महान आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि

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dhanvantriप्रमोद भार्गव
समुद्र-मंथन के अंत में यात्रा के पुरोधाओं को मिले महान आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि वह भी हाथों में अमृत-कलश लिए हुए अभिवादन की विनम्र मुद्रा में। इन अलौकिक पुरुष का पुराण-सम्मत अलंकरणों की व्याख्या करने से पहले, इनके कौशल को हम व्यावहारिक रूप में समझते हैं। दरअसल समुद्र-मंथन की इस वैश्विक घटना की जानकारी विश्व के उन सभी दूरांचलों में फैल गई थी, जिनकी अपनी सत्ता थी। उस समय धन्वन्तरि चिकित्सा क्षेत्र के बड़े अनुसंधित्सु और वैद्य के रूप में विख्यात हो चुके थे। जिस तरह से समुद्र-मंथन के यात्रियों को विभिन्न देशों में पहुंचने पर कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा, लक्ष्मी, वारूणी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख मिले, उसी प्रकार इस अल्पज्ञात क्षेत्र में धन्वन्तरि मिले। हालांकि धन्वन्तरि जिस ओषधीय वन-प्रांतर में रहते थे, उस भू-खंड में उरू, पुरू आदि मूल भारतीय पहले ही पहुंच गए थे। धन्वन्तरि उन्हीं के वंशज थे। धन्वन्तरि और इस क्षेत्र के मुखियाओं को जब देव व असुरों जैसे पराक्रमियों के आने की सूचना मिली, तो वे समझ गए कि इस समूह से किसी भी प्रकार का संघर्ष उचित नहीं है। अपितु इनसे बेहतर संबंध बनाने की दृष्टि से समन्वय बनाना जरूरी है। बुद्धिमत्तापूर्ण इस पहल से धन्वन्तरि ने भी समझा होगा कि उनके अब तक के जो भी औषधीय अनुसंधान हैं, उन्हें वैश्विक मान्यता तो मिलेगी ही, विश्व प्रसिद्ध देव व असुरों की चिकित्सा करने का भी अवसर मिलेगा।
श्रीमद् भगवत और वृहतः ब्रह्मानंद उपनिषद  के अनुसार समुद्र मंथन की प्रक्रिया आगे बढ़ने पर, प्रकट होने वाले 14 रत्नों में से एक भगवान धन्वन्तरि थे। उनका शरीर बादलों की कांति की तरह चमक रहा था। उनके नेत्र कमल के समान थे। उनकी गर्दन कम्बू जैसी थी। उनका वक्ष विशाल था। उनके हाथ लंबे थे, जिनकी पहुंच जानु तक थी। वे चिर युवा की तरह थे। शरीर पर पीतांबर धारण किए हुए थे। उनके कानों में मगर जैसी विलक्षण आकृति के कुण्डल थे। चतुर्भजधारी धन्वन्तरि के एक हाथ में आयुर्वेद शास्त्र, एक में वनस्पति एक में शंख और एक हाथ में जीवनदायी पेय अमृत था। वे कई तरह के रत्न, आभूषण और विभिन्न जड़ी-बूटियों से गुंफित वनमाला धारण किए हुए थे। उनके इस दिव्य रूप से सभी देव-दानव आश्चर्यचकित हुए। वैसे धन्वन्तरि स्वयं इंद्र के समान पराक्रमी व यज्ञांश भोजी थे। इसीलिए सनातन धर्म में यह मान्यता चली आ रही है कि भगवान विष्णु ने जीव-जगत के त्राण के लिए जो 24 अवतार लिए, उनमें धन्वन्तरि बारहवें अंशावतार हैं। इसीलिए उन्हें साक्षात श्री हरिविष्णु का रूप माना जाता है। धन्वन्तरि के हाथ में अमृत-कलश देखते ही देव व दानव उसका पान करने के लिए लालायित व चंचल हो उठे।
