सोशल मीडिया पर आयोग की नजर

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new media wingप्रमोद भार्गव

निर्वाचन आयोग ने अब अंतर्जाल,मसलन इंटरनेट पर वर्चस्व बनाए रखने वाले समाचार माघ्यमों पर नजर रखने की कवायद शुरू कर दी है। जाहिर है,आदर्श आचार संहिता के दायरे में फेसबुक,टिवटर,यू-टयूब और एप्स ;विर्चुयल गेम्स वल्र्ड ब्लाग व ब्लागर भी आएगें। जग जाहिर है कि सोशल बेवसाइटों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दल और उम्मीदवार भी साइटों पर अपने खाते खोलकर बढ़-चढ़कर भगीदारी करने में लगे है। यही नहीं टीवी समाचार चैनल और एफएम रेडियो दलीय आधार पर जनमत सर्वेक्षण कर उनके प्रसारण करने में लगे हैं। ये स्थितियां दल या उम्मीदवार विशेष के पक्ष में जीत का अप्रत्यक्ष माहौल बनाने का काम करते है। लिहाजा मतदाता निष्पक्ष बना रहे,इसके लिए जरूरी था कि सोशल मीडिया पर पंबादी लगे। इस लिहाज से आयोग का निर्णय स्वागतयोग्य है। हालांकि चंद लोग आयोग द्वारा की जा रही निगरानी की इस कारवार्इ को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश मानकर चल रहे हैं। ऐसे लोगों के संज्ञान में यह बात आनी चाहिए कि समाचार के ये मयावी माध्यम व्यक्तियों के चरित्र हनन के साथ,बेहूदी टिप्पणियां और अफवाह फैलाने का काम भी करते है,इसीलिए इन्हें आदर्श आचार संहिता के दायरे में लेना कोर्इ अनहोनी या अंसगति बात नहीं है। गोया,आयोग की इस पहल को प्रासंगिक ही माना जाना चाहिए।

आयोग ने यह जरूरी पहल जनप्रतिनिधित्व कानून और आदर्श आचार संहिता के तहत की है। पेडन्यूज के बाद विधुत समाचार माघ्यामों पर अंकुश की यह निर्वाचन आयोग की दूसरी बड़ी पहल है। अब दल व उम्मीदवारों को सोशल मीडिया पर प्रसारित प्रचार के खर्चे का ब्यौरा नियमानुसार आयोग को देना होगा। चुनाव में प्रत्यक्ष भागीदारी करने वाले जो दल व प्रत्याशी इस आचार संहिता का उल्लंघन करेंगे,उसे संहिता की विंसगति के रूप में संज्ञान में लिया जाएगा। इसलिए आयोग के नए निर्देशों के तहत उम्मीदवार जब नामांकन दाखिल करेगें,तब फार्म-26 के तहत दिए जाने वाले शपथ पत्र में अपने फोन नंबर,र्इ-मेल आर्इडी के साथ सोशल मीडिया से जुड़े खातों की भी पूरी जानकारी देनी होगी। इसके आलावा प्रत्याशियों को इन माघ्यमों के जरीए किए जाने वाले प्रचार का खर्च भी आयोग को देना होगा। कंपनियों को किए गए या किए जाने वाले भुगतान के साथ उन लोगों के भी नाम होंगे,जो इन खातों को संचालित करेंगे। यह खर्च प्रत्याशी के खाते में शामिल होगा।

हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में यहां यह सवाल जरूर खड़े होते हैं कि कोर्इ व्यक्ति नितांत स्वेच्छा से दल या उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार अभियान में शिरकत करता है,तो क्या उसके इस श्रमदान की कीमत विज्ञापन-दर के हिसाब से लगाया जाना उचित है? क्योंकि तमाम सामान्य लोग निष्पक्ष स्वप्रेरणा से भी चुनाव में अपनी साम्थ्र्य के अनुसार भागीदारी करते हैं। और यही वह मतदाता होता है,जो वर्तमान सरकारों को बदलता है।

