उत्तर प्रदेश में महिलाओं की नियति बन गयी है बलात्कार

-जगदीश वर्मा ‘समन्दर’-

rape

लखनऊ में सरकार की नाक के नीचे मोहनलालगंज में एक महिला से दरिदंगी की हद पार कर की गयी हत्या से लगता है कि उत्तर प्रदेश में जंगलराज पूरी तरह कायम हो गया है । निर्वस्त्र अवस्था में मृत मिली महिला को न्याय मिल जाये, इसके लिये परिजनों को संघर्ष करना पड़ रहा है ? एक महिला की निर्मम हत्या पर महिला पुलिस अधिकारी (एडीजी सुतापा सान्याल) भी मानवीय सवेन्दनाओं से इतर पुलिस की झूठी कहानी की प्रवक्ता बन गयी। मृतक महिला का पोस्टमार्टम हुआ लेकिन रिर्पोट उन डाक्टरों की आयी जिन्हें एक किडनी की जगह दो किडनियां नजर आती हैं। इतने हाईलाईट मामले में डाक्टर अपनी कम योग्यता की वजह से मृतका की सही उम्र नहीं बता पाये या सरकार के दवाब में झूठी रिर्पोट बना दी इस पर बहस हो सकती है । मीडिया के भी कई झण्डे पावर और पैसे के इस्तकबाल में थोड़ा नीचे झुक गये इसकी चर्चा भी सोशल मीडिया पर जारी है । परिजनों के अनशन और विपक्ष के दवाब के चलते अखिलेश सरकार ने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी है। हालांकि जांच के लिये आवश्यक अवशेष उपलब्ध होने में शंका है क्यूकिं पुलिस की जानकारी में आनन-फानन में महिला के शव का अन्तिम संस्कार करा दिया गया था।
यू.पी. में कानून की हालत बंया करने वाली यह इकलोती तस्वीर नहीं है । पिछले छः माह में ही दुष्कर्म की घटनाओं की लम्बी सूची देखकर लगता है कि जैसे उत्तर प्रदेश में बलात्कार महिलाओं की नियति बन गयी है । इससे पहले बदायूं रेप केस में फांसी पर लटकायी गई बालिकाओं की कब्र बाढ़ के पानी में डूब गयीं । लड़कियों के घर वाले चीख-चीखकर दोषियों को सजा दिलाने की मांग कर रहे हैं । मीडिया के दवाब के चलते अखिलेश (मुलायम) सरकार ने सीबीआई जांच के लिये तो हामी भर दी लेकिन जांच सही दिशा में चल रही है इस पर पीडि़तों को सन्देह है। सीबीआई को इन बालिकाओं के शवों का दुबारा पोस्टमार्टम करवाना था । पहले हुये पोस्टमार्टम में रेप की आशंका व्यक्त की गयी थी । एम्स के डाक्टरों ने दुबारा पोस्टमार्टम करने का सुझाव दिया था । मीडिया कई दिनों से जोर-शोर से इस बात को बता रहा था कि अगले कुछ दिनों में लड़कियों की कब्र बाढ़ के पानी में डूब जायेंगी तब इनके शवों को नहीं निकाला जा सकेगा । लेकिन फिर भी न केवल मेडिकल जांच के लिये बनायी गई समिति ने लापरवाही बरती बल्कि जिम्मेदार पुलिस अफसर और जांच एजेन्सी भी एकदूसरे के ऊपर जिम्मेदारी डालते रहे । जैसे ही ये कब्र पानी में डूब गयीं तब जांच अधिकारियों के हवाले से बयान दे दिया गया कि जलस्तर घटने तक इनके शवों को पोस्टमार्टम के लिये नहीं निकाला जा सकता । उसके बाद खराब शवों का पोस्टमार्टम करना बेमानी होगा । उन बच्चियों के पेड़ों पर लटकते शवों से भले ही दुनियांभर के माँ-बाप के दिलों में सवेंदनायें जाग उठीं हों लेकिन अपराधियों के लिये मुलायम हुई प्रदेश सरकार को दिल से नहीं दिमाग से काम करना है । और दिमाग यही कहता है कि अपने बचाव के लिये सब हथियारों का प्रयोग जायज है । लचर जांच और गुजरते समय में सबूत नष्ट होने का इन्तजार किया जा रहा है । बहुत मुमकिन है कि शवों तक आने वाली गंगा की धारा से बच्चियों के हत्यारों पर लगने वाली कुछ आपराधिक धारायें कम हो जायें ।

प्रदेश सरकार को बच्चियों और महिलाओं की इज्जत की कितनी फिक्र है अब यह बताने की जरूरत नहीं रह गई है । राजधानी लखनऊ में सरकार की नाक के नीचे एक महिला का बेरहमी से बलात्कार किया जाता है । उसके नुचे हुये नग्न शव को बच्चों के स्कूल में नुमायश के लिये पटक कर अपराधी शान से निकल जाते हैं । सुबह के उजाले में तमाशबीनों की भीड़ उस मुर्दा युवती के शरीर को मोबाइल कैमरे की नजर से देखकर रोमांचित होती है । जिन्दा महिलाओं को भेडि़यों के भरोसे छोड़ने वाली जिम्मेेदार संजीदा पुलिस उस मृत महिला के शरीर को भी सम्मान नहीं दिला पाती । सिपाही हाथ में कपड़ा लिये खड़े रहते हैं और व्हाटस्अप पर नग्न महिला लाईव हो जाती है ।