धरा पर प्राणियों की सृष्टि से पहले ही प्रकृति यानी ब्रह्मा ने घटक-द्रव्य युक्त वनस्पति जगत की सृष्टि कर दी थी, ताकि रोगग्रस्त होने पर उपचार के लिए मनुष्य उनका प्रयोग कर सके। धन्वन्तरि और उनकी पीढ़ियों ने ऐसी अनेक वनस्पतियों की खोज व उनका रोगी मनुष्य पर प्रयोग किए। इन प्रयोगों के निष्कर्श श्लोकों में ढालने का उल्लेखनीय काम भी किया, जिससे इस खोजी विरासत का लोप न हो। इन्हीं श्लोकों का संग्रह ‘आयुर्वेद‘ है। एक लाख श्लोकों की इस संहिता को ‘ब्रह्म संहिता‘ भी कहा जाता है। इन संहिताओं में सौ-सौ श्लोक वाले एक हजार अध्याय हैं। बाद में इनका वर्गीकरण भी किया गया। इसका आधार अल्प-आयु तथा अल्प-बुद्धि को बनाया गया। वनस्पतियों के इस कोष और उपचार विधियों का संकलन ‘अथर्ववेद‘ भी है। अथर्ववेद के इसी सारभूत संपूर्ण आयुर्वेद का ज्ञान धन्वन्तरि ने पहले दक्ष प्रजापति को दिया और फिर अश्वीनी कुमारों को आयुर्वेद की शिक्षा में पारगंत किया। अश्वीनी कुमारों ने ही वैद्यों के ज्ञान वृद्धि की दृष्टि से ‘अश्वीनी कुमार संहिता‘ की रचना की।
मत्स्यावतार के समय भगवान विष्णु ने वेदों का उद्धार किया था। तभी विष्णु ने वहीं वेदों के साथ अथर्ववेद के उपांग के रूप में आयुर्वेद को भी प्राप्त करने का उल्लेख किया है। भूलोक में प्राणियों को रोगों से पीड़ित व मृत्यु को प्राप्त होते देखकर भगवान विष्णु द्रवित हुए और विशुद्ध नामक मुनि के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। वे भूलोक में चर की भांति छिपकर आए थे, इसलिए चरक नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुए। इन्हीं चरक ने ऋषि-मुनियों द्वारा रचित संहिताओं को परिमार्जित करके ‘चरक-संहिता‘ की रचना की थी। यह ग्रन्थ आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
एक अन्य पुराण-कथा में उल्लेख है कि एक बार वयुयान से भूलोक पर दृष्टिपात करने पर इंद्र ने मनुष्यों को बड़ी संख्या में रोगग्रस्त पाया। उन्होंने भगवान धन्वन्तरि को आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान देने के लिए ज्ञान परंपरा की परिपाटी चलाने का अनुरोध किया। इसके बाद धन्वन्तरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में जन्म लिया और काशीराज कहलाए। अपने पिता विश्वामित्र की आज्ञा पाकर महर्षि सुश्रुत अपने साथ अन्यान्य एक सौ ऋषि-पुत्रों को लेकर काशी पहुंचे और वहां सुश्रुत ने ऋषि-पुत्रों के साथ धन्वन्तरि से आयुर्वेद की शिक्षा ली। तत्पश्चात इस समूह ने लोक कल्याणार्थ अपनी-अपनी संहिताओं एवं ग्रंथों की रचना की और उनके माध्यम से समस्त भूमंडल के लोगों को निरोगी बनाने की उपचार पद्धतियां शुरू कीं। इसी कालखंड में सद्वैद्य वाग्भट्ट ने भी धन्वन्तरि से ज्ञान प्राप्त किया और ‘अश्टांग हृदय संहिता‘ की रचना की। सुश्रुत संहिता तथा अश्टांग हृदय संहिता आयुर्वेद के प्रमाणिक ग्रंथों के रूप में आदि काल से आज तक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। आयुर्वेद व अन्य उपचार संहिताओं में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व पंच-तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण प्राणी स्वेदज, जरायुज, अण्डज और उदिभ्ज रूपों में विभक्त हैं। इन शास्त्रों में केवल मनुष्य ही नहीं पशुओं, पक्षियों और वृक्षों के उपचार की विधियां भी उल्लेखित हैं। साफ है कि भारत में चिकित्सा विज्ञान का इतिहास वैदिक काल में ही चरम पर पहुंच गया था। क्योंकि वनस्पतियों के ओषध रूप में उपयोग किए जाने का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में उपलब्ध है। ऋग्वेद की रचना ईसा से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुई मानी जाती है।
