अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाली योजनाएं

-सुवर्णा सुषमेश्वरीchintan

भारत विभाजन पश्चात हमारे देश में भारत में अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाली योजनाओं की भरमार रही है। लोकतांत्रिक विवशता व राजनैतिक तदर्थवाद के चलते भारत में अकर्मण्यता और सुस्ती को बढ़ावा देने वाली योजनाएं बनती रही हैं। इनसे देश की अधिसंख्य जनता निष्क्रय, अकर्मण्य एवं आत्मसम्मान से रहित होती गई है। इन योजनाओें का मकसद मानो, देश की जनता को बिना कर्म के उदरपोषण मात्र में उलझाए रखना है। ऐसा लगता है कि अधिसंख्य नागरिकों को न तो राष्ट्र की चिंता है, न ही निजी स्वाभिमान की। भारतीय संदर्भ में मात्र उदरपोषण ही जीवन का एक लक्ष्य सा बनकर रह गया है। स्वतंत्र भारत में यह प्रवृत्ति बढ़ती ही गई है और इस पर कठोरतापूर्वक लगाम लगानी होगी तथा नागरिकों को राष्ट्रहित में कर्मयोग की ओर प्रवृत्त एवं जागरूक करना होगा। यह सर्वविदित है कि सरकारी योजनाओं की इस प्रवृति पर लगाम लगाए बिना राष्ट्र का समुचित व सर्वांगीण विकास संभव नहीं है, फिर भी केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाले सरकारें एक –एक कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली अनुदान आधारित योजनायें लागू किये जा रही हैं । इस प्रकार की योजनाओं में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम), घरेलू रसोई गैस सहित दर्जनों अन्य योजनाओं का नाम लोगों के द्वारा सदैव ही गिनाया जाता रहा है। जिन पर आवश्यक सुधार के बिना इन योजनाओं का लाभ हकीकत मंदों तक पहुंचना असम्भवप्राय है। भारत की जनता सोचती है कि आर्थिक अनुदान अर्थात सब्सिडी की जो व्यवस्था लागू है, वह गरीबों की हितैषी है। इसके विपरीत हकीकत यह है कि सरकार जितनी सब्सिडी देती है, उस राशि को गरीबों से महंगाई व भ्रष्टाचार के बहाने वापस ले लेती है। सब्सिडी को जिस तबके के लिए फायदेमंद माना जाता है वास्तव में उसका भला नहीं हो पाता। आम आदमी के लिए जिस आर्थिक अनुदान की व्यवस्था की गई है, उसे बिचौलिए व संपन्न लोग ही लूट रहे हैं। यही कारण है कि गत वर्ष इंडियन आयल कारपोरेशन, बरौनी स्थित रिफाइनरी की स्थापना के पांच दशक पूरे होने के मौके पर दिल्ली विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को कहना पड़ा कि जो लोग समृद्ध हैं तथा जिन्हें रसोई गैस पर सब्सिडी की जरूरत नहीं है, वे सबसिडी लेना स्वयं छोड़ दें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस दिशा में लिया गया कदम सराहनीय है, क्योंकि भारत वर्ष विश्व में जनसंख्या के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश है। सरकार को प्रतिवर्ष सिर्फ रसोई गैस पर सब्सिडी पर हजारों करोड़ रुपए का बोझ सहन करना पड़ रहा है। पिछले लगभग तीन दशकों से देश की अधिकांश जनसंख्या गैस चूल्हों का प्रयोग करने लगी है। इसके परिणामस्वरूप जहां प्रदूषण पर नियंत्रण हुआ है, वहीं जंगलों के कटान में भी कमी आई है। इससे पूर्व देश की अधिकांश जनता रसोई में ईंधन के रूप में लकड़ी, कोयला तथा मिट्टी के तेल का इस्तेमाल करती थी, लेकिन तूफानी रफ्तार से बढ़ती जनसंख्या ने गैस