गुरुकुल को यदि स्कूल बनाते हैं तो आप बेईमानी करते हैं, उसका दुर्भाग्य करते हैं : डा. धर्मवीर”

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गुरूकुल होता है आर्ष पाठविधि के होने से अन्यथा आप धोखाधड़ी करते हैं। गुरुकुल को यदि स्कूल बनाते हैं तो आप बेईमानी करते हैं, उसका दुर्भाग्य करते हैं : डा. धर्मवीर

मनमोहन कुमार आर्य

श्रीमद्दयानन्द आर्ष गुरुकुल, पौन्धा-देहरादून के दशम् वार्षिकोत्सव (जून 2010) के दूसरे दिन सायंकालीन सत्र में गुरुकुल सम्मलेन का आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन का संचालन गुरुकुल के ही एक ब्रह्मचारी रवीन्द्र आर्य जी ने किया था। डा. रवीन्द्र आर्य जी वर्तमान में संस्कृत व्याकरण एवं साहित्य के उच्च  कोटि के विद्वान हैं और हरिद्वार के एक महाविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। इस गुरुकुल सम्मेलन में सभी प्रस्तुतियां गुरुकुल के ब्रह्मचारियों की ही थीं। इस सम्मेलन के अध्यक्ष आर्यजगत के सुप्रसिद्ध विद्वान एवं परोपकारिणी सभा के प्राण डा. धर्मवीर जी थे। आप स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी के गुरुकुल झज्जर में सहपाठी भी रहे। हमें डा. धर्मवीर जी के गुरुकुल पौंधा देहरादून, गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली तथा गुरुकुल मंझावली आदि के उत्सवों में दर्शन करने सहित उनके विचारों को सुनने व उनके ब्रह्मत्व में होने वाले वेद पारायण यज्ञों में उपस्थित होने का अवसर भी मिला। हमने उन्हें आर्यसमाज धामावाला देहरादून व परोपकारिणी सभा के ऋषि मेले में भी सुना और देहरादून के एक विवाह संस्कार के पूरे कार्यक्रम में उनके साथ रहे थे। एक बार हम उनके साथ अपने देहरादून स्थित निवास के समीप 6 दर्शनों के उच्च कोटि के विद्वान पं. उदयवीर शास्त्री जी की सुपुत्री श्रीमती आभा सिंह से मिलने उनके निवास पर भी गये थे।  उपर्युक्त गुरुकुल सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में डा. धर्मवीर जी ने क्या कहा था? वह इस समय हमारे समाने हैं। कुछ देर पहले हम अपना पुराना अभिलेख देख रहे थे तो यह पत्रावली सम्मुख आ गई। हमारी अनेक लेखों पर दृष्टि गई और इस लेख पर आकर रुक गई। मन में विचार आया कि हरिद्वार में 6-8 जुलाई, 2018 को एक गुरुकुल सम्मेलन हो रहा है। अतः इस अवसर पर इसे प्रस्तुत करने से शायद किसी को कुछ लाभ हो सके। हम गुरुकुल पौंधा के इस सम्मेलन में उपस्थित थे और यह विवरण हमने ही नोट किया था। सम्भवतः यह जुलाई, 2010 की गुरुकुल की मासिक पत्रिका आर्ष ज्योति में भी प्रकाशित हुआ था।

 

डा. धर्मवीर जी

आप जो चाहते हैं वो हो रहा है। विगत समय में आपने यहां भवन बनवाये। अपने बच्चों को यहां भेजा और आप इस उत्सव में यहां आयें हैं। आज के गुरुकुल सम्मेलन का यह कार्यक्रम अच्छा लगा। गुरुकुल के बच्चों की सभी प्रस्तुतियां त्रुटि रहित थीं। मैंने देखा है कि अन्य गुरुकुलों में उच्चारण पर ध्यान नहीं दिया जाता है। हरियाणा तथा बिहार में संस्कृत का उच्चारण हरयाणवी व बिहारी लहजे में होता है। मैं इस गुरुकुल के आचार्य धनंजय को बधाई देता हूं। उन्होंने उच्चारण के मापदण्डों को अपने गुरुकुल में स्थापित किया है। संस्कृत का व्यक्ति यदि शुद्ध उच्चारण नहीं करता तो वह इस भाषा के साथ बलात्कार करता है। शुद्ध उच्चारण ही वस्तुतः संस्कृत है। परमात्मा ने यदि वाणी का आविष्कार न किया होता तो वही स्थिति होती जो संसार में सूर्य के न होने पर होती। आशा है कि आप भाषा की प्रामाणिकता, योग्यता तथा स्पष्टता का ध्यान रखेंगे। बच्चों को प्रचार के लिए गुरुकुल के वातावरण से बाहर भेजने से डर है कि उनमें बाह्यवृत्ति की वृद्धि होगी। इससे अध्ययन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। बच्चे सदा पुरुस्कृत हों यह जरुरी नहीं है। मैं अपनी सफलता का रहस्य इस बात को मानता हूं कि मैं कभी किसी असफलता से डरा नहीं। हां, मैंने पराजय को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। जो हम जानते हैं उसे कहने में संकोच नहीं होना चाहिये और न ही डर होना चाहिये।पब्लिक स्कूलों की सभी बातें खराब नहीं होतीं। उनकी कुछ बातें अच्छी भी हैं। वहां बाडी लैंग्वेज अर्थात् भाव भंगिमा पर ध्यान दिया जाता है जो मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के ज्येष्ठ पुत्र पं. इन्द्रजी ने एक स्थान पर लिखा है कि गुरुकुल का हर तीसरा ब्रह्मचारी एक सफल व्यक्ति है। हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार यशपाल ने सिंहावलोकन नाम की एक पुस्तक लिखी है। उनके जीवन की पहली कविता गुरुकुल की हस्तलिखित पत्रिका में छपी थी। गुरुकुल होता है आर्ष पाठविधि के होने से अन्यथा आप धोखाधड़ी करते हैं। गुरुकुल को यदि आप स्कूल बनाते है ंतो आप बेईमानी करते हैं, उसका दुर्भाग्य करते हैं। अंग्रेजी पढ़ने से यदि काम चलता तो आस्ट्रेलिया में भारतीय लोग अपमानित न होते। आप बड़े तब होते हैं जब आपके अन्दर अपना कुछ होता है।इस गुरुकुल को हमने अपने विचारों के अनुरुप पाया है। स्वामी ओमानन्द जी ने अपने अन्तिम समय में एक बात कही थी कि आर्ष पाठ विधि को मत छोड़ना। मैं अनुभव करता हूं कि दीपक की भांति यह गुरूकुल देश से अन्धकार को दूर करने को चुनौती देगा। हम विज्ञान, सत्य, तकनीकी, संस्कार व धर्म के सबसे बड़े समर्थक हैं। (इन्हीं शब्दों से डा. धर्मवीर जी ने अपना सम्बोधन समाप्त किया।)

