नील गगन घनश्यामाच्छादित,
तेज तड़ित की दमक उठे।
जो संग पवन के द्रुत गति वो,
अगले बादल चमक उठे।
मेघ उच्च जो श्यामवर्ण हैं,
मंद चाल विचरण करते।
जीत समर को निकले हों ज्यों,
गहरे गर्जन स्वर भरते।
ऐसी श्यामल पृष्ठभूमि में,
हर एक दृश्य अति सुंदर।
हरे-भरे तरु, ताल, सरोवर
मानव-रचित ये श्वेत घर।
अहा! जल की नन्हीं सी बूँदें,
धरती पर इठलाई हैं।
अल्हड़-सी छोटी बिटिया ज्यों,
नानी के घर आई है।
उर अम्बर से धरणी तक इक,
श्वेत वसन-सा लटका है।
मोहक भीनी महक उठी है,
पुष्प-घरा का चटका है।
पौधों की कोमल पोशाकें,
मोती बूंदें लिए हुए।
जैसे सीपी गहरे जल में,
स्वाति पानी पिए हुए।
एक नदी-सी जलधारा की,
इस वर्षा से तेज बही।
जलचर, थलचर, नभचर की अब,
खुशी न वरणी जाए कही।
हर एक घटा घनघोर उठी,
हर एक छटा मनभावन।
शिव को करता जल अर्पित सा,
मेघ-वसन शोभित सावन।
डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’