लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद की संवैधानिक गरिमा बनाए रखने वाले संासद भी सवाल पूछने और चिट्ठी लिखने के ऐवज में रिश्वत लेने से नहीं हिचकिचाते। जाहिर है, भ्रष्टाचार लोकसेवकों के जीवन का एक तथ्य मात्र नहीं, बल्कि शिष्टाचार के मिथक में बदल गया है। जनतंत्र में भ्रष्टाचार की मिथकीय प्रतिष्ठा उसकी हकीकत में उपस्थिति से कहीं ज्यादा घातक इसलिए है, क्योंकि मिथ हमारे लोक-व्यवहार में आदर्श  स्थिति के नायक-प्रतिनायक बन जाते हैं। राजनीतिक व प्रशासनिक संस्कृति का ऐसा क्षरण राष्ट्र को पतन की ओर ही ले जाएगा ? इसीलिए साफ दिखाई दे रहा है कि सत्ता पक्ष की गड़बड़ियों पर सवाल उठाना, संसदीय विपक्ष के बूते से बाहर होता जा रहा है। विडंबना यह है कि जनहित से जुड़े सरोकारों के मुद्रदों को सामने लाने का काम न्यायपालिका को करना पड़ रहा है।

राजनीतिक संस्कृति के इस क्षरण और पतन को रोकने का पहला दायित्व तो उस विधायिका का था, जो रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन के चरम उत्कर्ष पर पहुंचने के दौरान, संसद की सर्वोच्चता और गरिमा का स्वांग तो रच रही थी, लेकिन जनता को दोषमुक्त शासन-प्रणाली देने की दृष्टि से एक कदम भी कानूनी प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ा रही थी। इसमें कोई दोराय नहीं कि संविधान के अनुसार संसद हमारे राष्ट्र की सर्वोच्च विधायी शक्ति व संस्था है। लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना में उसी का महत्व सर्वोपरि है। लेकिन जिस तरह से वह व्यापक व समावेषी भूमिका निर्वहन में गौण होती चली जा रही है, उस प्ररिप्रेक्ष्य में उसकी कार्य संस्कृति का प्रदूषित होते जाना तो था ही, जन सरोकारों से आंखे मूंद लेना भी था। संसद की गरिमा को क्षत-विक्षत करने का काम विधायिका में स्थापित होती जा रही व्यक्ति केंद्रित राजनीतिक शैली ने भी किया है। राजनेताओं की उम्मीदवारी का निर्धारण उसकी आर्थिक व जातीय हैसियत से किए जाने के कारण भी, इस जनतांत्रिक व्यवस्था का क्षय हुआ। राजनीति में अर्थ की महत्ता ने नैतिक सरोकारों को हाशिये पर खदेड़ दिया। संविधान निर्माताओं ने समता व न्याय पर आधारित और मानवीय गरिमा से प्रेरित भारतीय संप्रभुता के जो आदर्श रचे थे, उसकी अवहेलना इसी विधायिका ने की। संविधान-सम्मत कोई भी व्यवस्था कितनी भी श्रेष्ठ क्यों न हो, उसकी स्वीकार्यता तभी संभव होती है, जब देश की जनता का बहुमत उसके साथ हो। डाॅ. भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में कहा भी था,‘संविधान का कार्य पूर्णतः संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान सिर्फ विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को शक्ति देता है। राज्य के इन स्तंभों की क्रियात्मकता जिन कारकों पर अवलंबित है, वे हैं जनता-जर्नादन और राजनीतिक दल। उनकी आकांक्षाएं और राजनीति ही मुख्य निर्धारक आधार बिंदु हैं। जनता और दलों के भावी व्यवहार के बारे में कौन सटीक आकलन कर सकता है ?’ डाॅ. आम्बेडकर की आशंका सही साबित हुई। कालांतर में हमारे राजनीतिकों के व्यक्तित्व से सैद्धांतिक व्यवहार और आमजन के प्रति विष्वास दुर्लभ तत्व हो गए। नतीजतन असहमति की राजनीति परवान चढ़ी और मजबूरन लोकपाल कानूनी हकीकत में तब्दील हुआ।

राजनीति परिणाममूलक रहे, इसके लिए जरुरी है कि राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था लोक की निगरानी में रहें। जरुरत पड़ने पर आंदोलित भी होते रहें। इसी के समानांतर विधायिका और कार्यपालिका का दायित्व बनता है कि जनतंत्र से उपजने वाली असहमतियों का वह सम्मान करे और उसके अनुरुप चले। क्योंकि भारतीय प्रजातंत्र में अब तक बड़े समुदायों को लोकतंत्रिक प्रक्रियाओं से जुदा रखा गया है। कानून बनाने में उनकी सलाह या साझेदारी को स्वीकार नहीं किया गया। लिहाजा कानूनों को जन समूदायों पर ऊपर से थोप दिया जात है। पंचायती राज प्रणाली का भी यही हश्र हुआ। कुछ ऐसी ही वजहें रहीं कि लोकतंत्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘संविधान’ और सर्वोच्च संस्था ‘संसद’ वास्तविक व्यवहार में जनता से दूरी बनाते चले गए और इनसे प्रदत्त अधिकार विशेषाधिकार प्राप्त सांसदों व विधायकों में सिमटते चले गए। बहरहाल लोकपाल की नियुक्ति का रास्ता साफ कर न्यायालय ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में बड़ा काम कर दिया है।

प्रमोद भार्गव

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