संत रविदास का मुगल विरोध और भीम मीम का छलावा 

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12 फर. माघ पूर्णिमा, संत रविदास जयंती पर विशेष –

लगभग सवा छः सौ वर्ष जन्में संत रैदास भारत के आदि, मुखर धर्मांतरण विरोधी रहें हैं। वे घर वापसी के भी पुरोधा पुरुष रहे हैं। स्वामी रामानंद जी के शिष्य रविदास जी के कालजयी लेखन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उनकें रचित 40 दोहे गुरुग्रन्थ साहब जैसे महान ग्रन्थ में सम्मिलित किये गए हैं।

              इन दिनों देश में भीम मीम के नाम से चल रहे प्रपंच को हमारे अनुसूचित जाति बंधुओं ने पहचानना चाहिए। ये वही मीम हैं जिन्होंने संत रैदास को नाना प्रकार से प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुस्लिम आक्रांताओं भारतीय समाज में अगड़े पिछड़े का भेद उत्पन्न किया था जिसे दूर करने का कार्य संत रैदास जीवन भर करते रहे थे। मुस्लिम शासकों के उन वंशजों से जो भीम मीम का नारा देते हैं; उनको आईना बताया जाना चाहिए, कि, किस प्रकार उनके पूर्वजों ने भारतीय समाज के दूध में विभाजन का नीबूँ  मिलवाया था। मुस्लिम शासकों द्वारा संत रैदास के प्रति किए गए विरोध व अत्याचारों का हिसाब भी आज माँगा जाना चाहिए, और उन दुष्कृत्यों के प्रति क्षमाभाव प्रकट किया जाना चहाइये।  

       धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक स्तर पर मतांतरण हिन्दुस्थान में सदियों से एक चिंतनीय विषय रहा है। हमारे देश में मतांतरण की चर्चा और चिंता आठ सौ वर्षों पूर्व प्रारम्भ हो गई थी। समय-काल-परिस्थिति के अनुसार यह चिंता कभी मुखर होती रही तो कभी मुस्लिम आक्रान्ताओं और आतताइयों से दबे-कुचले स्वरुप में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रही।  बारहवीं  सदी में जब मुस्लिम आक्रान्ता भारत की ओर बढ़े तब वे धन लूटनें और इस्लाम की स्थापना के स्पष्ट और घोषित एजेंडे के साथ आये थे। इन विदेशी आक्रान्ताओं के लिए भारत की जनता को बहला फुसलाकर या जबरदस्ती मतांतरण कराना ही लक्ष्य था। भारतीय दर्शन के धुर विरोधी ये मुस्लिम आक्रान्ता, अपने तीन  दुर्गुणों; मतांतरण, धार्मिक स्थानों का विध्वंस और भारत में लूट; के कारण कभी भी समरस और एकरस नहीं हो पाये। 

         संत रैदास ने जब समाज में आततायी विदेशी मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी का आतंक और दबावपूर्वक मतांतरण का वातावरण देखा तब वे अत्यंत दुखी हो उठे। हिन्दुओं पर विभिन्न प्रकार के नाजायज कर जैसे तीर्थ यात्रा पर जजिया कर, शव दाह पर कर, हिन्दू रीति से विवाह करनें पर कर जैसे आततायी आदेशों से देश का हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर उठा था। भारतीय-हिन्दू परंपराओं और आस्थाओं के पालन करनें वालों से कर वसूल करनें और मुस्लिम धर्म माननें वालों को छूट, प्राथमिकता वरीयता देनें के पीछे एक मात्र भाव यही था कि हिन्दू धर्मावलम्बी तंग आकर इस्लाम स्वीकार कर लें। उस समय में स्वामी रामानंद ने अपनें भक्ति भाव के माध्यम से देश में देश भक्ति का भाव जागृत किया और आततायी मुसलमान शासकों के विरुद्ध एक आन्दोलन को जन्म दिया था। स्वामी रामानन्द ने तत्कालीन परिस्थितियों को समझकर कर विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि संतों को जोड़कर द्वादश भगवत शिष्य मण्डली स्थापित की। विभिन्न अगड़े समाजों का प्रतिनिधित्व करनें वाली इस द्वादश मंडली के सूत्रधार और प्रमुख, संत रविदास जी ही थे। संत रविदास ने अपने द्वादश मंडल के मंच से, समूचे भारत में घूम-घूमकर मुस्लिम शासकों के हिंदुओं पर लगने वाले अनुचित करों व मतांतरण का घोर विरोध किया। संत रैदास ने ऐसा समाज जागरण किया कि, धर्मांतरण को न केवल रोक दिया बल्कि मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हिन्दुओं की घर वापसी का अभियान भी चलाया। संत रविदास अगड़ी व पिछड़ी सभी जातियों में स्वीकार्य संत थे। वे विभिन्न हिंदू राज दरबारों में बड़े आदर व सम्मान के साथ बुलाए व सम्मानित किए जाते थे। संत रैदास को विभिन्न हिंदू राजदरबारों में मिल रहे इस सम्मान से देश में सामाजिक समरसता का अद्भुत वातावरण निर्मित हो चला था। संत रविदास भारतीय सामाजिक एकता के प्रत्येक बन गए थे। मुस्लिम शासकों को चुनौती देनें का जो दुष्कर कार्य हमारे राजे-महाराजे नहीं कर पाए थे वह एक संत ने कर दिया था!! पिछड़ी जातियों में आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन के बाद भी स्वधर्म सम्मान का भाव जागृत करनें में रैदास सफल रहे और इसी का परिणाम है कि आज भी इन जातियों में मुस्लिम मतांतरण का बहुत कम प्रतिशत देखनें को मिलता है। निर्धन और अशिक्षित समाज में धर्मांतरण रोकनें और घर वापसी का जो अद्भुत, दूभर और दुष्कर कार्य उस काल में हुआ वह संत रविदासजी का ही सूत्रपात था। इससे मुस्लिम शासकों में उनकें प्रति भय का भाव हो गया।