ये कैसा कानून का राज है जिसके रखवाले बलात्कारियों के शिकार में भी अपना हिस्सा तलाशते हैं । ये कैसी पुलिस है जो मदद मांगने आये पीडि़त को इतना डराती है कि एक मजबूर बाप अपनी अस्मत लुटी बेटी से चुप रहने की भीख मांगता है । ये कैसा इन्साफ है जिसमें बेरहमी से कुचली गयी युवतियों को अपराधियों को सजा दिलानेे के लिये खुद को आग लगानी पड़ती है। ये कैसे समाजवाद के पहरेदार हैं जो केवल वोट और कुर्सी पाने के लिये, बच्चियों और महिलाओं के जिस्म नोंचने वाले कामांध युवकों को कड़ी सजा दिलाने की बजाय उनकी ‘भूल’ के लिये दया दिखाने की बात कहते हैं । ये कैसा हिन्दुस्तान है जहां दूसरी कौम से लड़ने के लिये फेसबुकी वीर नफरत भरी तलवारों का इन्तजाम करने का आव्हान करते हैं और खुद ही एक दूसरे की माँ-बहनों के शरीर पर अपनी वीरता दिखाते हैं । सनातन धर्म के ये कैसे पुजारी हैं जिनके घर नवरात्रों में तो बच्चियों को माँ दुर्गा और शारदा के रूप में पूजने का कौतुक होता है लेकिन जब घर का ही एक सदस्य मासूम बच्चियों के शरीर में अपना यौन सुख तलाशता है तो उसे परिवार के आंगन में पनाह मिल जाती है ।

जिस्म के भूखे ये भेडि़ये किसी दूसरे मुल्क से नहीं आते । सच्चाई यह है कि संस्कृति और संस्कार के नाम पर विश्व गुरू बनने का दम्भ भरने वाले हिन्दुस्तान के परिवार अपनी विरासत नहीं बचा पा रहे । छोटी बच्चियां मां-बाप से पहले समाज के वहशी ‘वर्णशंकरों’ की नजरों में बड़ी हो रही हैं । बंजर जमीन को भी अपनी माँ मानने वाले देश में बहन-बेटियों को जिन्दा लाश बनाकर छोड़ा जा रहा है । सत्ताधारियों ने इसके लिये ज्यादा आबादी और बड़े क्षेत्र को जिम्मेदार ठहराकर अपने ‘मुलायम सन्देश’ में ‘निगेटिव’ में भी ‘पोजीटिव’ देखने की नसीहत दी है । बावजूद इसके एक मजदूर परिवार सपा मुखिया की इस बात पर गर्व नहीं कर पाता कि दूसरे प्रदेशों में भी बलात्कार होते हैं। जुबानी भाषणों की बजाय अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो महिला आयोग को पिछले 6 माह में पूरे देश से महिलाओं के खिलाफ अपराध की 3,868 शिकायतों में सबसे अधिक 2,079 शिकायतें अकेले उत्तर प्रदेश से मिली हैं। इनमें 206 शिकायतें बलात्कार के प्रयास और 380 शिकायतें बलात्कार की मिली हैं । मतलब अपने उत्तम प्रदेश में प्रतिदिन ओसतन 2 महिलायें या बच्चियां अपनी अस्मत लुटवा रही हैं । ये आकड़ें सरकारी हैं जो जाने कितने जतन, पैरवी, जाम और न्यायालय के आदेश के बाद लिखे गये हैं। अगर कोई पढ़ना चाहे तो इनसे कई गुना ज्यादा ‘अनसुनी शिकायतें’ पिछड़े गांवों के गरीब, दलित परिवारों के मुखियाओं की आखों में साफ दिखायी दे जायेगीं । जहाँ दबंगों एवं पचायंतो के माध्यम से एैसी घटनाओं पर पर्दा डाल दिया जाता है ।

