सामाजिक रूढ़िवाद से आज़ाद नहीं हुआ विधवा पुनर्विवाह

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निशा सहनी
मुजफ्फरपुर, बिहार

दांपत्य जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं. जिस तरह एक पहिया के नहीं रहने से गाड़ी नहीं चल सकती ठीक उसी प्रकार पति या पत्नी के अभाव में जीवन पहाड़ बन जाता है. पुरुष प्रधान समाज में पत्नी के गुजर जाने पर पुरुष की दूसरी शादी करने का प्रस्ताव आने लगते हैं. मगर पति के मर जाने के बाद आज भी समाज विधवा के पुनर्विवाह की इजाजत नहीं देना चाहता है. उसे ताउम्र बच्चों के लालन-पालन व सास-ससुर की देखभाल करना ही जीवन का उद्देश्य समझाया जाता है. जबकि जीवनसाथी के बिछड़ने का दुख स्त्री और पुरुष दोनों का एक जैसा होता है. संवेदनाएं पुरुष की तरफ और सारी जिम्मेदारियां व पाबंदियां स्त्री के हिस्से हो जाती हैं. समाज विधुर पुनर्विवाह के लिए गाजे-बाजे तक की व्यवस्था करता है, वहीं स्त्रियों के हिस्से वेदना, परिवार की देखभाल और कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का हवाला दिया जाता है.
प्रश्न यह उठता है कि आखिर समाज में विधवाओं को अशुभ क्यों माना जाता है? उसके लिए जीवन इतना कठिन क्यों हो जाता है? सदियों से विधवा को उसके पति की मृत्यु का जिम्मेदार माना जाता है. विधवा महिलाओं को शारीरिक व मानसिक हिंसा का भी सामना करना पड़ता है. उसपर सामाजिक परंपरा के नाम पर रहन-सहन, खान पान, उठना-बैठना, हंसना-बोलना यहां तक कि उसके कहीं आने-जाने पर भी पाबंदी लगा दी जाती है. रूढ़िवादी विचारों में जकड़े ग्रामीण इलाकों में विधवा के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है. सुबह-सुबह विधवा स्त्री का मुंह देखना अशुभ माना जाता है. उसके लिए श्रृंगार करना, सजना-संवरना, किसी पुरुष से बातचीत करना, शुभ कार्यों व अनुष्ठानों में शामिल होना आदि घोर पाप माना जाता है. इतना ही नहीं, कम उम्र में पति के गुजर जाने के बाद विधवा महिलाओं को यौन हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है. हालांकि शहरी परिवेश में लोगों की धारणा धीरे-धीरे बदली है. पढ़े-लिखे परिवार में इक्का-दुक्का पुनर्विवाह भी कराया जा रहा है. इसका व्यापक असर टीवी सीरियल, फिल्मों व सोशल मीडिया पर आये दिन विधवा पुनर्विवाह की सकारात्मक खबरों से हुआ है. लेकिन देश का अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र आज भी 

विधवा पुनर्विवाह पर अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर नहीं निकला है.बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 25 किमी दूर कुढ़नी प्रखंड का छाजन गांव इसका एक उदाहरण है. पूर्वी और पश्चिमी, दो भागों में बंटे इस गांव की कुल आबादी करीब बारह हजार है. पूर्वी छाजन जहां अनुसूचित जाति (मल्लाह और मुसहर) बहुल है, वहीं पश्चिमी छाजन पिछड़ा और अति पिछड़ा बहुल गांव है. यहां उच्च वर्गों की संख्या सीमित है. दोनों ही गांव में 

