क्या टूट रहा है राहुल गांधी की लोकप्रियता का जादू

प्रदीप चन्द्र पाण्डेय

क्या राहुल गांधी की लोकप्रियता का जादू टूट रहा है। कम से कम उत्तर प्रदेश के दो दिवसीय उनके दौरे से तो यही लगता है कि राहुल अब स्वयं उन युवाओं के बीच ही प्रश्न बनकर उभर रहे हैं जिनके कंधों पर भरोसा कर वे मिशन 2012 फतेह करने का मंसूबा पाले हुये हैं। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, लखनऊ, झांसी और आगरा में वे युवाओं से मिले तो दूसरी ओर उन्हें युवाओं के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे यक्ष प्रश्नों पर जहां राहुल गांधी मौन साधे रहें वहीं अनेक स्थानों पर उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कांग्रेसियों का प्रतिक्रिया में कहना है कि राहुल गांधी के विरोध के पीछे भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के युवा संगठन है, उनका यह पक्ष आधा सच हो सकता है किन्तु यह तो तंय है कि बिहार में करारी पराजय के बाद अब शायद राहुल गांधी का प्रायोजित तिलस्म टूट रहा है। उनके बयान सरकार में सहयोगी दलों के लिये ही संकट बन रहें हैं और नौजवान अब उनके साथ चलने की जगह उनसे सवाल करने लगा है। इन यक्ष प्रश्नों का हल तो राहुल गांधी और कांग्रेस को ढूढना ही होगा।

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने अपने दो दिवसीय यात्रा के दौरान छात्रों का आवाहन किया है कि वे राजनीति में आये। ऐसा आवाहन पहली बार नहीं किया गया है। राजनीतिक दलों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये नौजवानों का आवाहन अनेको बार किया गया और जब उनकी शक्ति से सत्ता परिवर्तन हुआ तो युवाओं को ही भुला दिया गया। देश में युवाओं के लिये कोई नियामक संस्था नही है जो उनकी कठिनाइयों, समस्याओं को सुलझाने की दिशा में सहयोग स्वरूप आगे आ सके। युवा छात्र राजनीति के माध्यम से राजनीति की मुख्य धारा में प्रवेश करते थे किन्तु जब छात्र संघ चुनाव को लेकर सड़क पर हिंसा होने लगी, वातावरण अराजक हो गया तो समस्या का हल ढूढने की जगह छात्र संघों को ही समाप्त कर दिया गया। छात्र संघ के माध्यम से ही देश को पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर सिंह, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार सहित अनेक नेता मिले किन्तु छात्र संघ के उज्जवल पक्ष को दर किनार कर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब जब युवाओं के राजनीति में आने की पौधशाला को ही रौंद दिया गया तो नौजवान सियासत में आये भी तो किस रास्ते से। यदि शरीर या समाज के हिस्से में गंदगी आ जाय तो क्या शरीर या समाज के उस हिस्से को ही समाप्त कर दिया जाय ? भला यह कहां का न्याय है। कम से कम छात्र संघों का समापन तो इसी रूप में देखा जाना चाहिये। लोकसभा, विधानसभा से लेकर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव तक राजनीति में बेशर्मी के हर औजार इस्तेमाल किये जा रहें हैं तो क्या हम लोकतंत्र को भी इसी तरह से नमस्कार कर लें जैसा छात्र संघों के साथ हुआ? क्या छात्र संघों की बहाली के लिये राहुल गांधी कोई पहल करेंगे? यदि इसका उत्तर हां है तो कब और किस तरह किन्तु यदि इसका उत्तर न में है तो उन्हे इस बात का क्या अधिकार बनता है कि वे युवाओं को सलाह दें कि वे राजनीति में आये?

आज राजनीति में अच्छे लोगों का आना लगातार कम होता जा रहा है। बिडम्बना यह कि अधिकारी से लेकर आम आदमी सभी राजनीतिज्ञों को गालियां देते नहीं थकते किन्तु विचित्रता यह कि मौका मिलने पर हर कोई नेता बनने को तैयार है। इसके पीछे शुद्ध अवसरवादिता है या कुछ और इसके लिये तो बड़े बहस की जरूरत है किन्तु छात्र संघों का चुनाव बन्द कर देना एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला है। राहुल गांधी युवा है और बेहतर होगा कि वे स्वंय छात्र संघों की बहाली के लिये पहल करें।

यदि छात्र संघों की बहाली शीघ्र न हुई तो आने वाले दिनों में पढे लिखे सुशिक्षित योग्य नेताओं का सर्वथा अभाव हो जायेगा और राजनीति की मुख्य धारा में सेवानिवृत्त अधिकारी, बड़े नेताओं के पुत्र, परिजन, नात रिश्तेदारों की भरमार होगी और यह स्थितियां स्वस्थ राजनीति के लिये कदापि बेहतर नही है। हम छात्रों से आस तो लगायें हैं, उनमें हम कल का भारत देखते हैं ,कम से कम छात्र संघ के रूप में ही सही उन्हें लोकतंत्र के हिस्से का थोडा सा आकाश मिलना ही चाहिये।

(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के प्रभारी सम्पादक है।)

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