१६ दिसंबर को, राजधानी दिल्ली में चलती बस में एक २३ वर्षीय युवती पर पशु को भी शर्मिंदा करने वाला राक्षसी लैंगिक अत्याचार मानव देहधारी बदमाशों ने किया, उसने देश के समाजजीवन को झकझोंर दिया. सामान्यत: अपने विश्व में खोया रहने वाला मध्यम वर्ग बड़ी संख्या में रास्ते पर उतरा; और उसने उन गुंडों को फॉंसी पर लटकाने की मॉंग की. ऐसी कठारे सजा देना संभव हो, इसलिए विद्यमान कानून में बदल करे, ऐसी भी मॉंग की गई. हमारे सौभाग्य से सरकार ने यह बात गंभीरता से ली और निवृत्त न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक आयोग भी नियुक्त किया. लोग उसे अपनी सूचनाएँ भेजे, ऐसी अधिकृत सूचना भी की.
अनेक सूचनाएँ
बलात्कारी के लिए फॉंसी का प्रावधान यह एक मॉंग है. एकमात्र नहीं. महिला पर बलात्कार करने वाले के लिए फॉंसी की सजा का प्रावधान होने से ही काम नहीं चलेगा, इससे बलात्कार की शिकार महिला की हत्या की जाने की संभावना भी रहेगी, ऐसा मत कुछ लोगों ने व्यक्त किया. किसी ने अपराधी को नपुंसक बनाने की सूचना दी, तो अन्य कुछ ने, उस अपराधी को केवल नपुंसक बनाकर न छोड़े; जैसे सांड का बैल बनाकर उसे बोझ ढोने में लगाते है, वैसे उस नरपशु को नपुंसक बनाने के बाद सजा में उससे कठोर काम भी करा लेने चाहिए, ऐसी सूचना की. ये और अन्य कुछ सूचनाएँ भी वर्मा आयोग दर्ज करा लेगा ही. उस आयोग की ओर से क्या सिफारसें आती है, यह शीघ्र ही पता चलेगा. यहॉं ध्यान में लेने लायक बात यह है कि, मुंबई उच्च न्यायालय ने महिलाओं की सुरक्षा के संदर्भ में राज्य सरकार भी कानून बनाए, ऐसा सूचित किया है. संसद के कानून बनाने तक राज्यों ने रूके रहने की आवश्यकता नहीं. केवल महाराष्ट्र ही नहीं, अन्य राज्य भी मुंबई उच्च न्यायालय के इस निर्देश का गंभीरता से विचार करे.
जलदगति न्याय
बलात्कार के मुकद्दमें नियमित न्यायप्रक्रिया के अनुसार मतलब जिसमें विलंब गृहित माना ही जाता है, न चले, उसका फैसला त्वरित हो और पीडित व्यक्ति को न्याय मिले, ऐसी भी सूचना है, उसके अनुसार सरकार ने काम भी शुरु किया है. २ जनवरी को ही दिल्ली में ऐसे एक जलदगति न्यायालय का उद्घाटन सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अलतमस कबीर के हस्ते हुआ है. लैंगिक बलात्कार के अत्यंत संवेदनशील मामले के बारे में सरकार पर्याप्त गंभीरता से विचार कर रही है, यही इससे स्पष्ट होता है.
कानून आवश्यक
लेकिन, हम यह भी समझ ले कि, कानून की शक्ति की भी कुछ मर्यादाएँ होती है. कठोर कानून होना ही चाहिए और उसका कठोरता से उपयोग भी होना चाहिए, इस बारे में संदेह नहीं. यह भी सच है कि, चोरी, हत्या, बलात्कार के संदर्भ में कानून है ही. फिर भी चोरियॉं होती ही है. हत्याए भी होती है और बलात्कार भी होते है. इसलिए कानून नहीं चाहिए, ऐसा कोई नहीं कहता. इसका यहॉं उल्लेख करने का कारण यह कि, जब भ्रष्टाचार के घटनाओं की तुरंत और गंभीरता से दखल लेकर भ्रष्टाचारियों को तुरंत एवं कठोर सजा हो इसलिए सक्षम लोकपाल की नियुक्ति के लिए अण्णा हजारे का आंदोलन पूरे जोर पर था तब ऐसा प्रश्न उपस्थित किया गया था कि, क्या कानून से भ्रष्टाचार समाप्त होगा? उस विषय पर इसी स्तंभ में मैंने लिखा था कि, ऐसे प्रभावी लोकपाल की नियुक्ति करने का कानून आवश्यक है. तब भी मैंने कहा था कि, चोरी, हत्या, बलात्कार के अपराध के विरुद्ध कानून होते हुए भी वह अपराध होते ही रहते है, इसलिए वह कानून व्यर्थ है, ऐसा हम कहते है? इसलिए बलात्कार के अपराध में अपराधियों को भय लगे, ऐसे कानून की नितांत आवश्यकता है; और आज की सरकार की और विरोधी पार्टिंयों की मानसिकता ध्यान में ले, तो ऐसा कानून संसद में पारित होने में कोई दिक्कत नहीं.