चूल्हों को अधिक महत्त्व दिया। गृहिणियों को भी सुविधा मिली तथा धुएं से हुए काले बरतनों को साफ करने से भी निजात मिली। पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा वनों की बेरहमी से कटाई पर रोक लगाने के लिए जनमानस को एलपीजी के प्रयोग हेतु प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उपभोक्ताओं को गैस सिलेंडर की खरीद में सबसिडी दिए जाने की व्यवस्था की गई। लेकिन इस तरह का आर्थिक अनुदान प्रत्येक एलपीजी सिलेंडर पर दिए जाने की व्यवस्था की गई। इससे हुआ यह कि गरीबों को तो इससे राहत मिली, लेकिन साथ-साथ गैर जरूरतमंदों को भी इसका लाभ मिलता रहा। अब सरकार अगर संपन्न लोगों से गैस सिलेंडर पर मिलने वाले आर्थिक अनुदान छोड़ने की अपील कर रही है तो इसके राजकोष पर सकारात्मक असर देखने को मिल सकता है। केंद्र सरकार के द्वारा संसदीय कैंटीन में सब्सिडी पर पांच-दस रुपए में अर्हता सस्ते में सांसदों को खाना मुहैया कराये जाने की व्यवस्था को समाप्त किया जाना भी सराहनीय कदम है ।

उल्लेखनीय है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराने वाली महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा भारत में कई व्यवहारिक समस्याओं की शिकार रही है। इन समस्याओं का निराकरण न होने की वजह से गत वर्षों में मनरेगा योजना के अंतर्गत वे लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सके हैं, जो अपेक्षित थे। यह योजना गांवों में बसी विशाल भारतीय जनसंख्या को कौशल और अनुशासित आर्थिक विकास के अवसर उपलब्ध करा पाने में कहीं न कहीं चूक रही है। इन दोषों का अध्ययन करने के उपरांत केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा योजना में अब तक सामने आए दोषों को दूर कर इसे और अधिक उपयोगी बनाने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं जो उचित ही कहे जा सकते हैं । केंद्र सरकार ने मनरेगा के तहत होने वाले कुल व्यय में अकुशल वेतन की अनिवार्य हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से घटाकर 51 प्रतिशत करने तथा कुल व्यय का 50 प्रतिशत कृषि उत्पादन बढ़ाने में खर्च करने का निर्देश दिया है। इसके लिए लघु सिंचाई प्रणाली का विकास करने पर जोर दिया गया है। सरकार के अनुसार, मनरेगा परियोजना वर्तमान में 644 जिलों में चल रही है, जबकि इसका क्रियान्वयन केवल उन जिलों में होना चाहिए, जहां गरीबी और बेरोजगारी अधिक है। हालांकि कुछ वामपंथी अर्थशास्त्रियों, समाजसेवियों और नौकरशाहों के द्वारा इन बदलावों का विरोध किया जा रहा है फिर भी उनकी दलीलों के विपरीत यह असल में सरकार के द्वारा उचित दिशा में ही उठाया गया कदम है। मनरेगा के दोषों को दूर करना राष्ट्रीय हित में होगा। दूसरी ओर मनरेगा में बदलाव के विरोधियों का यह भी कहना है कि इससे तो इस योजना का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। सामग्री की मद में राशि बढ़ाने के कारण रोजगार निर्माण में 40 प्रतिशत तक कमी हो जाएगी। विगत वर्षों के प्रतिवेदनों से यह स्पष्ट होता है कि मनरेगा को लागु करते समय मनरेगा में अकुशल वेतन की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत घोषित की गई