राजनीति

मिशन तिरहुतीपुर डायरी-5: मिशन तिरहुतीपुर का जर्मन कनेक्शन

मई, 2020 में मैंने मिशन तिरहुतीपुर को व्यवस्था परिवर्तन से जोड़ते हुए एक छोटा सा नोट तैयार किया और उसे गोविन्दजी को दिखाया। इस नोट पर गोविन्दजी की प्रतिक्रिया बहुत अच्छी थी लेकिन उन्होंने एक आशंका व्यक्त की। उन्होंने मुझे सावधान करते हुए पूछा, “तुम्हारी आर्थिक स्थिति मुझसे छिपी नहीं है। मैं भी अभी कोई मदद करने की हालत में नहीं हूं, ऐसे में इतनी महत्वाकांक्षी योजना पर काम कैसे करोगे?”

मैंने कहा, “ठीक उसी तरह जैसे जनरल Seeckt के नेतृत्व में जर्मन सेना ने किया था।” यह कहते हुए मेरा ध्यान अनायास ही उस लेक्चर की ओर चला गया जिसे मैंने स्वयं गोविन्दजी को दिखाया था। German Army Mechanization – Dr. Louis A. Dimarco के नाम से यह लेक्चर आज भी यूट्यूब पर उपलब्ध है। दिसंबर, 2017 में तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्री बसवराज पाटिल जी के दिल्ली वाले फ्लैट पर इसे प्रोजेक्टर के जरिए दिखाने की विशेष व्यवस्था की गई थी। जब मैंने इस लेक्चर का उल्लेख किया तो गोविन्द जी को सारी बात तुरंत याद आ गई और उन्होंने मुझे आगे बढ़ने की अनुमति दे दी।

मैं स्पष्ट कर दूं कि मिशन तिरहुतीपुर की बुनियाद में संवाद, सहमति और सहकार जैसे विचार हैं। इसका किसी प्रकार के युद्ध और हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर मेरी युद्धों के इतिहास और उनसे जुड़े सिद्धांतों में खूब रुचि है। मैं अपने जीवन की हर छोटी-बड़ी चीज में उनका इस्तेमाल करता हूं। मैं ही क्या, आजकल पूरा कारपोरेट जगत इन सिद्धांतों का दीवाना है। हर बड़ा कारपोरेट प्लानर अपने पास चाइनीज जनरल Sun Tzu की किताब The Art of War और जापानी योद्धा Miyamoto Musashi की पुस्तक The Book of Five Rings जरूर रखता है। युद्ध आधारित ऐसी दर्जनों किताबें हैं जो आज बिसनेस स्कूल्स में सभी विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए कही जाती हैं। ऐसे में अगर मैंने भी इन किताबों को पढ़ा और मिशन तिरहुतीपुर के संदर्भ में उनका उपयोग किया, तो इसमें आश्चर्य कैसा?

मई, 2020 में जहां मैं खड़ा था, ठीक सौ साल पहले जर्मन सेना भी वहीं खड़ी थी। संसाधनों का अभाव एक ऐसा बिंदु था जहां मेरी और जर्मन सेना की स्थिति एक जैसी थी। सच कहें तो जर्मन सेना की स्थिति मेरे से भी ज्यादा खराब और हताश करने वाली थी। विजेता देशों ने वर्शाई की संधि में उसे पंगु बना दिया था। टैंक, लड़ाकू जहाज, युद्धपोत, भारी तोपखाना, कुछ भी रखने की अनुमति उसे नहीं थी। सैनिकों और अफसरों दोनों की संख्या एकदम से घटा दी गई थी। सैन्य अफसरों को प्रशिक्षित करने की उसकी प्रसिद्ध एकेडमी तक बंद करवा दी गई थी। और तो और देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी थी। इसलिए सरकार की ओर से भी किसी खास आर्थिक मदद की गुंजाइश नहीं थी। ऐसे माहौल में सब मान बैठे थे कि अतीत की यशस्वी जर्मन सेना अब एक मामुली सी दंतहीन पुलिस फोर्स बनकर रह जाएगी।

लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा नहीं हुआ। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल Seeckt ने अपने अधिकारियों को निर्देश दिया कि जो दुनिया सोच रही है, वह मत सोचो। कुछ ऐसा सोचो जो बिल्कुल अलग हो, जिसकी कोई कल्पना भी न कर सके। जैसा कि आप जानते हैं, दुनिया की सेनाएं उन दिनों खंदक खोदकर उसमें अपने को छिपा लेती थीं और वहीं से टिक कर युद्ध करती थीं। पहला विश्वयुद्ध ऐसे ही हुआ था। सब मान रहे थे कि अगला भी ऐसे ही होगा। इसी मान्यता के साथ यूरोप की सेनाएं स्वयं को बेहतर बनाने में लगी हुई थीं। लेकिन जर्मन सेना में खंदक युद्ध की तैयारी करना तो दूर, उस पर बात करना भी प्रतिबंधित था। वहां स्वयं को बेहतर बनाने पर नहीं बल्कि एकदम से कुछ नया करने पर जोर था। वहां युद्ध की एक नई शैली विकसित की जा रही थी जिसे आकार देने में प्रचुर संसाधनों का नहीं बल्कि उर्वर मेधा शक्ति का उपयोग हो रहा था। यह सिलसिला 1920 से लेकर 1934 तक चला और अंततः जर्मन सेना ने एक ऐसी युद्धशैली विकसित कर ली जिसका जवाब उस समय किसी भी सेना के पास नहीं था। दुनिया उस शैली को आज Blitzkrieg के नाम से जानती है।

जर्मन सेना का उदाहरण मेरे सामने था। इसलिए अपने आर्थिक अभाव पर मातम मनाने की कोई जरूरत नहीं थी। चूंकि कोरोना के कारण कहीं भी आना-जाना नहीं हो रहा था, इसलिए लगभग 5 महीने मैंने कागज, कंप्यूटर और किताबों के बीच पूरी एकाग्रता के साथ बिताए। भारतीय और पाश्चात्य जगत का जो भी ज्ञान मेरे लिए सुलभ था, उसका उपयोग करते हुए मैंने मिशन तिरहुतीपुर के रोडमैप पर काम किया। इस प्रक्रिया में मिलिट्री प्लानिंग के सर्वमान्य सिद्धांत मेरे लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुए।

अगर मिलिट्री की भाषा में कहें तो उस दौरान गोविन्दाचार्य जी मेरे कमांडर थे और मैं उनका स्टाफ आफीसर। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि ‘स्टाफ’ शब्द का सैनिक संदर्भ में विशेष अर्थ होता है। यह एक ऐसी परिकल्पना है जिसे विकसित करने में प्रशिया (जर्मनी) का सर्वाधिक योगदान रहा है। वहां पहली बार 1810 में एक ऐसी एकेडमी बनाई गई जहां केवल स्टाफ आफीसर्स को प्रशिक्षण दिया जाता था। स्टाफ के लोग क्या और कैसे करते हैं, इस पर हजारों पृष्ठ का साहित्य उपलब्ध है। लेकिन यदि संक्षेप में बताना हो तो स्टाफ आफीसर उसे कहते हैं जो अपने मुख्य सेनापति द्वारा निर्धारित सैन्य उद्देश्यों को पूरा करने के लिए योजना बनाता है, उन योजनाओं को आदेश में बदलता है और उसे सेना तक पहुंचाने की व्यवस्था भी करता है। रणनीतिक निर्णय लेने के लिए आवश्यक सभी तरह की सूचनाओं को जुटाने और उन्हें अपने कमांडर को उपलब्ध कराने में भी स्टाफ आफीसर्स की प्रमुख भूमिका होती है।

जहां तक मेरे कमांडर गोविंदजी की बात है तो उनका लक्ष्य है – व्यवस्था परिवर्तन। एक स्टाफ आफीसर के नाते मुझे इसी के लिए काम करना था। लाकडाउन के कारण उनसे मिलना संभव नहीं था, लेकिन फोन और इंटरनेट के सहारे उनसे संपर्क बना रहा और उनका निरंतर मार्गदर्शन मिलता रहा। मैं जो भी डाक्यूमेंट्स तैयार करता, उन्हें ईमेल के माध्यम से गोविन्दजी को भेजता जा रहा था। जहां जरूरत होती, डाक्यूमेंट्स को सुधारने की प्रक्रिया भी साथ-साथ चल रही थी। इस प्रकार 5 महीने लगातार काम चला। सितंबर बीतते-बीतते मिशन तिरहुतीपुर का 654 पृष्ठों का एक रोड मैप तैयार हो गया, जिसमें अगले 7 वर्षों की एक विस्तृत किंतु बहुत ही लचीली कार्ययोजना आकार ले चुकी थी।

इस डायरी में इस बार इतना ही। रोडमैप की खास बातों की चर्चा अगली बार इसी दिन इसी समय। रविवार, 12 बजे। नमस्कार।

विमल कुमार सिंह