संस्कार-व्यवस्था का विचार
यह हुआ भय निर्माण करने का प्रश्न. ऐसे अपराध ही न हो, क्या ऐसा वातावरण निर्माण किया जा सकेगा, इस बारे में मुझे यहॉं विचार करना है; और मुझे लगता है कि इस दृष्टि से समाज और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार भी विचार करें. वह है संस्कार-व्यवस्था का विचार.
मेरे मतानुसार संस्कार आवश्यक है. संस्कार ही मनुष्य को पशु से अलग करते है. पशु और मानव की प्रकृति कुछ बातों में समान है. ‘आहारनिद्राभयमैथुनं च समानमेतत् पशुभिर्नराणाम्’ यह उक्ति प्रसिद्ध है. लेकिन पशु की एक बात अच्छी होती है. वे प्रकृतिनुसार ही बर्ताव करते है. उनमें जैसी संस्कृति नहीं आती, वेसे विकृति भी नहीं आती. मैं कई बार एक उदाहरण देता हूँ. सामने पड़े हरे चारे के ढ़ेर पर का चारा खाने के लिए दो बैल एक ही समय पर पहुँचे. उनमें एक हट्टा-कट्टा और दूसरा दुर्बल हो तो हट्टा-कट्टा बैल दुर्बल बैल से यह नहीं कहेगा कि, पहले तू चारा खा. भूखा है, समाने चारा पड़ा है, तो वह उस चारे पर टूट पड़ेगा और दूसरे बैल को सिंगों से दूर हाटने की कोशिश करेगा. यह पशु की प्रकृति है. दुबले को पहले खाने दे, और बाद में हम खाए, या दोनों मिलकर खाए, ऐसा कहना संस्कृति है. वह बैलों में नहीं आएगी. लेकिन पशु में कोई विकृति भी नहीं आती. पेट भरने के बाद चारा शेष बचा, तो बैल उसे बांधकर ले नहीं जाता! लेकिन आदमी का भरोसा नहीं! इसलिए, मनुष्य विकृति की ओर न जाय, विपरीत प्रकृति से ऊपर उठकर, संस्कृतिसंपन्न बनें, दुर्बलों की, भूखों की आवश्यकता पहले पूरी करे, सब मिलकर खाए, इसके लिए शिक्षा की और उसके द्वारा उचित संस्कारों की आवश्यकता होती है.
संस्कार क्या है?
ऐसे संस्कार घर से मतलब परिवार से, शिक्षा व्यवस्था से और सामाजिक व्यवहार से, जैसे जाने-अंजाने होते रहते है, वैसे प्रयत्नपूर्वक से किए जा सकते है. प्रश्न निर्माण होगा कि संस्कार मतलब क्या? उसकी परिभाषा आसान है. वह है – ‘दोषापनयेन गुणाधानं संस्कार:’ – मतलब दोष हटाकर गुणों को ऊपर उठाना मतलब संस्कार. मनुष्य त्रिगुणों का बना है. सत्त्व, रजस् और तमस. यह तीन गुण सब प्राणिमात्र में है. किसी व्यक्ति को हम सत्त्वगुणी कहते है, इसका अर्थ ऐसा नहीं कि उसमें रजोगुण और तमोगुण नहीं होते. वे गुण होते ही है. लेकिन सत्त्वगुणों का प्रमाण बहुत अधिक होता है. रजोगुण और तमोगुण कम होते है. संस्कार, सत्त्वगुण को प्राधान्य अर्पण करते है इसलिए उनकी आवश्यकता है. ‘संस्कार’ शब्द ही ‘अच्छा करना’ इस अर्थ का है. संस्कृत व्याकरणशास्त्र ही यह बताता है. अच्छा करना भाव नहीं होगा, तो उसी शब्द ‘सम्+कृ’ धातू से ‘संकर’ बनेगा. ‘भूषणभूत होना’ अर्थ अभिप्रेत होगा, तो ही ‘संस्कार’ शब्द सिद्ध होगा. मनुष्य ने अच्छा बनना मतलब क्या, व्यापक बनना, स्वयं को व्यापकता से जोड़ लेना. स्वार्थ से ऊपर उठना. जापान की तरह ‘Me Last, Others First’ मानना और उसके अनुसार व्यवहार करना. यह ‘संस्कार’का अर्थ है.