विधवा महिलाओं की जिंदगी चारदीवारी में कैद रहती है. घर से बाहर निकलने या आवश्यकता वश किसी पराये लोगों से बात करने पर पूरा गांव चारित्रिक लांछन लगा कर उसे बदनाम करने का प्रयास करता है. इस संबंध में गांव की एक 35 वर्षीय महिला सविता देवी (बदला हुआ नाम) बताती है कि “मेरी शादी 23 वर्ष की उम्र हुई थी. पति शराब का आदि था. शादी के कुछ साल बाद ही शराब के अत्यधिक सेवन के कारण पति की मौत हो गई. लेकिन समाज उसकी मौत का कारण मुझे ठहराने लगा और मुझे कुलटा, कुलक्षणी, अभागिन आदि कहा जाने लगा. लोगों ने कहा कि यह पापिन है जिसके कारण पति की मौत हुई है.” दरअसल पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं का दर्जा उसके पति से होता है. ऐसे में विधवाओं को हमेशा कठिन भाग्य का पात्र माना जाता है.
इसी गांव की 49 वर्षीय एक अन्य महिला कविता (नाम परिवर्तित) कहती है कि “मेरी शादी 15 साल की आयु में हो गई थी. शादी के 8 साल बाद ही मेरे पति की बीमारी के कारण मौत हो गई. पति के मौत के बाद मेरे ऊपर दुखों का पहाड़ तोड़ा गया. समाज में मुझे हेय दृष्टि से देखा जाने लगा. पति की मौत का कारण बता कर मुझे घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया. घर से लेकर समाज तक किसी भी शादी या उत्सव में भाग लेने पर मुझे पाबंदी लगा दी गई. पूरी जिंदगी मैंने अरमानों का गला घोट कर जीया है. मैं आज तक समझ नहीं सकी कि मेरे पति की मृत्यु जब बीमारी से हुई तो इसके लिए मैं कहां से जिम्मेदार हो गई? मुझे क्यों अभागन माना गया?” वहीं 45 वर्षीय संजू देवी कहती हैं कि “मेरा विवाह 19 वर्ष की आयु में हुआ था. शादी के 15 साल बाद अत्यधिक शराब पीने के कारण मेरे पति की मृत्यु हो गई. आज मैं मजदूरी करके अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही हूं. लेकिन मेरी किसी प्रकार की मदद की जगह समाज पति के मौत के लिए मुझे ही जिम्मेदार ठहराता है.


2011 की जनगणना क अनुसार देश में लगभग साढ़े पांच करोड़ से अधिक महिलाएं विधवा की ज़िंदगी व्यतीत कर रही हैं. इसमें 58 प्रतिशत महिलाओं की उम्र 60 वर्ष से अधिक है, जबकि 32 प्रतिशत 40-59 आयु वर्ग की और 9 प्रतिशत 20 से 39 आयु वर्ग की विधवा महिलाएं हैं. स

बसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम के बावजूद 2011 की जनगणना में देश भर में लगभग 1.94 लाख बाल विधवाओं (10-19 वर्ष) की संख्या भी दर्ज की गई है. इनमें ग्रामीण क्षेत्रों की संख्या अधिक है. जिन्हें कई प्रकार की रूढ़िवादी विचारधारा के कारण बंदिशों वाली ज़िंदगी व्यतीत करनी पड़ रही है. वास्तव में, समाज का दोहरा चरित्र महिलाओं को वर्षों से प्रताड़ित और शोषित करता रहा है. समाज और परंपरा के नाम पर महिलाओं की दुर्दशा होती रही है.

पहले बाल विवाह फिर कम उम्र में मां बनना और फिर पति की मौत से सामाजिक बंदिशों व कुत्सित परंपराओं में जकड़कर जीवन की आशा, आकांक्षा, स्वतंत्रता, समानता से महरूम रहना यही नारी की नियति बन जाती है. आजादी से कई साल पहले समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह

 कानून को लागू करवा कर इस दिशा में पहल तो की, लेकिन इसके बावजूद समाज रूढ़ियों में जकड़ा रहा. शिक्षा और जागरूकता के कारण शहरी क्षेत्रों में विधवाओं के जीवन में परिवर्तन तो आया लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह बुराई अपनी जड़ें जमाए हुई है.

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