गुरुकुल सम्मेलन का शेष विवरणः

सम्मेलन के आरम्भ में गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने मंगलाचरण गीत का समवेत स्वरों में मधुर पाठ किया। इसके अनन्तर स्वागत गीत की प्रस्तुति भी गुरुकुल के ही ब्रह्मचारियों ने समवेत स्वरों में की। ब्र. कुलदीप कुमार ने प्रवचन शैली में संस्कृत में व्याख्यान दिया जिसमें उन्होंने अनेक बातों के साथ संस्कृत भाषा के महत्व पर प्रकाश डाला। ब्र. गौरव ने कविता प्रस्तुत की जिसमें देश के शहीदों को स्मरण कर उनके बलिदान को नमन किया गया। ब्रह्मचारी प्रदीप ने देश के कल्याण के उपायों पर ओजस्वी वाणी में वक्तव्य प्रस्तुत किया। वक्तव्य में देश की दुर्दशा का चित्रण था और उसके सुधार के उपाय भी। गुरुकुल के स्नातक ब्र. वेद प्रकाश, जो सम्प्रति देवरिया में अध्यापन कराते हैं, एक भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे पहचान पाया मैं तुमको इसके पश्चात ब्र. अश्विनी कुमार ने विद्या का महत्व प्रस्तुत करने वाले कुछ श्लोक व उनके अर्थ प्रस्तुत किये। तदन्तर ब्र. मनोज कुमार ने कर्तव्य-बोध पर सारगर्भित एवं प्रभावोत्पादक विचार व्यक्त किये। सारा कार्यक्रम इतना मधुर व शान्तिपूर्वक चल रहा था कि हर श्रोता भाव विभोर होकर आनन्द का अनुभव कर रहा था। लगभग 7 वर्ष के ब्रह्मचारी यशदेव ने अपनी इस छोटी आयु में सामवेद के पूर्वार्चिक भाग के लगभग 650 मन्त्र कण्ठस्थ किये हुए हैं। उन्होंने एक कविता प्रस्तुत की। पाठक अनुमान कर सकते हैं कि इस बालक से कविता सुनकर श्रोताओं को कैसा अनुभव हुआ होगा। हमें भी यह सम्मेलन बहुत उपयोगी एवं आनन्द से पूर्ण लगा।

 

बालक यशदेव की कविता के बाद कार्यक्रम का संचालन कर रहे ब्र. रवीन्द्र आर्य ने कहा कि शास्त्र के अनुसार आचार्य उसे कहते हैं जो ब्रह्मचारी की बुद्धि का शोधन करता है। अन्यत्र कहा गया है कि आचार की शिक्षा व मंत्रों के अर्थों का अवगाहन कराने वाले को भी आचार्य कहते हैं। ब्र. अतुल ने अपनी प्रस्तुति में एक भाषण प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने कहा कि मानवता की रक्षा करना मनुष्य का पहला कर्तव्य है। धर्म की आड़ में अन्याय हो रहा है, इससे समाज को मुक्ति दिलानी है। बहादुर वही है जो अकेले चलने को तैयार हो जैसे ऋषि दयानन्द जी अकेले चले थे। कार्यक्रम की अन्तिम प्रस्तुति ब्र. सौरभ कुमार की एक आरती की शैली में गाया गीत था जिसके बोल थे-

 

ओंकार प्रभु नाम जपो, ओंकार प्रभु नाम जपो।

मन में ध्यान लगाकर, सुबह और शाम जपो।।

 

 

 

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