थी, परंतु व्यवहार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 75 प्रतिशत तक रही है। इससे स्पष्ट है कि अकुशल वेतन में गिरावट अनिवार्य शर्त नहीं है, बल्कि स्थितियों के अनुरूप इसमें फेरबदल किया जा सकता है। ऐसी कोई आशंका सत्य के निकट प्रतीत नहीं होती है कि मनरेगा योजना में कतिपय आवश्यक संशोधन किए जाने से अकुशल मजदूरों का अहित हो जाएगा। मनरेगा निधि का अधिक उत्पादकतापूर्ण और असरदार इस्तेमाल इस योजना के मूल उद्देश्य के विपरीत बताना तो योजना में धनराशि की बर्बादी, अकुशलता और नौकरशाही की निष्क्रियता का समर्थन करना ही होगा। वास्तव में गरीबों के बैंक खाते में सीधे पैसा जमा करने से भ्रष्टाचार पर अंकुश लग रहा है । इसलिए मनरेगा के वेतन को सीधे बैंक खाते में जमा करने के विरोध को उचित नहीं कहा जा सकता। यह तय है कि यदि मनरेगा में समय रहते आवश्यक सुधार नहीं किए गए, तो मनरेगा केवल गड्ढे खोदने की योजना और अकर्मण्यता व भ्रष्टाचार की शरणस्थली मात्र बनकर रह जाएगी। देश में मनरेगा योजना को लेकर कुछ उचित बदलाव किए जा रहे हैं। इस योजना के तहत अब युवाओं को भी आजीविका का लाभ मिलेगा। आजीविका मिशन का दायरा सभी वर्ग के ग्रामीण बेरोजगार अकुशल युवाओं के लिए खोल दिया गया है। इसके लिए मिशन के मानकों को शिथिल किया गया है। मनरेगा के युवा मजदूरों को प्रशिक्षण देकर कुशल बनाकर आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। मिशन में उत्तरी क्षेत्र के राज्यों को खास प्राथमिकता दिए जाने की योजना है।

यही स्थिति राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन अर्थात एनआरएलएम की भी है । गत वर्ष इस पर कुल 4000 करोड़ रुपये खर्च किए जाने की व्यवस्था की गई थी । पूर्व में मिशन में केवल गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन (बीपीएल) करने वाले परिवारों को ही शामिल किया जाता था । इस प्रावधान को शिथिल करते हुए इसे अब सभी वर्ग के ग्रामीण अकुशल युवाओं के लिए खोल दिया गया है। नक्सल प्रभावित 82 जिलों समेत 150 जिलों में महिला स्वयं सहायता समूहों को रियायती दर पर ऋण भी दिया जाने को कहा गया था । योजना के अनुसार ब्याज सब्सिडी का बोझ केंद्र सरकार उठाएगी। देश के अन्य जिलों के महिला स्वयं सहायता समूह सेल्फ हेल्प ग्रुप (एसएचजी) को भी इसी दर से कर्ज मिलेगा। उसमें केंद्र की हिस्सेदारी 75 फीसदी होगी। एनआरएलएम का प्रदर्शन दक्षिण भारत के चार राज्यों में बहुत अच्छा रहा है। इसको देखते हुए उत्तर व मध्य क्षेत्र में आजीविका मिशन को प्राथमिकता दी जा रही है ।
भारत में निर्धनता और बेरोजगारी से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर स्किल डेवलपमेंट अर्थात दक्षता विकास कार्यक्रम को लागू करना होगा। इसके लिए केवल पाठ्यक्रमों में थोड़े-बहुत बदलाव से काम नहीं चलेगा। भारत में अभी जारी पाठ्यक्रमों और शिक्षा व्यवस्था को व्यापक रूप से परिवर्तित करने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि देश में उद्यमिता की भावना को बढ़ावा दिया जाए। ऐसा नहीं है कि अभी हमारे युवाओं में उद्यमिता की भावना की कोई कमी है। भारतीय नागरिक पारंपरिक और ऐतिहासिक रूप से उद्यमी और इनोवेटिव अर्थात प्रयोगधर्मी रहे हैं।
