द्यूत क्रीड़ा के बाद जब पांडवों को वनवास मिला तो भविष्य में युद्ध को अवश्यंभावी मानकर अर्जुन ने विभिन्न प्रकार के दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू कर दिया था। इसी सिलसिले में वे इन्द्र के पास भी गए। लेकिन वहां एक अनहोनी हो गई। कुछ ऐसी बात हुई कि उर्वशी नामक अप्सरा ने उन्हें नपुंसक होने का श्राप दे दिया। अर्जुन के लिए यह बहुत बड़ा आघात था। वे बहुत दुखी हो गए। इस पर इन्द्र ने उन्हें समझाते हुए कहा कि चिंता न करो, यही अभिशाप तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध होगा। ऐसा ही हुआ। उर्वशी का श्राप उस समय प्रभावी हुआ जब पांडवों के अज्ञातवास भोगने का समय आया। अर्जुन अपनी नपुंसकता के कारण ही स्वयं को छिपा पाए। इसी कारण मत्स्यदेश की राजकुमारी उत्तरा के वे गुरु बने जिसका आगे चलकर अभिमन्यु से विवाह हुआ। बाद में इसी उत्तरा की कोख से पांडवों की वंश परंपरा आगे बढ़ पाई।
नियति की योजना बड़ी विचित्र होती है। जीवन में कई पल ऐसे आते हैं जब अभिशाप वरदान बन जाता है और वरदान देखते-देखते अभिशाप हो जाता है। हम सोच रहे थे कि 19 अप्रैल को पंचायत चुनाव खत्म होने के बाद मिशन के काम को तेजी से आगे बढ़ाएंगे। लेकिन ऐसा हो न सका। अगले एक-दो दिन में कोरोना की दूसरी लहर ने इतने जोरदार तरीके से हमला किया कि सब कुछ ठप्प हो गया। तिरहुतीपुर जाना तो दूर की बात थी, हम आस-पास के घरों में भी नहीं जा सकते थे। कोरोना के कारण जहां कई मित्र काल-कवलित हो गए, वहीं हमारे घर में भी एक हृदय विदारक घटना घटी। चारों ओर डर और मातम का माहौल था।
साफ दिख रहा था कि आने वाला समय एक अभिशाप बन कर कष्ट देने वाला है। न चाहते हुए भी एक-दो दिन निष्क्रियता और अवसाद में बीते। लेकिन जल्दी ही मुझे लगा कि इससे निपटने का एक ही तरीका है कि व्यस्त रहा जाए। चूंकि बाहर कहीं जाना संभव नहीं था, इसलिए मैंने सोचना शुरू किया कि घर पर रहते हुए क्या किया जा सकता है। मुझे याद आया कि ऐसी ही कुछ परिस्थिति कोरोना की पहली लहर के समय भी पैदा हुई थी। तब मैंने पांच महीने दिल्ली स्थित अपने फ्लैट में रहते हुए मिशन तिरहुतीपुर के रोडमैप पर काम किया था। पिछली बार की तरह इस बार भी मुझे उन कामों पर ध्यान देना था जिन्हें सामान्य दिनों की भाग-दौड़ में कर पाना मुश्किल होता है।
मैंने महसूस किया कि मिशन तिरहुतीपुर के पास साहित्य के नाम पर फिलहाल कुछ नहीं है। हम पिछले 6 महीनों से काम पर काम किए जा रहे थे, लेकिन हमारी संवाद व्यवस्था लगभग शून्य थी। हमने जनवरी में मिशन के काम पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी, लेकिन एक सीमा के बाद उसकी उपयोगिता खत्म हो गई थी। मिशन में हो रही तमाम छोटी-बड़ी बातों से हमारे शुभचिंतक अनभिज्ञ थे। क्योंकि उन्हें बताने के लिए हमारे पास कोई सामग्री तैयार नहीं थी।
साहित्य सृजन का काम जरूरी था लेकिन वह तभी संभव था जब हमें एकांत में बैठने और लिखने-पढ़ने का स्थान मिले। यह बात फरवरी में ही मुझे समझ में आ गई थी। इसलिए मैंने उसी समय अपने पुश्तैनी घर की पशुशाला में मिशन तिरहुतीपुर के लिए आफिस तैयार करने का काम शुरू करवा दिया था। गांव में काम की रफ्तार बहुत धीमी होती है, फिर भी अप्रैल तक आफिस के फर्श, प्लास्टर और सफेदी का काम पूरा हो चुका था। इसी के साथ आफिस की उपरी मंजिल पर अतिथियों के रूकने की व्यवस्था भी लगभग तैयार हो चुकी थी।