संस्कार की शिक्षा
हमारे बच्चें के लिए हम बाजार से चॉकलेट लाते है, तब पूरा पाकिट उसके हाथ में नहीं देते. एक चॉकलेट देते है और कहते है कि, एक भैय्या को दे, दूसरा दीदी को दे, और कोई होगा तो उसे दे; और फिर हम उसे खाने के लिए देते है. पहले औरो को दे और फिर हम खाए, यह संस्कार इस कृति और इस अभ्यास से हम देते है और अकेले न खाए, यह तत्त्व उसके मन पर पक्का करते है. श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अकेले खाने वालों की अत्यंत कठोर शब्दों में निंदा की है. वह वचन है ‘भुञ्जते ते त्वघं पापा, ये पचन्त्यात्मकारणात्’ (अध्याय ३, श्लोक १३) जो केवल अपने लिए भोजन पकाते है, वे अन्न भक्षण नहीं करते पाप भक्षण करते है, ऐसा इस श्लोक का अर्थ है. ‘परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्’ ऐसा भी एक सुभाषित है. उसका अर्थ भी ‘परोपकार पुण्यकारक होता है तो परपीडन पाप को कारणीभूत होता है’ ऐसा है. ‘मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्’ उक्ति तो हमारी संस्कृति का सार ही व्यक्त करती है. वह कहती है, परस्त्री को ओर माता समान देखें और परद्रव्य मिट्टी का ढेला माने. ऐसी शिक्षा घरों से पूरी परह मिटी तो नहीं, लेकिन बहुत ही क्षीण हुई है. पैसों की व्याप्ति बढ़ी है, लेकिन संस्कारों से आने वाली संस्कृति नहीं बढ़ी. इस कारण ऐशो-आराम, व्यसन की ओर प्रवृत्ति झुकने लगी है. विदर्भ में एक तहसील स्तर के महाविद्यालय के ५० प्रतिशत प्राध्यापक शराब के भक्त बने है ऐसा मुझे बताया गया. कारण ढूंढने पर ध्यान में आया कि, उन सब का वेतन मासिक ७० हजार रुपयों से अधिक है. पैसों का सदुपयोग कैसे करें, यह उनके मन पर किसी ने उचित संस्कारों से अंकित ही नहीं किया.
शिक्षा का परिणाम
मैं हिस्लॉप कॉलेज में प्रध्यापक था, उस समय, समयसारिणी (टाईम-टेबल) में सबके लिए बायबल का (स्क्रिप्चर) वर्ग आवश्यक होता था. आगे चलकर उसे ‘नैतिक शिक्षा’ का विकल्प दिया गया. यह नैतिक शिक्षा का वर्ग लेने का काम मुझको सौपा गया था. इस कारण, कुछ अच्छी बातें निश्चित ही विद्यार्थींयों को सुनने मिलती थी. मैं एक शिक्षा संस्था का अध्यक्ष था उस समय, संस्था द्वारा चलाई जाने वाली माध्यमिक शाला में, सप्ताह में दो दिन, एक सेवानिवृत्त वयोवृद्ध प्राचार्य भगवद्गीता पर प्रवचन करेगे ऐसी हमने योजना की. उपस्थिति ऐच्छिक रखी और यह प्रवचन वर्ग शाला समाप्त होने के बाद रखा. कक्षा ८ और १० के विद्यार्थींयों को सूचना दी गई. सौ से अधिक विद्यार्थी उसे उपस्थित रहते थे. अर्थात् यह ऑकड़ा कुल संख्या के २० प्रतिशत ही था. जिसका परीक्षा में मिलने वाले गुणों से कोई संबंध नहीं, जहॉं उपस्थिति अनिवार्य नहीं, ऐसी व्यवस्था का वे २० प्रतिशत विद्यार्थी लाभ ले रहे थे, इसका अर्थ यह कि उन पर कुछ संस्कार निश्चित ही हो रहे थे. जिसका आर्थिक अथवा व्यावहारिक कोई लाभ नहीं, ऐसे कार्य केलिए पौन घंटा देने की आदत उन्हें लगी. मेरे मतानुसार यह संस्कार है.