 मुस्लिम आततायी शासक सिकंदर लोदी ने सदन नाम के एक कसाई को संत रैदास के पास मुस्लिम धर्म अपनानें का सन्देश लेकर भेजा। यह ठीक वैसी ही घड़ी थी जैसी कि वर्तमान काल में बोधिसत्व बाबा साहेब आंबेडकर के समय आन खड़ी हुई थी। यदि उस समय कहीं संत रैदास आततायी लोदी के दिए लालच में फंस जाते या उससे भयभीत हो जाते तो इस देश के हिंदुस्थानी समाज की बड़ी ही एतिहासिक हानि होती। यदि उस दिन संत रैदास झुक जाते तो निस्संदेह आज इतिहास कुछ और होता, किन्तु धन्य हैं पूज्य संत रविदास कि वे टस से मस भी न हुए। वे दृढ़तापूर्वक समूचे देश में मतांतरण के विरुद्ध अलख जलाए रखनें का आव्हान भी करते रहे।

          रैदास रामायण में उन्होंने लिखा –

“वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान

फिर क्यों छोड़ इसे पढ लूं झूठ कुरआन

वेद धर्म छोडूं नहीं कोसिस करो हजार

तिल-तिल काटो चाहि,गला काटो कटार”

 देश ने अचंभित होकर यह दृश्य भी देखा कि संत रैदास को मुस्लिम हो जानें का सन्देश लेकर उनकें पास आनें वाला सदन कसाई स्वयं वैष्णव पंथ स्वीकार कर विष्णु भक्ति में रामदास के नाम से लीन हो गया। संत रैदास से चिढ़कर मुस्लिम शासकों ने उन्हें व उनकी टोली को चमार या चांडाल घोषित कर दिया। दूसरी ओर, देश के सभी हिंदू राजाओं ने उन्हें अत्यधिक आदर व सम्मान देना प्रारंभ कर दिया था। चित्तौड़ राजवंश  की महारानी मीरा ने तो संत रैदास को  गुरु रूप में धारण किया था। रैदास भक्त मीरा नें स्वरचित पदों में अनेकों बार संत रैदास का गुरु स्वरूप स्मरण किया है। 

‘गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।’

‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।’

अर्थात्, संत रैदास आपकी भक्ति में ही अहोभाग्य है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि ‘पिपीलिका’  यानि चींटी इन कणों को  सहजता से खा लेती हैं।

अपनें सहज-सुलभ उदाहरणों वाले और साधारण भाषा में दिए जानें वाले प्रवचनों और प्रबोधनों के कारण संत रैदास भारतीय समाज में अत्यंत आदरणीय और पूज्यनीय हो गए थे। वे भारतीय वर्ण व्यवस्था को भी समाज और समय अनुरूप ढालनें में सफल हो चले थे। वे अपनें अन्तकाल तक मतांतरण विरोधी के रूप में सक्रिय रहे। वैदिक धर्म में घर वापसी का कार्य भी संपन्न कराते रहे। 

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