अमेरिकी आत्मघाती वीजा बंदिशें, भारत के नये अवसर

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– ललित गर्ग –

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया भर के पेशेवरों, खासकर भारतीयों के सपनों पर एक नई काली छाया डाल दी है, उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया है एवं एक बड़ा संकट खड़ा दिया है। 21 सितंबर की रात 12 बजे के बाद अमेरिका में प्रवेश करने वालों को एच1बी वीज़ा प्राप्त करने के लिए लगभग एक लाख डॉलर यानी करीब 88 लाख रुपये सालाना शुल्क देना होगा। यह निर्णय केवल एक प्रशासनिक आदेश नहीं, बल्कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा, प्रतिभा-प्रवास और अमेरिका-भारत संबंधों पर गहरा प्रभाव डालने वाला कदम है। अमेरिका के इस कदम के बाद भारत को अपनी आत्म-निर्भरता, स्वदेशी भावना एवं देश की प्रतिभाओं का देश में ही उपयोग को बल देना होगा। भारत अब दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर होने के साथ अवसरों की भूमि बन रहा है। इसलिये अमेरिका के निर्णय से ज्यादा परेशान होने की बजाय इसको सकारात्मक दृष्टि से लेने की जरूरत है।
निश्चित ही अमेरिका दशकों से अवसरों की भूमि माना जाता रहा है। यहां आने का सपना रखने वालों के लिए एच1बी वीज़ा एक सुनहरा टिकट एवं उन्नत जीवन का आधार रहा है। हर साल हजारों भारतीय इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ इस वीज़ा के माध्यम से अमेरिका जाकर अपने सपनों को साकार करते रहे हैं। सिलिकॉन वैली की चमक और वहां भारतीय प्रतिभाओं का वर्चस्व इसका जीता-जागता प्रमाण है। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम और फेसबुक जैसी दिग्गज कंपनियों में उच्च तकनीकी पदों पर भारतीय मूल के लोगों की उपस्थिति सर्वाधिक है। भारतीय आईटी पेशेवरों के बिना अमेरिकी तकनीकी जगत की कल्पना करना कठिन है। एच-1 बी वीजा की फीस में अप्रत्याशित वृद्धि का फैसला भारतीय आइटी कंपनियों के साथ अमेरिकी हितों को भी चोट पहुंचाने वाला है। इनमें आइटी सेक्टर से इतर क्षेत्र की कंपनियां भी हैं। इसका प्रमाण यह है कि उनके फैसले की आलोचना अनेक अमेरिकी ही कर रहे हैं। यदि ट्रंप यह सोच रहे हैं कि एच-1बी वीजा धारकों की फीस एक हजार डालर से एक लाख डालर सालाना करने से भारतीय और अमेरिकी कंपनियां अमेरिका के युवाओं को नौकरी देने के लिए बाध्य हो जाएंगी तो यह उनकी भूल है, क्योंकि इन कंपनियों को जैसे और जितने सक्षम युवा पेशेवर चाहिए, वे अमेरिका में हैं ही नहीं। अमेरिकी राष्ट्रपति यह भी भूल रहे हैं कि अमेरिका के आर्थिक विकास में अप्रवासियों विशेषतः भारतीय प्रतिभाओं का सर्वाधिक योगदान है और यह केवल पेशेवर लोगों का ही नहीं, बल्कि कामगारों का भी है।
भले ही ट्रंप प्रशासन का यह आदेश उनकी “अमेरिका फर्स्ट” नीति की अगली कड़ी है। उनका तर्क है कि विदेशी पेशेवर सस्ते श्रम के रूप में अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां छीन रहे हैं। शुल्क इतना अधिक करके वे चाहते हैं कि केवल वही विदेशी पेशेवर अमेरिका आएं, जो न केवल उच्च योग्यता रखते हों बल्कि भारी शुल्क अदा करने की क्षमता भी रखते हों। लेकिन यह कदम अमेरिका के लिये ही आर्थिक दृष्टि से आत्मघाती साबित हो सकता है, क्योंकि अमेरिकी कंपनियों को उच्च कौशल वाले पेशेवरों की भारी ज़रूरत है और भारतीय आईटी पेशेवरों की कमी वहां सीधे तौर पर नवाचार और प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करेगी। ट्रंप के फैसले को आपदा नहीं, बल्कि अवसर के रूप में देखना चाहिए।
पहले भारतीय प्रतिभा अमेरिका की ओर बहती थी, अब यह प्रवाह कनाडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर की ओर मुड़ सकता है। छात्र और युवा पेशेवर पहले से ही अमेरिकी वीज़ा नीतियों को लेकर असमंजस में रहते थे। अब यह आदेश उनके आत्मविश्वास और योजनाओं को और झकझोर देगा। हालांकि एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि कई युवा भारत में ही स्टार्टअप्स, शोध और नई तकनीक के क्षेत्रों में काम करने की ओर आकर्षित होंगे। भारत पर इस नीति का असर केवल युवाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक सामाजिक-आर्थिक असर डाल सकता है। भारतीय आईटी कंपनियां जैसे इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो आदि अमेरिका में बड़े पैमाने पर कार्यरत हैं। एच1बी वीज़ा पर निर्भरता ज्यादा होने के कारण उनका खर्च बढ़ेगा और प्रतिस्पर्धा कमजोर होगी। भारतीय पेशेवर हर साल अरबों डॉलर भारत भेजते हैं, वीज़ा बाधाओं से यह प्रवाह घटेगा। हजारों भारतीय छात्र अमेरिका में उच्च शिक्षा लेकर वहीं काम करने का सपना देखते हैं। अब शुल्क की बाधा उनके लिए अमेरिका को कम आकर्षक बनाएगी। साथ ही भारत में ही वैश्विक स्तर के शोध और नवाचार केंद्र विकसित करने की संभावना भी बढ़ेगी।