बावजूद इसके उत्तर प्रदेश की आम जनता अपने मालिकों की बात सर झुका कर मानने को तैयार है लेकिन उससे पहले सरकार बस इतना बता दे कि नर पिशाचों के हाथों अपनी अस्मत गंवाने वाली नन्ही बच्चियों, बहनों, मांओं और वृद्धाओं को इन ‘बलात्कारी भूलों’ को भूलने के लिये किस ‘गोली’ का सहारा लेना चाहिये । सरकार के कार्यों की निगरानी करने वाले राज्यपाल महोदय बजाय मल्हमी दो शब्द बोलने के कहते हैं कि ‘बलात्कार को भगवान भी नहीं रोक सकते’ । उन्होंने क्यूं नहीं सोचा कि उनके इस बयान से हजारों पीडि़त परिवारों की हिम्मत दम तोड़ देगी । कानून व्यवस्था को लेकर जब प्रदेश के जिम्मेदार अधिकारियों से सवाल पूछा जाता है तो उच्चाधिकारी उठकर चल देते हैं । बलात्कार पीड़ित महिलाओं की ओर से एक महिला पत्रकार मुख्यमंत्री से संजीदा प्रश्न पूछती है तो बजाय भरोषा दिलाने के साहब उससे ही पूछ लेते हैं कि ‘आप तो ठीक हैं’ । यकीनन, वासना से मिले जख्मों पर नमक छिड़कने के लिये सरकार और उसके अधिकारियों के गैरजिम्मेदार बयान ही काफी है । अफसोस है कि चुनाव से पहले ‘बाप-बेटों’ को कोस-कोसकर वोट बटोरने वाला 56 इंची सीना अब उत्तर प्रदेश में हो रहे ऐसे अत्याचारों पर मौन साधे है । ‘गुजराती शेर’ की दहाड़ अब माइक लगाने पर भी सुनाई नहीं देती । इन पर वोट न्यौछावर करने वालों का मानना है कि कुर्सी पर बैठकर सरकार की मजबूरियाँ दिखने लगती हैं ।

पार्टीदारों से अलहदा समाज के चिन्तक बनने वाले आधुनिक चाणक्य भी बलात्कार के लिये महिलाओं के पहनावे को दोषी मानकर वहशियों को ही मजबूर सिद्ध कर देते हैं । खाप पंचायतों से लेकर समाजसुधारक तक लड़कियों को परदे में रहने की ‘जबरन सलाह’ देते नजर आते हैं । निश्चित रूप से शालीन पहनावें की वकालत होनी चाहिये । लेकिन मुश्किल ये है कि 5 साल की छोटी बच्चियों को कैसे समझाया जाये कि वो पूरे कपड़े पहन ले क्यूकिं उनका शरीर किसी बूढ़े में उत्तेजना पैदा कर सकता है । सुनसान खण्डहरों में लहुलुहान मिलने वाली छोटी बच्चियां भी क्या किसी अगंप्रदर्शन की कीमत चुकाती हैं ? शायद नहीं । समस्या ये है कि समाज में वासना के नशे में चूर ‘मर्दों’ को लड़कियों के कपड़ों के आर-पार दिखने लगा है । पूरे देश में महिलाओं की लगभग यही स्थिति है लेकिन उ.प्र. में हालात ज्यादा खराब नजर आते हैं । यहाँ पैसे और सत्ता के बल पर जो चाहे वो लड़कियों-महिलाओं को घर में घुसकर नोच रहा है ।

कौन जिम्मेदार?
कानून के झूठे रखवाले, खाली दिमाग, टी.वी.-सिनेमा और इन्टरनेट समाज में फैल रही इस विषैली बेल की जड़ें जमाने का काम कर रहे हैं । सन्नी लियोन जैसी ब्लू फिल्मों की अभीनेत्री को टीवी और सिनेमा के जरिये बड़ी आसानी से भारतीय परिवारों में जगह मिल गयी । बच्चे से लेकर बूड़े तक ‘बैबी डॉल मैं सोने दी’ गाने पर सन्नी संग ठूमके लगा रहे हैं । हनी सिंह जैसा गायक मां-बहनों और खालिस देसी गालियों को गाकर ही युवाओं में लोकप्रिय हो गया । संस्कृति के पहरेदार खामोश हैं और मीडिया इस पर इसलिये सवाल नहीं उठाता कि आधुनिकता में सब जायज है । अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे इन्टरनेट पर कौन सी ‘धार्मिक’ फिल्में देख रहें हैं इसे देखने-रोकने की जहमत कोई नही उठाता है। जिस भारत देश में संस्कारों की पैरवी होती थी वहां नई पीढ़ी फिल्मों-नाटकों में अपने जीवन की प्रेरणा ढूडं रही है। टीवी पर विज्ञापन देखता किशोर यह देखकर रोमांचित हो जाता है कि ‘फलाने डियो’ को लगाने से लड़कियों की र्स्कट ऊपर उठ जाती है । सेंसर बोर्ड को तो जैसे केवल इन चलचित्रों का सबसे पहले मजा लेने के लिये बनाया गया है । विज्ञापन की दुनियां में महिलाओं को केवल भोग की वस्तु के रूप में परोसा जाता रहा है । सीमेन्ट के विज्ञापन में बिकनी पहने महिला का क्या काम है यह बताने वाला कोई नहीं है । इस बात पर भी अफसोस है कि महिलाओं की गरिमा को गिराने में कुछ मार्डन महिलाये और लड़कियां भी अपना योगदान दे रही हैं । शायद ये नहीं जानती कि इनकी अदाओं की कीमत दूर गांव में बसे किसी बहन-बेटी को चुकानी पड़ती है ।

1 COMMENT

  1. महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण दिन ब दिन घृणित होता जा रहा है || हम धीरे धीरे पतन की ओर जा रहे हैं |

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