व्‍यंग/मुआ समय के फेर

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इधर कम्बख्त चुनाव का दौर खत्म हुआ, उधर मेरे शहर में जूतों की दुकानों को ताले लगने की नौबत आ धमकी। कल तक जिन जूतों की दुकानों पर जूते खरीदने के लिए रेलमपेल हुई रहती थी, निम्न वर्ग के लोग बाग जूते खरीदने के लिए एक दूसरे के कपड़े फाड़ने से भी गुरेज नहीं करते थे आज उन्हीं जूतों की दुकानों के बाहर जूतों की सेल लगी हुई है। शटरों पर मकड़ी के जाले सजे हुए हैं।मित्रों! एक दिन वह भी था कि इधर चुनाव प्रचार शुरू हुआ, उधर एक देशभक्त ने लोकतंत्र पर जूता फेंका कि शुरू हो गया जूते फेंकने का दौर। देखते ही देखते मेरे शहर में जूतों की मांग इतनी बढ़ गई कि मैंने जिस शख्स के पांव में आज तक जूते तो जूते, कबाड़ी के चप्पल भी नहीं देखे थे वह भी राशन की दुकान के आगे घंटों खडे होना छोड़ नंगे पांव, भूखे पेट जूतों की दुकान के आगे शान से आ जमा था, उस वक्त पता नहीं क्यों उसे रोटी से अधिक जरूरी जूते लगने लगे थे। अपने मुहल्ले के जो लोग ब्यूटी पार्लर चलाए थे उन्होंने भी बाजार की मांग को भांप अपने अपने ब्यूटी पार्लरों को जूतों की दुकानों में तब्दील कर दिया था। और बंदे देखते ही देखते मालदार हो लिए, लाखों खट गए।

उन दिनों बाजार में जिधर देखो जूते ही जूते दिखते थे। कपड़े की दुकानों पर कपड़ों के साथ शान से सजे जूते। मालाओं की दुकानों पर मालाओं का मुंह सीना सगर्व चौड़ा कर चिढ़ाते ठहाके लगाते जूते। फलों के राजा आम के सिर पर शान से बैठे जूते। फूलों के राजा गुलाब कीबगल में शान से शेखी बघारते जूते। तब इन जूतों की हिम्मत इतनी खुल गई थी कि किसी नेता को देख तो ठहाका लगाते ही थे, नेता के किराए के वर्कर को देख भी पगलाने लगते थे। आप की तो आप जानो, इन दिनों मेरे जूतों ने तो मेरी नाक में दम करके रखा था। पहनने लगता तो गालियां देने लगते। कहते, किसी रैली में चल। कहते, किसी जनसभा में चल। हमारे हाथों में खारिश लगी है। बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाता, समझाता, उनके आगे हाथ जोड़ गिड़गिड़ाता, ‘यार सरकारी कर्मचारी हूं। क्यों मरवाने पर तुले हो। रिटायर हो जाऊंगा तो जो कहोगे करूंगा।’

‘सच!!’ जूते हंसने लगते तो हंसते जाते।

‘धंधे की कसम, झूठ बोलूं तो मुंह में कीड़े पड़ जाएं।’

पर लाख लाख धन्यवाद भगवान का की चुनाव का दौर खत्म हो गया और जूते को अपनी औकात का पता चल गया। यहां लोकतंत्र है भाई साहब! सभी को देर सबेर अपनी औकात का पता चल ही जाता है।

शाम को बाजार सड़ी सब्जी लेने निकला तो ब्यूटी पार्लर की जगह फिर ब्यूटी पार्लर देख मुहांसों वाले समय से पहले बूढ़े हुए चेहरे पर रौनक लौट आई। देखा, कल तक कोने में जूते के डर से दुबका फलों का राजा फिर रौब में आ गया है। कागजी फूलों की मालाएं हवा में शान से लहरा रही हैं, बिना जूतों के किसी डर के। फूलों के राजा को लोकतंत्र में हंसते देखा तो राजा महाराजाओं का राज याद आ गया। चौक पर हर दूसरे ठेले पर सब्जियों के बदले जूतों की सेल लगी देखी तो चौंका! यार! ये जूतों की सेल तो अपने यहां हर साल दशहरे से दीपावली तक शुरू होती थी, इन दिनों अपने शहर में कुछ मुफ्त के भाव बिके या न जूते मुफ्त के भाव जरूर मिलते हैं। पर अबके… कहीं ऐसा तो नहीं कि अब जनता को जूते मुफ्त के भाव सरकार की ओर से बाजार में आ गए हों।

‘साहब जूते ले जाओ। मुफ्त के भाव!’ कह उसने जूते के मुंह पर जूता मारते कहा तो बेचारे जूते का रोना निकल आया।

‘पर यार, कल तक तो यही जूते सिरपर चढ़ बिक रहे थे। तब हर जूता था कि हाथ में आने का नाम ही नहीं ले रहा था। बस सिर पर ही बैठने की ही मांग करता था। सिर पर बैठ कम्बख्त के मारे ने इतने दिनों तक इतना नंगे पांव घुमाया कि..।’ गुस्सा तो मुझे इतना आया कि जूते को खोल जूते के सिर पर चार जूते मारूं। पर यह सोच सहम गया कि इस देश में चुनाव और मौत का कोई पता नहीं, पता नहीं कम्बख्त कब जैसे टपक पड़ें।

‘साहब वे दिन अब लद गए। चुनाव का सीजन खत्म हो गया। अब तो एक के साथ चार फ्री।’

‘पर इतने जूतों का मैं करूंगा क्या?’

‘देश में और कुछ हो या न हो चुनाव तो चले ही रहते हैं साहब।’

‘तो??’

‘तो क्या?? बाद में लाइन में खड़े नहीं होना पड़ेगा। लोकतंत्र पर जूते फेंकने का दौर तो शुरू हो ही गया है।’

और समय का फायदा उठा मैंने भी चार जोड़ी जूते ले लिए। चार जोड़ी के साथ सोलह जोड़े फ्री। चुनाव के वक्त जरूरत पड़ी तो दुगने रेट में निकाल दूंगा। ईमान बेचकर तो आज तक गुजारा हुआ नहीं। पर जूते चुनाव से पहले ही घर में चल पड़े तो?? इकनोमिक्स वाले कहते हैं कि लाभ जोखिम का पुरस्कार होता है। अपनी इकनोमिक्स ठीक रहे, इसके लिए हजारों जोखिम उठाए हैं मैंने, घर की माली हालत सुधर जाए तो एक रिस्क और सही। वैसे भी अगर गम्भीरता से सोचा जाए तो यह जिंदगी भी तो एक रिस्क ही है।

-अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक,सोलन-173212 हि.प्र.
E mail a_gautamindia@rediffmail.com

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