चिंताजनक है पर्यावरणीय असंतुलन

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डॉ. वेदप्रकाश


     विगत दिनों परमार्थ निकेतन ऋषिकेश जाना हुआ। वहां मां गंगा आरती के समय परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ने प्रतिदिन की भांति अपने उद्बोधन में कहा कि- आज नदियां और विभिन्न जल स्रोत प्रदूषण के शिकार हैं। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और इनके साथ-साथ मानसिक प्रदूषण भी एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। यह भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रदूषण जहां एक ओर प्रकृति-पर्यावरण, संतति और संस्कृति के लिए खतरा है वहीं दूसरी ओर मनुष्य जीवन के लिए भी घातक है।
      आज जन-जन के बीच पर्यावरण को विश्लेषित करने एवं चर्चा का मुद्दा बनाने की आवश्यकता है। अनेक लोग पर्यावरण का अर्थ केवल पेड़-पौधे समझते हैं जबकि पर्यावरण तो पेड़-पौधे, झरने, नदी, पर्वत, धरती, आकाश एवं वायुमंडल में भिन्न-भिन्न प्रकार की गैसों से बनी एक ऐसी संकल्पना है जो प्रत्येक जीवधारी के लिए जीवन को संभव बनाती है अथवा उसके जीवन को अनुकूलन प्रदान करती है। ध्यान रहे पर्यावरण में उपर्युक्त वर्णित प्रत्येक घटक का अपना विशिष्ट महत्व है। इन घटकों में संतुलन का बिगड़ना ही पर्यावरणीय असंतुलन है, जो चिंताजनक है।
     भारतीय ज्ञान परंपरा में अग्नि, जल, वायु ,धरती ,आकाश, सूर्य, चंद्रमा और वनस्पतियों आदि की भिन्न-भिन्न रूपों में उपासना का विधान करते हुए उनके महत्व का विश्लेषण है। हमारे वेद, उपनिषद एवं ज्ञान परंपरा हमें प्रकृति के साथ जीने की ऐसी व्यापक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, जिससे पर्यावरण में संतुलन बना रह सके। वहां अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, वायु और वनस्पति आदि सभी शांत और संतुलन में रहें, उसके लिए प्रार्थना मिलती है – द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति पृथिवी…। वहां तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा… अर्थात् त्यागपूर्ण और आवश्यकतानुसार उपयोग की बात कही गई है। वहां वट, तुलसी, रुद्राक्ष, कदंब, पीपल, अशोक, दूर्वा, आम आदि में देवत्व की स्थापना करते हुए उनके संरक्षण- संवर्धन की बात कही गई है। कुएं, नदी और पर्वतों की पूजा हेतु पर्वों का विधान है तो गाय, बैल, हाथी, चूहे और चीटियों के पूजन का भी महत्व बताया गया है लेकिन दूसरे श्रेष्ठ हैं, स्वयं के प्रति हीनता बोध और आधुनिक बनने की होड़ में हम अपनी श्रेष्ठ परंपराओं से दूर हटने लगे। औद्योगिकरण और अधिकाधिक उत्पादन की इच्छा में मनुष्य की भोग और लालच की वृत्ति भी बढ़ती चली गई। परिणाम स्वरूप प्रकृति और पर्यावरणीय संरचनाओं का अधिकाधिक दोहन शुरू हुआ, जिसने पर्यावरणीय असंतुलन को जन्म दिया।

हाल ही में क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट में यह सामने आया है कि हमारे शहरों में फैले वायु प्रदूषण का असर सिर्फ गांव-शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि अब वह हिमालय की ऊंचाई तक भी जा पहुंचा है। हिमालय क्षेत्र में ब्लैक कार्बन का स्तर लगातार बढ़ा है। रिपोर्ट बताती है कि हिमालय के बर्फीले शिखर पर बर्फ की सतह का औसत तापमान पिछले दो दशकों में चार डिग्री सेल्सियस से भी अधिक बढ़ा है। इसके प्रभाव स्वरूप यहां बर्फ तेजी से पिघल रही है। हाल ही की वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन, क्लाइमेट सेंट्रल और द रेड क्रास के विश्लेषण के अनुसार अत्यधिक गर्मी के दिनों की संख्या बढ़ने की वजह से एक बड़ी आबादी को बीमारी, मौत और फसलों के नुकसान के साथ जीना पड़ रहा है। इसी प्रकार दिल्ली स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वॉटर द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में सामने आया है कि भारत के लगभग 57 प्रतिशत जिले जिनमें देश की लगभग 76 प्रतिशत आबादी रहती है, उनमें इस समय अधिक से बहुत अधिक गर्मी का जोखिम है। क्या यह चिंताजनक नहीं है?

