कैसे ठीक हुई मेरी एक मनोवैज्ञानिक समस्या?

मेरी कौन सी मनोवैज्ञानक समस्या थी और उसको मिशन तिरहुतीपुर ने कैसे ठीक किया, इस पर बात करने के पहले थोड़ा मेरे बारे में जान लें तो अच्छा रहेगा। मैं अर्थात विमल कुमार सिंह मूलतः तिरहुतीपुर ग्राम पंचायत के अंतर्गत सुंदरपुर कैथौली गांव का निवासी हूं। दसवीं तक की पढ़ाई गांव से ही करने के बाद 1987 में पिताजी के साथ दिल्ली चला गया। दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए, एलएलबी करने के बाद मैं वहीं दिल्ली में ही रम गया। कुछ समय के लिए वकालत की। वहां मन नहीं लगा तो स्वतंत्र वृत्ति के साथ अनुवाद, लेखन, संपादन, शोध, सर्वेक्षण, प्रकाशन, मुद्रण, फिल्म निर्माण और पत्रकारिता आदि में स्वयं की तलाश करने लगा।

संयोगवश वर्ष 2004 में मेरी मुलाकात गोविन्दाचार्य जी से हुई। उन्होंने मुझे अपनी पत्रिका भारतीय पक्ष के संपादन की जिम्मेदारी सौंपी। उसके बाद मैंने गोविन्दजी से जुड़ी सामाजिक गतिविधियों और अपने बिजनेस, दोनों में एक संतुलन बनाते हुए आगे बढ़ने की कोशिश की। वर्ष 2011 में मैंने “संवाद मीडिया प्राइवेट लिमिटेड” के नाम से अपनी एक कंपनी बना ली। मेरी इच्छा थी कि मैं मीडिया के क्षेत्र में बड़ा बिजनेसमैन बनूं। लेकिन मेरा समय बिजनेस के काम में कम और गोविन्दजी से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों में अधिक खर्च हो रहा था। धीरे-धीरे मैं एक द्वंद्व में फंसता जा रहा था। न तो कायदे से पैसा कमा पा रहा था और न ही पूरा मन लगाकर सामाजिक काम कर पा रहा था। मैं जिस स्थिति से गुजर रहा था, उसे मनोविज्ञान की भाषा में Cognitive dissonance कहते हैं।

काग्निटिव डिसोनेन्स क्या है? चेक करिए कहीं आप भी तो नहीं जूझ रहे इससे?

अमेरिकी मनोविज्ञानी Leon Festinger ने काग्निटिव डिसोनेन्स पर 1957 में एक शोध प्रकाशित किया था। उनका कहना है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनमूल्य और अपने काम में किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं चाहता। कभी जब ऐसी स्थित उत्पन्न होती है तो वह अपने जीवनमूल्य या अपने काम में से किसी एक को दूसरे के अनुसार बदलने का प्रयास करता है। जीवनमूल्य या धारणा को बदलना आसान लगता है, इसलिए प्रायः मनुष्य उसी को एडजस्ट करने का प्रयास करता है। इसके लिए वह 4 तरीके अपनाता है। आइए इसे एक सिगरेट पीने वाले ऐसे व्यक्ति के उदाहरण से समझते हैं जो मानता है कि सिगरेट पीना बुरी चीज है क्योंकि उससे कैंसर आदि बीमारियां होती हैं।

