दीवारों से घिरे लोग

डॉ. नीरज भारद्वाज

सिनेमा, साहित्य और समाज सभी हमें अलग-अलग पक्षों पर अलग-अलग शिक्षा देते हैं। सिनेमा और साहित्य दोनों ही समाज का अंग हैं। इस दृष्टि से समझे तो समाज सबसे बड़ी शक्ति है, इसमें सभी कुछ दिखाई देता है। व्यक्ति समाज में जीवन यापन करता है और समाज के साथ ही रहता है। जो समाज से कट जाता है, वह हर एक हिस्से से धीरे-धीरे कटता चला जाता है। सिनेमा जगत में एक फिल्म बनी थी दीवार, जिसमें अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनके भाई के बीच एक दीवार खड़ी हो जाती है। एक अच्छाई के रास्ते पर चलता है तो दूसरा बुराई के रास्ते पर चलता है। इसी के चलते दोनों भाई अलग-अलग रहने लगते हैं। भाई-भाई के बीच घर का बंटवारा कितनी ही फिल्मों में दिखाया गया है। जब घर के बीच में दीवार होती है और एक ही परिवार दो हिस्सों में बट जाता है, यह बहुत ही दर्दनाक भी होता है। दूसरी ओर यह भी कहा जाता है कि अलग-अलग होकर ही यह देश-दुनिया बनी है। यहाँ ईंट-पत्थर की दीवार की बात नहीं हो रही है, विचारों के दीवार की बात हो रही है।

देखा-समझा जाए तो यह दीवार बड़े गजब की चीज है। कुछ लोग तो इन दीवारों में ही बंधे रहना चाहते हैं. कुछ लोग दीवारों को खरीदने-बेचने में ही लगे रहते हैं अर्थात बिल्डिंग, घर, फ्लैट आदि। दूसरी ओर देखें तो किसी ने अपनी पद प्रतिष्ठा की ऊंची-ऊंची दीवारें खींच ली हैं जिन्हें कोई लांघ ही नहीं सकता, ऐसा उन्हें लगता है। वह किसी से मिलना नहीं चाहते हैं. उस चार दीवारी में उनका मनचाहा ही प्रवेश करता है। लोग दीवारों को ही सजाने में लगे रहते हैं, जबकि संस्कारों से सजा हुआ घर ही सुंदर होता है। दीवारों से घिरा व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा रहता है। स्वतंत्रता से पूर्व की एक कविता में माखनलाल चतुर्वेदी लिखते हैं कि, ऊंची काली दीवारों के घेरे में अर्थात उस समय वह जेल में बंद हैं और वह देश को स्वतंत्र करना चाहता है। अंग्रेजी सरकार का विरोध करते हैं। ठीक इसके विपरीत आज का व्यक्ति स्वतंत्र होने के बाद भी दीवारों में घिरा रहना चाहता है, उन्हीं में अपने जीवन को खापा रहा है।

विचार करें तो सभी दीवारें समय के गति चक्र में अपने आप टूट जाती हैं। जिन्हें व्यक्ति तोड़ना नहीं चाहता, एक समय में व्यक्ति स्वयं टूट कर बिखर जाता है। आयु व्यक्ति को तोड़ देती है, समय उसे स्वयं उत्तर दे देता है। समय बहुत बलवान है, उसकी लाठी में आवाज नहीं होती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र अंधेर नगरी नाटक में दीवार के गिरने की घटना को दिखाते हैं जिसके चलते आगे पूरा नाटक चलता है और पूरे नाटक में कितनी बड़ी गलतियां होती हैं, वह सब दिखाया गया है। हम लोगों के बीच दीवारें क्यों खींच रहे हैं? हम इनमें क्यों घिरे बैठे हैं, इसका उत्तर हमें स्वयं से ही जानना होगा। कवि की पंक्तियां याद आती हैं कि, मेरे घर में छह ही लोग चार दीवारें छत और मैं। एकल परिवार से आगे आज व्यक्ति अकेला रह गया है। हमें अपने जीवन को समझना होगा। दीवारें बोलती नहीं है, वह समय के साथ खंड़हर बन जाती हैं। इतिहास के पन्नों में कितनी ही दीवारें दबी हुई है, यह तो पढ़ने-समझने वाले ही जानते हैं।

डॉ. नीरज भारद्वाज

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