भारतीय शैक्षणिक व्यवस्था में औपनिवेशिक शासन की कुप्रवृत्तियों को ढोते रहने के कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार की उद्यमशीलता और प्रयोगधर्मिता से दूर होती चली गई है। फिर भी भारतीय जनमानस में उद्यमिता की भावना को सर्वत्र जमीनी स्तर पर देखा जा सकता है। भारतीय लोकजीवन में सदैव से ही कृषि को सर्वोत्तम माना गया है। जब कृषि को उत्तम माना गया है, तो निश्चित रूप से देश में कृषि के उपयुक्त एक ऐसा समय देश में अवश्य रहा होगा। निश्चय ही उस समय किसी भी स्थिति में किसानों के आत्महत्या करने जैसी नौबत भी नहीं आती होगी। कृषि स्वयं में एक प्रयोगधर्मी उद्यम है।
पंडित दीनदयाल , मोहन दस करमचन्द गांधी ने समय –समय पर ग्रामीण कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की बात की थी। कृषि और उद्योगों की ओर आज भी युवाओं का आकर्षण कुछ कम नहीं है। अंग्रेजों के जमाने के ब्रिटिश कानून आज भी देश में ढोए जा रहे हैं और इनकी वजह से बड़ी संख्या में युवाओं को कृषि तथा अन्य प्रयोगधर्मी व उद्यमशील कार्यों से नहीं जोड़ा जा सका है। खासकर औद्योगिक क्षेत्र पर विभिन्न कानूनों के जरिये लालफीताशाही इस तरह हावी है कि किसी नए व्यक्ति के लिए व्यवसाय में उतरना आसान काम नहीं है। बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण कृषि और उद्योग क्षेत्र का व्यापक विकास भारत में नहीं हो पा रहा है। देश के सांसद अपने में मस्त हैं और जनता पस्त है । चुने हुए प्रतिनिधियों को मतदाताओं व गरीब जनता का ख्याल रखना चाहिए। कड़वी दवाई खाने का ठेका क्या सिर्फ गरीब जनता को है? जिस दिन देश के प्रतिनिधियों को मिलने वाली बिजली, पानी, टेलीफोन, हवाई यात्रा, रेल यात्रा, बंगले आदि अन्य सुविधाएं बंद हो जाएंगी, उसी दिन भूखे पेट रह रहे गरीबों को दो वक्त की रोटी मिल सकती है। वहीं माननीयों के पेंशन-भत्तों पर कोई रोक नहीं है। यह कहां तक तर्कसंगत है? स्वाधीन कहे जाने वाले भारत में ये भेदभाव क्यों? संपन्न और धनाढ्य लोगों को सब्सिडी ही नहीं, बल्कि आरक्षण का भी त्याग करना चाहिए। जहां तक हो सके, इस गैर जरूरतमंद तबके को मिलने वाली अन्य सुविधाओं का भी त्याग कर देना चाहिए। यही देश के हित में होगा ।

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  1. देश के लोगों को निकम्मा बनाये रखने के लिए ताकि वे सब्सिडी की अफीम में पड़े रहे व चुनाव के समय सरकार को वोट दे आएं , उनकी ये योजनाएं भी ऐसी बनी ताकि वे सब्सिडी व सस्ते पण के लालच में पड़े रहे व सरकार भी लूट लूट कर अपने नेताओं के पेट भर्ती रहे , कांग्रेस ने यह सोच कर ही मनरेगा , व खाद्य सुरक्षा योजना शुरू की थी , भारत की जनता को भी यही चाहिए , इन योजनाओं के कारण गावों में लोग इतने जाहिल हो गए कि अन्य काम करना पसंद ही नहीं करते , उनका व्यय भी इतना नहीं कि ज्यादा भागदौड़ करनी पड़े , वे संतोषी जीव हैं , बस मुफ्त मिलना चाहिए
    मुफ्त के चक्र में ही दिल्ली की जनता ने केजरीवाल जैसी नाकारा सरकार चुन ली जो आज उनकी परेशानी का सबब बन गयी है

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