अमेरिका और भारत के संबंध बीते दो दशकों में आर्थिक, रणनीतिक और तकनीकी सहयोग की नई ऊँचाइयों पर पहुंचे हैं। अमेरिका ने भारत को रणनीतिक साझेदार माना है। रक्षा, व्यापार और तकनीक में गहरे संबंध बने हैं और भारतीय प्रवासी अमेरिकी राजनीति और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन ट्रंप के निर्णय से यह संदेश गया है कि अमेरिका भारत को साझेदार तो मानता है, लेकिन जब घरेलू राजनीति का दबाव आता है तो साझेदारी पीछे छूट जाती है। भारत-अमेरिका संबंधों का आधार लोगों से लोगों का संपर्क रहा है। यदि भारतीय पेशेवर अमेरिका में कम होते हैं तो यह आधार कमजोर होगा। इन जटिल से जटिलतर होती स्थितियों में भारतीय कंपनियों को देश में ही अपना कारोबार बढ़ाने के जतन करने चाहिए, क्योंकि आने वाले समय में ट्रंप कुछ और ऐसे कदम भारतीय हितों को आहत करने वाले उठा सकते हैं। उन्होंने भले ही टैरिफ के मामले में लचीला रवैया अपनाते हुए भारत से शीघ्र व्यापार समझौता होने की संभावना जताई हो, लेकिन वे अब भी भारतीय हितों के विपरीत काम करते दिख रहे हैं। वे केवल यही दबाव नहीं बना रहे कि भारत रूस से तेल खरीदना बंद करे, बल्कि उन्होंने ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारत के लिए मुसीबत खड़ी करने का काम किया है। ट्रंप अपने फैसलों को इस रूप में रेखांकित कर रहे हैं कि उनसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पंख लग जाएंगे, लेकिन आठ माह का उनका कार्यकाल उनकी नाकामी ही बयान कर रहा है।
चौंकाने वाले फैसले लेना भले ही ट्रंप की आदत हो, लेकिन सेवा क्षेत्र में पहली बार अपनी संरक्षणवादी नीति के दर्शन करा, वह भूल रहे हैं कि अमेरिका को बनाने में अप्रवासियों की बड़ी भूमिका रही है। सिलिकॉन वैली के करीब एक-तिहाई टेक-कर्मचारी भारतीय मूल के हैं। फॉर्च्यून 500 की लगभग डेढ़ दर्जन कंपनियों में शीर्ष पर भारतीय बैठे हैं, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के इंजन भी हैं। 2024 में 72 यूनिकॉर्न स्टार्टअप भारतीय मूल के लोगों के थे, जिनका कुल मूल्य करीब 195 अरब डॉलर आंका गया था। इन कंपनियों में अमेरिकी भी काम करते हैं। अमेरिकी आबादी में बमुश्किल डेढ़ फीसदी होने के बावजूद भारतीय पांच से छह फीसदी कर अदा करते हैं। नैसकॉम का यह कहना उचित ही है कि एच-1बी वीजा जैसे फैसलों का नकारात्मक असर अमेरिका में नवाचार के माहौल और रोजगार आधारित अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
दुनिया के अन्य देशों की नीतियों से तुलना की जाए तो कनाडा प्रवासी पेशेवरों और छात्रों को आकर्षित करने के लिए वीज़ा और स्थायी निवास की नीतियों को सरल बना रहा है। जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया तकनीकी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए रेड कार्पेट बिछा रहे हैं, जबकि अमेरिका उल्टा रास्ता चुन रहा है जो दीर्घकाल में उसे वैश्विक प्रतिभा की कमी की ओर धकेल सकता है। भारत के लिए यह अवसर है कि वह प्रतिभाओं के पलायन को रोकने के लिए अपनी नीतियों और बुनियादी ढांचे को सशक्त बनाए। शिक्षा, शोध और स्टार्टअप संस्कृति को बढ़ावा देकर भारत अमेरिका के विकल्प के रूप में उभर सकता है। अमेरिका के लिए यह कदम उसके उस आदर्श को धूमिल करेगा जिसके अनुसार वह इमिग्रेशन की भूमि कहलाता है और उसकी वैश्विक नेतृत्व क्षमता को कमजोर करेगा। रवींद्रनाथ टैगोर की ये पंक्तियाँ यहां सार्थक लगती हैं-“स्वतंत्रता वह है, जहां ज्ञान निर्भय होता है और दुनिया सीमाओं से विभाजित नहीं होती।” अमेरिका की यह दीवार प्रतिभा की उड़ान को थाम नहीं पाएगी। भारतीय युवाओं को अब अपने ही देश को अवसरों की भूमि में बदलना होगा।

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