24 अप्रैल को जब लाकडाउन के कारण सबकुछ बंद था, तब मैंने तय किया कि आफिस के बचे हुए काम जल्दी से जल्दी पूरे कर लिए जाएं। इसके लिए हमने कोरोना की परवाह न करते हुए जरूरी सामान और आदमी जुटाए और अगले 3 सप्ताह में दिन-रात एक करके आफिस को पूरी तरह तैयार कर लिय़ा। और इस प्रकार जरूरी फर्नीचर, बिजली, इंटरनेट, इनवर्टर सहित सभी सुविधाओं के साथ मिशन तिरहुतीपुर का आफिस 14 मई अक्षय त्रितीया के दिन औपचारिक रूप से शुरू हो गया।
आफिस शुरू होते ही हमारी दिनचर्या सुधरने लगी। बहुत दिनों से मेरी ब्रह्म मुहुर्त में जागने और ध्यान आदि करने की इच्छा थी। अब उस इच्छा को पूरा करना संभव था। जल्दी ही मैंने सुबह साढ़े तीन बजे उठना शुरू कर दिया। रात्रि भोजन पूरी तरह बंद कर दिया, इसलिए रात 9 बजे तक मैं अपने बिस्तर पर होता था। दिन में स्नान, ध्यान, व्यायाम और भोजन आदि के बाद जो समय बचता वह सब आफिस में बैठककर काम करने में गुजरता। समय का इतना अच्छा नियोजन मैं आज तक नहीं कर पाया था। आफिस के शुरू होने से कमल और हर्ष भी अधिक व्यवस्थित तरीके से काम कर पा रहे थे।
आफिस खुलने का सबसे अधिक लाभ मिशन तिरहुतीपुर के मीडिया वाले आयाम को हुआ। सबसे पहले मैंने एक प्रिंटेड ब्रोशर बनाने की सोची क्योंकि इसके लिए कई मित्र मुझे टोक चुके थे। जब ब्रोशर का मैटर तैयार कर रहा था तो लगा क्यों न यही चीज वेबसाइट पर डाल दी जाए। यह विचार साकार हो उठा जब हर्ष ने अपना कमाल दिखाते हुए एक वेबसाइट बना दी। उसने एक नाम भी सुझाया- ग्रामयुग। यह नाम हमें इतना अच्छा लगा कि अपने सभी मीडिया प्लेटफार्म्स का नामकरण इसी से कर दिया। हर्ष जहां वेबसाइट बनाने में लगे थे, वहीं कमल ने सोशल मीडिया की कमान संभाली। इस सबके लिए लिखने का काम मेरे जिम्मे था। सोशल मीडिया के लिए रोज क्या लिखूं, यही सोचते-सोचते डायरी का आइडिया आया। इस आइडिया पर छोटे-मोटे कई प्रयोग हुए और फिर 30 मई को इसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रकाशित करने का क्रम प्रारंभ हो गया जो आजतक जारी है। कुल मिलाकर हम संतुष्ट थे। कोरोना काल का लाकडाउन हमारे लिए अभिशाप नहीं वरदान साबित हो रहा था।
मेरा अधिकतर समय आफिस के भीतर गुजर रहा था, लेकिन ऐसा नहीं है कि बाहर की खबर मुझे नहीं थी। कोरोना के टीकाकरण मसले पर मैंने देखा कि गांव में अफवाह कैसे काम करती है। आबादी का एक छोटा हिस्सा टीका लगवा रहा था जबकि बड़ा हिस्सा उससे दूर था। टीका नहीं लगवाने के एक से बढ़कर एक विचित्र कारण गिनाए जा रहे थे। डैनियल काह्नमैन के शब्दों में कहें तो मनुष्य के सिस्टम-1 और सिस्टम-2 को काम करते देखना बड़ा रोचक था।
शहरों में कोरोना की दूसरी लहर के कारण लाकडाउन लंबा चला, लेकिन गांवों में मई बीतते-बीतते लाकडाउन जैसी कोई चीज नहीं रह गई थी। धीरे-धीरे हम भी गांव में मिशन के काम को फिर से शुरू करने पर विचार करने लगे। लेकिन समस्या यह थी कि जून का महीना शुरू हो गया था। अब बच्चों को गांव के भीतर पढ़ाना संभव नहीं था और गांव के बाहर हमारे पास कोई सुविधा नहीं थी। हमारे पास डेढ़ एकड़ का मैदान था लेकिन वहां कोई छत नहीं थी जो बारिस से बचा सके। घर पर आफिस और गेस्टरूम तैयार करवाने में बहुत पैसा खर्च हो गया था। कई काम उधार पर हुए थे जिनका भुगतान अभी तक नहीं हो पाया था। ऐसे में बच्चों के लिए छत कैसे बनवाऊं, इसका कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा था।
इस डायरी में फिलहाल इतना ही। आगे की बात डायरी के अगले अंक में, इसी दिन इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।