दिल्ली के रामकृष्ण गेास्वामी नाम के एक व्यक्ति ‘अपराधनिवारण-चरित्रनिर्माण’ नाम से एक कार्य करते है. जेल में कैदियों को गीता सिखाते है. मैं उनके साथ दो बार तिहाड जेल, एक बार साबरमती जेल और एक बार नागपुर की जेल में गया हूँ. अब तिहाड में कैदी ही गीता सिखाते है. जेल के अधिकारियों का अनुभव बताता है कि, इस गीता वर्ग का कैदियों के आचरण पर अच्छा परिणाम हुआ है.
संपत्ति और संस्कृति
हमारे देश में सेक्युलॅरिझम् का विकृत अर्थ लगाया जाता है, इस कारण शालाओं में के ऐसे संस्कार-वर्ग सदा के लिए बंद हो चुके है. सरकार ने ‘सेक्युलर’का अर्थ ‘धर्मनिरपेक्ष’ ऐसा न कर ‘सेक्युलर’ मतलब ‘सर्वपंथ समादर’ किया, तो अनेक शिक्षा संस्थाएँ धर्म-शिक्षा कहे, या नीति-शिक्षा का संस्कारपद कार्य करने के लिए आगे आएगी. मैं तो इससे आगे बढ़कर कहूँगा कि, जो शिक्षा संस्थाएँ ऐसे वर्ग चलाएगी, उन्हें सरकार विषेश रूप से पुरस्कृत करे. शाला में के बच्चें संस्कारक्षम आयु समूह के होते है. उनका जीवन उदात्त, उन्नत, व्यापक करने में सक्षम विचार उनके सामने आए, तो मुझे लगता है कि, निश्चित ही उनके मन पर उसका अच्छा ही परिणाम होगा. कई दुष्ट सामाजिक रुढियॉं समाप्त होगी. असहिष्णुता और लोकोपयोगी कानून का अनादर करने की प्रवृत्ति क्षीण होगी. रास्ते पर का यातायात मैं नित्य देखता हूँ. लाल बत्ति लगने के बाद ७५ से ८० प्रतिशत तक वाहन-चालक अपने वाहन रोकते है. २०-२५ प्रतिशत उसकी परवाह किए बिना वाहन आगे ले जाते है. कानून तोडने वाले अशिक्षित नहीं होते. गरीब तो होते ही नहीं. लेकिन संपत्ति के साथ संस्कृति नहीं आती; उसके आने के लिए आवश्यक वातावरण, न घर में होता है, न शिक्षा संस्था में मिलता है. घर में बचपन से ही ‘करीअर’ के पाठ पढ़ाए जाते है. उसका ही आग्रह होता है. लेकिन ‘करीअर’का सामाजिक प्रयोजन, कोई बताता ही नहीं. कम से कम, शिक्षा संस्थाएँ वह बताए. वाचन, श्रवण और दर्शन इन तीनों विधाओं के मन पर परिणाम होते ही है. इसलिए हम पढ़ने के लिए जो पुस्तकें लाते है. क्या वे केवल मनोरंजन के लिए होती है? टीव्ही पर के दृष्यों का भी हम जो साधक-बाधक विचार करते है, वह क्यों? हमारा जीवन संस्कति-संपन्न हो इसलिए ही. संस्कृति-संपन्नता की ओर कदम बढ़ने लगे तो फिर विकृति का मार्ग अपने आप छूट जाएगा. व्यक्ति प्रकृति से भी ऊपर उठेगा और पशु एवं मानव के बीच का अंतर उसके नित्य के आचरण से प्रदर्शित होगा. कानून तो चाहिए ही, लेकिन वह पर्याप्त नहीं होता. उसे संस्कारों का साथ मिला तो कानून का भी आदर होगा. मैं तो यह कहने का भी धाडस करता हूँ कि, ऐसे संस्कृति-संपन्न व्यक्तियों के लिए कानून के धाक की भी आवश्यकता ही नहीं रहेगी. समाजमन पर परिणाम करने वाले जो-जो उपक्रम, आज चल रहे है, उन सबका इस दृष्टि से विचार करे और उस दृष्टि से उनका मूल्यांकन करें, ऐसा मुझे लगता है.