इस संदर्भ में एक अन्य सवाल यह भी उठता है कि यदि कोर्इ व्यक्ति या प्रवासी भारतीय दूसरे देशो में रहते हुए, सोशल मीडिया से जुड़े खातों को विदेशी धरती से ही संचलित करता है,तो वह आचार संहिता की अवज्ञा के दायरे में कैसे आएगा? उसे नियंत्रित कैसे किया जाएगा?यह एक बड़ी चुनौती है,जिसे काबू में लेना मुश्किल होगा। आजकल दूसरे देशो से इन माघ्यमों का इस्तेमाल खूब हो रहा है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने का सबसे ज्यादा समर्थन प्रवासी भारतीयों ने ही किया है। इस परिप्रेक्ष्य में एक सवाल तकनीकी व्यावहारिकता या उसकी अपनी तरह की बाघ्यताओं का भी उठता है। क्योंकि इंटरनेट के संजाल में छदम या फर्जी नामों से खाते खोलना बेहद आसान है। व्यकिगत चिटठे भी सरलता से बनाए जा सकते हैं। फिर हमारे यहां तो देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नामों से खाते खोले जाना व र्इ-मेल आर्इडी बनाना सहज है,तो फिर हजारों की तादाद में खड़े होने वाले प्रत्याशियों के खाते खोलने में तो कोर्इ कठिनार्इ ही पेष नहीं आनी? कुछ साल पहले गुजरात की एक अदालत से बतौर प्रयोग एक पत्रकार ने  तत्कालीन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नामों से भी वारंट जारी करा लिए थे। जबकि अदालती काम में चंद लोगों की भागीदारी होती है,और संवैधानिक गारिमा व देश की संप्रभुता से जुडे ये नाम देशव्यापी होते हैं। तय है,हमारे यहां प्रशासनिक सुस्ती और लापरवाही इतनी है कि आप किसी भी किस्म की हरकत को अंजाम दे सकते हैं। फिर आचार संहिता के दायरें में तो रूपये,शराब और अन्य उपहारों का बांटना  भी आता है। बावजूद क्या इनका बाटां जाना रूक क्या?

जबाव है नहीं?लेकिन अंकुश जरूर लगा है,इस तथ्य से नहीं मुकरा जा सकता है। तय है, इन व्याव्हारिक कठिनार्इयों पर पाबंदी के कानूनी विकल्प तलाशे जाना जरूरी  है,न कि तात्कालिक स्थितियों में इनसे निपटने के कोर्इ कायदे-कानून न होने के बहाने इन्हें नजरअंदाज कर देना?

हालांकि निर्वाचन आयोग द्वारा सोशल मीडिया को आदर्श संहिता के दायरे में लाने पर कार्मिक,लोक-शिकायत कानून एंव न्यायिक मामलों से संबधित संसदीय स्थायी समिति के अघ्यक्ष षांताराम नाइक ने आयोग के इस फैसले पर आपत्ति दर्ज करार्इ है। उनका मानना है कि ऐसे उपायों से अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता बाधित होगी। और फिलहाल सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का देश में कोर्इ कानून भी नहीं है?लेकिन आयोग ने इंटरनेट माध्यामों को मर्यादित बने रहने के जो दिशा-निर्देश दिए हैं,वे मौजूदा कानून और आचार संहिता के परिप्रेक्ष्य में ही हैं। इन्हीं कानूनों को आधार बनाकर राजनीतिक दलों के आचरण और समाचार माध्यामों में अपनाए जाने वाली पेडन्यूज पर अंकुश लगाया गया है। इन कार्रवाइयों के कारगर नतीजे भी देखने में आए है। इसलिए यदि इस दायरे का विस्तार सोशल मीडिया तक किया गया है, तो इस पर आपत्ति क्यों? यहाेगौरतलब है कि कथ्य पर निगरानी जिन कानूनों के तहत प्रिंट और इलेक्टोनिक माघ्यामों पर अब तक की जा रही है,तो फिर सोशल मीडिया को छूट कैसे दी जा सकती है?वस्तुत; चुनाव सुधार की दिशा में आयोग द्वारा  सोशल मीडिया पर निगरानी की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

 

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  1. प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद भार्गव की ओर से आदर्श आचार संहिता को लेकर निर्वाचन आयोग द्वारा अंतराजाल पर नियंत्रण का स्वागत करते इस सरकारी घोषणा में मतदाता के निष्पक्ष बने रहने की सामग्री जुटाई है| सत्तारूढ़ राजनितिक दलों को भीड़ से डर लगता है इस लिए बीते दिनों मुस्लमान की टोपी पर रज़ा मुराद की टिपण्णी को बड़ी बेशर्मी से उछाल बिघटनकारी और विनाशकारी मोदी-विरोधी हिंदी मीडिया ने मतदाताओं को व्यर्थ के वाद-विवाद में उलझाने का क्रूर प्रयास किया है| मैं प्रमोद भार्गव से विकिपीडिया पर “Journalism” को पढ़ उसमें भारतीय पत्रकारिता को ढूंढ़ने को कहूंगा| यदि पत्रकारिता पर कोई सार्थक काम करने की ललक हो तो विकीपीडिया पर ही “पत्रकारिता” के हिंदी संस्करण का संपादन करने का कष्ट करें|

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