प्रदेश में भाजपा आ रही चुनावी मोड में!
(लिमटी खरे)
2003 के बाद लगभग बीस सालों से (बीच में 2018 के बाद कुछ महीनों की कांग्रेस की सरकार को अगर छोड़ दिया जाए तो) प्रदेश की सत्ता पर भाजपा काबिज है। बीस साल का समय बहुत होता है किसी भी दल की सरकार के रहने के कारण। 2003 में जब कांग्रेस को पराजित कर भाजपा सत्ता में आई थी, उस समय कांग्रेस की गलत नीतियों विशेषकर प्रदेश की सड़कों और बिजली की किल्लत ने जनता को कांग्रेस के खिलाफ कर दिया था।
इसके बाद लगातार लगभग बीस सालों से कांग्रेस के संगठन की कार्यप्रणाली जिस तरह की रही है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस के द्वारा कमोबेश हर बार ही भाजपा को सत्ता को थाली में परोसरकर ही दिया है। 2018 में कमल नाथ के प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनने के बाद हालात कुछ हद तक बदले नजर आए।
2018 के विधान सभा चुनावों में भाजपा को काफी हद तक नुकसान झेलना पड़ा था। यह कमल नाथ की रणनीति ही मानी जा सकती है कि कांग्रेस के द्वारा भाजपा के चक्रव्यूह को भेदकर रख दिया था। इसके पहले भाजपा के खाते में 165 सीट हुआ करती थीं, जो 2018 में 109 के आंकड़े पर जा पहुंची थी। उधर, कांग्रेस को 56 सीटों का फायदा हुआ था, जिसके कारण कांग्रेस ने अपनी सरकार बना ली थी।
संयुक्त मध्य प्रदेश (एमपी और छत्तीसगढ़ मिलाकर) में 320 विधान सभा सीट हुआ करती थीं, जो एमपी और सीजी के बटवारे के बाद प्रदेश में 230 सीट बाकी रह गईं थीं। कांग्रेस की कमल नाथ के नेतृत्व वाली सरकार के अस्तित्व में आने के बाद राजा दिग्विजय सिंह और ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच चल रही अघोषित रार, ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्य सभा से न भेजने आदि के कथित कारणों के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके गुट के 22 विधायक भाजपा की शरण में चले गए और नाटकीय तरीके से कांग्रेस की सरकार गिर गई थी। वहीं लोकसभा चुनावों में प्रदेश की 29 सीटों में से कमल नाथ के पुत्र छिंदवाड़ा से विजयी हुए थे इसके अलावा प्रदेश की 28 सीटों पर भाजपा का परचम ही लहराया था।
शिवराज सिंह चौहान के द्वारा जिस तरह से सभी को साधे रखा गया है वह अपने आप में एक मिसाल ही माना जा सकता है, किन्तु नौकरशाहों पर सरकार की मजबूत पकड़ न होने के चलते सत्ता विरोधी लहर भी समय समय पर महसूस की जाती रही है। एंटी इंकंबेसी फेक्टर को हवा देकर शिवराज विरोधियों के द्वारा जब तक यह बात भी फिजा में तैराई जाती रही है कि शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा रहा है।
इन्हीं बातों के बीच 2023 के विधान सभा चुनावों के पहले प्रदेश के भाजपा संगठन और राज्य के मंत्रिमण्डल में बदलाव की बातें भी जमकर चल रही हैं। भाजपा के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो सत्ता विरोधी लहर को खत्म करने के लिए शिवराज सिंह चौहान को अब आक्रमक मुद्रा में आने और अफसरशाही की लगाम कसने की नसीहतें भी दी जाने लगी हैं।
भाजपा के एक पदाधिकारी ने पहचान उजागर न करने की शर्त पर समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया से चर्चा के दौरान कहा कि अब आर्थिक और सामाजिक तौर पर पार्श्व या हाशिए में रहने वाले समुदायों को मुख्य धारा में लाने के लिए चुनावी रणनीति को अंजाम देने पर भी विचार किया जा रहा है।
भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भले ही मध्य प्रदेश में सत्ता या संगठन में परिवर्तन के मामले में मौन साधे हुए हो, किन्तु गुजरात चुनावों के एक साल पहले वहां हुए बदलाव को आधार मानकर मध्य प्रदेश में भी अटकलों का बाजार गर्माता दिख रहा है। सत्ता विरोधी लहर को कम करने की गरज से आने वाले दिनों में कुछ बदलाव अगर दिखाई दें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
भाजपा 2023 में वापस कैसे सत्ता को हासिल कर पाएगी इस बारे में भी जमकर विचार विमर्श चल ही रहा है। उक्त नेता का कहना था कि रातापानी अभ्यरण में बीएल संतोष की अध्यक्षता में संपन्न हुई बैठक में भी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को भाजपा से कैसे जोड़ा जा सकता है इस बारे में विचार विमर्श किया गया था।
एक अन्य राष्ट्रीय पदाधिकारी ने ऑफ द रिकार्ड कहा कि दरअसल, केंद्र सरकार के द्वारा एससी, एसटी समुदाय के कल्याण के लिए अनेक योजनाएं लागू की गई हैं, किन्तु इन योजनाओं के प्रचार प्रसार के अभाव और अधिकारियों के द्वारा इन योजनाओं को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा देने से विपक्षी दलों के द्वारा यह नैरेटिव सेट कर अपना एजेंडा आगे बढ़ाया है कि भाजपा आरक्षण विरोधी है।
उक्त पदाधिकारी ने यह भी कहा कि मध्य प्रदेश में आदिवासी समुदाय की तादाद 21.2 प्रतिशत तो दलितों की तादाद 15.62 फीसदी और मुसलमानों का प्रतिशत 6.57 है। पार्टी इन वर्ग के लोगों को लुभाने के लिए अब रणनीति तैयार करती दिख रही है। वैसे प्रदेश में दलित आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के मामलों में भी कार्यवाहियां बहुत ही मंथर गति से चल रही हैं,