  1. डिनायल अर्थात द्वंद्व पैदा करने वाले काम के अस्तित्व को ही नकारना- जब कोई काम करने से अंतर्द्वंद्व पैदा होता है तो मन शुरू में प्रायः यही तरीका इस्तेमाल करता है। सिगरेट के उदाहरण से समझें तो व्यक्ति अपने को समझाएगा कि उसे सिगरेट पीने की आदत बिल्कुल नहीं है। वह तो कभी-कभी दोस्तों के साथ पी लेता है या चलो इस बार पी लेते हैं, आगे से नहीं पीएंगे आदि आदि।
  2. रेशनलाइजेशन अर्थात तर्क का सहारा लेना- जब लत बढ़ने लगती है तो डिनायल से काम नहीं चलेगा। इसलिए वह तर्क का सहारा लेता है। वह अपने को समझाएगा कि देखो फलाने व्यक्ति को कैंसर हो गया था जबकि वे बिल्कुल सिगरेट नहीं पीते थे। वह उन तमाम तथ्यों को जुटाएगा जो सिद्ध करें कि सिगरेट पीने से कैंसर या कोई बीमारी नहीं होती है।
  3. रीफ्रेमिंग- जब डिनायल और रेशनलाइजेशन से भी बात नहीं बनती तो वह पूरे प्रसंग की व्याख्या अलग तरीके से करता है। वह अपने को समझाएगा कि देखो सिगरेट पीना ठीक नहीं है लेकिन क्या करें मेरा मन कमजोर है, मैं चाहता तो हूं लेकिन छोड़ नहीं पाता। कई बार वह इसे अपनी दोस्ती और अपने काम-धाम के लिए जरूरी बताकर भी सिगरेट पीने की आदत को नहीं छोड़ेगा।
  4. सेपरेशन- अंतिम हथियार के तौर पर व्यक्ति स्वयं को दो हिस्सों में बांट लेता है- एक अच्छा और एक बुरा। अंतर्द्वंद्व पैदा करने वाले अपने काम को वह बुरे व्यक्तित्व के मत्थे मढ़कर व्यक्तित्व के दूसरे हिस्से को पाक-साफ ऱखने की कोशिश करता है। ऐसे में प्रायः वह अपने उस काम के बारे में बात करना तो दूर, उस पर सोचने से भी बचता है, जिसके कारण द्वंद्व पैदा होता है।

जब समस्या चरम पर पहुंच गई…

गोविन्दजी ने जब मुझे मिशन तिरहुतीपुर का संयोजक बनाया तो मेरी Cognitive dissonance की वर्षों पुरानी समस्या चरम पर पहुंच गई। चारों में से कोई एक भी तरीका काम नहीं कर रहा था। मिशन तिरहुतीपुर की जिम्मेदारी को निभाना और दिल्ली में बड़ा बिजनेसमैन बनकर पैसा कमाना, ये दोनों लगभग विरोधी लक्ष्य थे। किसी एक को छोड़े बिना दूसरे को निभाना मुश्किल था। ईश्वर की कृपा से मुझे इसी समय मेरे दीक्षागुरु (पूज्य राजेन्द्र पांडेय जी, अयोध्या) मिल गए। उनके मार्गदर्शन में मेरे सामने श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्‍लोक 35 का अर्थ स्पष्ट हो गया जिसमें भगवान ने कहा है, “…स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः”

मुझे समझ में आ गया कि मिशन तिरहुतीपुर के लिए गांव में जाकर काम करना ही मेरा धर्म (कर्तव्य) है। इसको करते हुए यदि मरण (असफलता) भी मिले तो वह दिल्ली में काम करते हुए मिली सफलता (परधर्म) से श्रेष्ठ है। मुझे दिल्ली में रहकर काम करने का विकल्प (परधर्म) भयावह लगने लगा।

इस मनःस्थिति में मैंने निर्णय लिया कि मैं मिशन तिरहुतीपुर का काम दिल्ली रहकर नहीं बल्कि गांव में रह कर करूंगा। इस प्रकार 33 वर्ष दिल्ली में रहने के बाद मैंने उसे अपने स्थायी निवास के रूप में छोड़ देने का निर्णय कर लिया। मैंने तय कर लिया कि अब दो नाव की सवारी नहीं करूंगा। मैं केवल वही करूंगा जिसका सीधा संबंध मिशन तिरहुतीपुर से होगा।

विमल कुमार सिंह

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