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
वास्तव में विद्यालयों में अन्य विषयों के पाठ्यक्रम के साथ साथ नैतिक शिक्षा का भी आयु के अनुसार पाठ्यक्रम होना चाहिए. पहले हमें विद्यालय में नैतिक शिक्षा के रूप में विद्यालय की प्रार्थना के बाद कोई भी वरिष्ट शिक्षक किसी भी विषय पर दस-पंद्रह मिनट का प्रवचन देते थे. इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम में संस्करात्मक पाठ भी रहते थे. लेकिन बाद में “धर्म निरपेक्षता” के कारण एवं शिक्षा के क्षेत्र में वामपंथियों के बढ़ते प्रभाव से पाठ्यक्रम से ऐसे पाठ हटा दिए गए.’ग’ से गणेश के स्थान पर ‘ग’ से गधा पढाया जाने लगा. ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी कृष्णा बोध आश्रम जी महाराज ने १९६८ में कुरुक्षेत्र में तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री ( जो दो बार देश के अल्पकालीन पधान मंत्री बने) गुलजारी लाल नंदा जी की उपस्थिति में कहता की आज सर्कार की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्मविहीन भौतिकवाद पर आधारित व्यवस्था है. जबकि कोई भी व्यवस्था यदि धर्मविहीन हो जाएगी तो वह अव्यवस्था बन जाएगी.स्वर्गीय राजीव गाँधी के शाशन काल में एक समिति शिक्षा में सुधर के लिए बनी थी जिसके प्रमुख डॉ.करण सिंह जी थे. इस समिति ने भी अपनी आख्या में यह कहा था की हमने धर्मनिरपेक्षता के आवरण में शिक्षा में से नैतिक शिक्षा को समाप्त कर दिया है. जिसे बहल किया जाना चाहिए. लेकिन किसी भी सर्कार ने इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं किया.शिक्षा के साथ टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी नैतिकता को बढाने वाले कार्यक्रमों को प्रसारित किये जाने के लिए सर्वसहमति बनाने का प्रयास करना चाहिए.पहले मफतलाल जैसी कम्पनियाँ अपने विज्ञापनों में अपने आदर्श पुरुषों की कथाएं देते थे लेकिन अब ये बहुत कम दिखाई देता है.अपराधियों को भी नैतिक शिक्षण की आवश्यकता है. अभी हाल में मेरठ में राष्ट्र संत जैन मुनि पुलक सागर जी महाराज आये थे. उन्होंने विशेष प्रयास करके मेरठ जेल में अपना कार्यक्रम रखवाया और जेल के सभी बंदियों को नैतिक शिक्षा प्रदान की. किरण बेदी जी ने भी दिल्ली में जेल में नियुक्ति के दौरान सुधर के अनेक कार्यक्रम चलवाए.जिसके अच्छे परिणाम आये.
‘बलात्कार’ की समस्या केवल कठोर कानून की नहीं है.कानून कठोर और न्याय प्रक्रिया त्वरित और प्रभावी होनी ही चाहिए. लेकिन इसके अतिरिक्त भी इस समाया के अन्य आयामों के बारे में एक वृहद् विचार विमर्श होना चाहिए.काला धन और बिना परिश्रम के आवश्यकता से अधिक धन भी समाज में विकृतियों को जन्म दे रहा है.
हमारे समाज की संरचना एक विशेष गुणों जो हितकारी समाज के सरजन में सहायक हैं बनाते हैं , सत्व , राज, ताम की समय अवाष्ठ का नाम प्रकृति है जो गुण प्रकृति प्रदत्त हैं , वह आपने स्वाभाव और अनुबंशिक गुण के कारन हैं ! अतः हमें उन गुणों का सर्वप्रथम प्रछालन करना होगा ,यानि की स्व संश्क्रती का उच्चतम स्थित का पालन , जो की पहले अपने गृह से ही शुरू होती है को अनुशाशंबद्ध करना होगा ! अनेक पाठशालाएँ मिलकर कार्य कर सकतीं हैं , परन्तु हमारे नेता लोग इसे करने नहीं देगें क्यों की इससे उनकी धर्मनिर्पेछाता प्रभावित हो जाएगी , उन्हें एक वर्ग के वोट नहीं प्राप्त होगें इसका भय सताने लागेगा , और सत्ता में बने रहना उनके बाप के कार्य में बिघ्न डालने जैसा होगा ! इस तरह बलात्कार जैसी घटनाएँ घटित होती रहेगीं , मुझे खतरा यह जानकर अधिक होता है की यह स्वतःस्फूर्त जन जगारण कहीं उन्मादी अवाश्था में यदि नेताओं के घर का रुख करता है तो क्या होगा ?????? जैसे की पिछले दिनों दिल्ली में हुआ ??