ठेठ गंवई लोकचेतना का पुरोधा नहीं रहा

शिवानन्द द्विवेदी

भोजपुरी संगीत का एक बुलंद आवाज अब हमेशा के लिए थम गया। भोजपुरी की इस अपूरणीय क्षति से समूचा भोजपुरी समाज स्तब्ध है। बालेस्सर यादव सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि एक ख़ास पहचान भी है क्योंकि भोजपुरी की वो ठेंठ गंवई तान जो बालेस्सर यादव में थी, शायद ही अन्यत्र कहीं मिले। मैं काफी दिनों से बालेस्सर यादव को सुनता आ रहा हूँ और शायद उनके हर गाने से मैं परिचित हूँ। भोजपुरी संगीत और साहित्य को नई दिशा एवं दशा देने का श्रेय बालेस्सर यादव एवं भिखारी ठाकुर को ही जाता है। बलेस्सर यादव उस दौर के गायक एवं गीतकार हैं जब भोजपुरी संगीत आज की तरह टी.वी, कैसेट,सिनेमा के माध्यम से मशहूर नहीं हो सकती थी और अत्याधुनिक संसाधन की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। बावजूद इन सबके भोजपुरी का वह सपूत आम आदमी के दिल में घर कर गया। मेरा मानना यह है कि बालेस्सर यादव में समाज की दशा एवं द्वन्द को भांपने की विलक्षण प्रतिभा थी वो वही गाते थे जो समाज की आवश्यकता होती थी। अपने कंठ के माध्यम से उन्होंने समाज के तमाम रीतियों-कुरीतियों को दर्शाने का सफल प्रयास भी किया है। भोजपुरी संगीत की सबसे ठेंठ गंवई विधा विरहा के तो वो सम्राट थे। विरहा में रई रई रई रई और जिउ जिउ जिउ की खोज का श्रेय भी बालेस्सर यादव को ही जाता है।

उनकी सबसे मशहूर पंक्तियों में से एक ” हँसी-हँसी पनवा खियावे बेईमनवा” और “मरदा मनईया सीमा पे सोभे मउगा मरद ससुरारी में ” आज भी हर बार सुनाने के बाद एक बार और सुनने का मन करता है। उनको सीधे मंच से ना सुन पाने की कसक आज भी मुझमें है और शायद ताउम्र रहेगी। एक तरफ जब भोजपुरी में तमाम संभावनाएं उभर कर सामने आ रहीं है वहीं धीरे-धीरे भोजपुरी में उस ठेंठ गंवयिपना का अभाव भोजपुरी में देखने को मिल रहा है ऐसा लग रहा है मानो भोजपुरी का भी शहरीकरण हो रहा है। जिस त्याग और निस्वार्थ भाव से बलेस्सर यादव ने भोजपुरी मिट्टी के घोल को अपने लेखनी में उकेर कर अपने उस झनकती आवाज में जो तान दी शायद आज भोजपुरी उसे संभालने को भी तैयार नहीं है। आज का गायक समाज भोजपुरी को सिर्फ गा रहा है जबकि बलेस्सर यादव सरीखे लोग भोजपुरी को जी रहे थे। मंचों के उस दौर में बालेस्सर यादव जिस नगर, जिस शहर या गावं में गए बस वहीं के हो कर रह गए। पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोग शायद आज भी उनके उस गीत “निक लागे टिकुलिया गोरखपुर के…” को नहीं भूल पाए होंगे। हालांकि भोजपुरी संगीत की व्यक्तिगत समस्या “अश्लीलता” से बलेस्सर यादव भी अछूते नहीं रहे, उन पर भी संगीत में अश्लीलता का लोप करने का आरोप लगता रहा। यहाँ तक की बलेस्सर यादव के गीत तमाम परिवारों में वर्जित थे और आज भी है। बहुत लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि भोजपुरी में अश्लीलता के नीव बालेस्सर यादव ने ही रखी थी। हालांकि इस मुद्दे पर अभी चर्चा करना समय की नजाकत के खिलाफ होगा क्योंकि हो सकता है कि उनके गानों में वयस्कता अथवा अश्लीलता का लोप हो लेकिन उनके द्वारा लोक गीतों में खड़े किये गए तमाम आयाम इन बातों को बौना साबित करने के लिए काफी हैं। इस सन्दर्भ मेरा तर्क सिर्फ ये है कि ” बालेस्सर यादव का मजबूत पक्ष उनकी लोकगीतों में परिशुद्धता है ना कि कमजोर पक्ष गीतों में अश्लीलता “अर्थात “वो जितने शुद्ध थे उतने अशुद्ध नहीं “। शुद्धता और अश्लीलता के मामले में उनकी तुलना आज के गायकों से करना कहीं से उचित नहीं होगा।

आज हमारे बीच वो गवईं अंदाज, वो ठेंट अदा, लोकगायकी का दीवानापन, वो खनकती आवाज नहीं रही। अपने तान से हर मौसम को जीवंत कर देने वाला वो भोजपुरी का बेटा हमेशा के लिए खामोशी के आगोश में सो गया। जिसके झनकार से माहौल खुशमिजाज हो जाता था आज वो अपनी माँ भोजपुरी को ग़मगीन करके चला गया। बालेस्सर यादव भले ही हमारे बीच आज नहीं है लेकिन जब जब बात भोजपुरी संगीत की होगी बलेस्सर यादव का नाम अग्रिम पंक्तियों में लिया जाएगा और भोजपुरी को अमर माटी के सपूत पर नाज रहेगा।

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