नगरों व महानगरों में जनसंख्या का दबाव लगातार बढ़ रहा है। सीवरेज और  भिन्न भिन्न प्रकार के कूड़े के शोधन हेतु पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। जगह जगह कूड़े के पहाड़ बनते जा रहे हैं। जल स्रोत प्लास्टिक और अशोधित सीवेज, औद्योगिक कचरे एवं रसायनों के कारण भयंकर प्रदूषण के गिरफ्त में हैं तो वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन एवं अन्य गैसों की मात्रा भी लगातार बढ़ रही है। सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पाद न केवल मानवता के लिए अपितु समूचे प्रकृति- पर्यावरण के लिए एक बड़े खतरे के रूप में उभर रहे हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश के 25 राज्यों में 13000 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है। मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई जारी है। बढ़ती जनसंख्या, आवास सुविधाओं और विकास योजनाओं के नाम पर खेती की जमीन और जंगल घटते जा रहे हैं। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में कहीं न कहीं वनों की आग फैली ही रहती है, जिससे वन क्षेत्र तो नष्ट होता ही है ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ रही है। आंकड़ों में तो प्रतिवर्ष लाखों पेड़ लगाए जाते हैं लेकिन उनमें से कितने जीवित रहते हैं, यह भी एक बड़ा प्रश्न है?

पर्यावरणीय असंतुलन के कारण कुदरत का कहर लगातार बढ़ रहा है। आंधी, तूफान, बे मौसम और अधिक बारिश, बाढ़ सूखा और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं प्रतिवर्ष आर्थिक नुकसान के साथ-साथ हजारों लोगों की मौत का कारण भी बन रही हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापन होने से विश्व की अनेक भाषाएं व संस्कृति लुप्त हो रही हैं। हिमालय क्षेत्र के विभिन्न ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिनमें से कई तो बेहद संवेदनशील स्थिति में पहुंच चुके हैं। विभिन्न अध्ययनों से लगातार यह सामने आ रहा है कि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान बढ़ने से कैंसर, हृदय, फेफड़े, मस्तिष्क, गुर्दे, श्वास एवं त्वचा रोगों में बढ़ोतरी हो रही है और यह मौत और विकलांगता का कारण भी बन रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन के कारण अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी नवजात शिशुओं के लिए भी बड़ा खतरा बनती जा रही है। दिसंबर 2023 के द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बाहरी वायु प्रदूषण भारत में प्रतिवर्ष 21 लाख 80 हजार लोगों की जिंदगी छीन लेता है, क्या ये सब बातें पर्यावरणीय असंतुलन की दृष्टि से चिंताजनक नहीं हैं?

 सकारात्मक यह है कि भारत सरकार के विभिन्न प्रयासों से कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है। पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा व सीएनजी जैसे महत्वपूर्ण विकल्प तेजी से बढ़ाए जा रहे हैं। प्रतिवर्ष पौधारोपण और वनीकरण के माध्यम से हरित क्षेत्र भी बढ़ाने के प्रयास जारी हैं। जलवायु परिवर्तन और अधिक सर्दी व गर्मी बढ़ने से बड़ा खतरा गेहूं, चावल एवं अन्य खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ जल की कमी का भी है। भूजल प्रदूषित है, वह घट भी रहा है। नदियां भी प्रदूषण की गिरफ्त में हैं तो वे निरंतर सूख भी रही हैं। इन सब विषयों पर राष्ट्रीय और वैश्विक फलक पर व्यापक चिंतन और योजनाओं की आवश्यकता है।

आज गांधीजी की चेतावनी को भी हमें ध्यान में रखना होगा। उन्होंने कहा था- ऐसा समय आएगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किए को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया? निश्चित रूप से आज भारत सहित समूचे विश्व को विकास और उत्पादन के नए मानक बनाने की आवश्यकता है। ऐसे मानक जो प्रकृति-पर्यावरण के अनुकूल हों। यदि पर्यावरणीय असंतुलन के मुद्दे पर भारत सहित समूचा विश्व यथाशीघ्र गंभीरता से विचार नहीं करेगा तो प्रकृति- पर्यावरण के साथ-साथ मनुष्य और समस्त जीवों का अस्तित्व बचना असंभव है। अभी भी समय है स्वयं भी जागें और दूसरों को भी जगाएं। प्रकृति-पर्यावरण को प्रदूषित न करें। नीड कल्चर से ग्रीड कल्चर की ओर न जाएं

। क्योंकि प्रकृति-पर्यावरण संतुलित और सुरक्षित है तो संस्कृति और संतति सुरक्षित हैं, जीवन सुरक्षित है।


डॉ.वेदप्रकाश

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