ऋग्वेद के पश्चात अथर्ववेद लिखा गया, जिसमें भेशजों की उपयोगिताओं के वर्णन हैं। भेशजों के सुनिश्चित गुणों और उपयोगों का उल्लेख कुछ अधिक विस्तार से आयुर्वेद में हुआ है। यही आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है। इसे उपवेद भी माना गया है। इसके आठ आध्याय हैं, जिनमें आर्युविज्ञान और चिकित्सा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। इसका रचनाकाल पाश्चात्य विद्वानों ने ईसा से ढाई से तीन हजार साल पुराना माना है। इसके आठ अध्याय हैं, इसलिए इसे ‘अष्टांग आयुर्वेद‘ भी कहा गया है। आयुर्वेद की रचना के बाद पुराणों में सुश्रुत और चरक ऋषियों और उनके द्वारा रचित संहिताओं का उल्लेख है। ईसा से करीब डेढ़ हजार साल पहले लिखी गई सुश्रुत संहिता में षल्य-विज्ञान का विस्तृत विवरण है। इसी काल में चरक संहिता का प्रादुर्भाव माना जाता है। इसमें चिकित्सा विज्ञान विस्तृत रूप में सामने आया है। इसमें रेचक, वामनकारक द्रव्यों और उनके गुणों का विलक्षण वर्णन है। चरक ने केवल एकल ओषधियों को ही 45 वर्गों में विभाजित किया है। इसमें ओषधियों की मात्रा और सेवन विधियों का भी तार्किक वर्णन है। इनका आज की प्रचलित चिकित्सा पद्धातियों से साम्य भी है। यहां तक की कुछ विधियों में इंजेक्षन द्वारा शरीर में दवा पहुंचाने का भी उल्लेख है। यह वह समय था जब भारतीय चिकित्सा विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था और भारतीय चिकित्सकों की भेशज तथा विष विज्ञान संबंधी प्रणालियां अन्य देशों की तुलना में अपेक्षाकृत समुन्नत थीं। भूमि गर्भ में समाएं अनेक खनिज पदार्थों के गुणों का ऋषि परंपरा ने गहन अध्यन किया था और रोग तथा भेशजों की मदद से उनके उपचार की दिशा में वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान किए। सुश्रुत और चरक की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब गणना होने लगी है। यही कारण है कि ऐलोपैथी की दवा निर्माता कंपनियां भी सुश्रुत और चरक के अपने कैलेंडरों में षल्य क्रिया करते हुए चित्र छापने लगे हैं। इस विचरण से पता चलता है कि धन्वन्तरि द्वारा आविश्क्रित आयुर्वेद की ज्ञान परंपरा वैदिक युग के पूर्व से लेकर भारत में विदेशी आक्रांताओं के आने से पहले तक विकसित होती रही है।
इतनी उत्कृष्ट चिकित्सा पद्धति होने के पश्चात भी इस पद्धति का पतन क्यों हुआ ? हमारे यहां संकट तब पैदा हुआ, जब तांत्रिकों, सिद्धों और पाखंडियों ने इनमें कर्मकांड से जीवन की समृद्धि का घालमेल शुरू कर दिया। इसके तत्काल बाद एक और बड़ा संकट तब उत्पन्न हुआ जब भारत पर यूनानियों, षकों, हूणों और मुसलमानों के हमलों का सिलसिला शुरू हो गया। जो कुछ षेश था, उसे नेस्तनाबूद करने का काम अंग्रेजों ने किया। इस संक्रमण काल में आर्युविज्ञान की ज्योति न केवल धुधलीं हुई, बल्कि नष्टप्रायः हो गई। नए शोध और मौलिक ग्रंथों का सृजन थम गया। इन आक्रमणों के कारण जो आरजकता, हिंसा और अषांति फैली, उसके चलते अनेक आयुर्वेदिक ग्र्रंथ छिन्न- भिन्न व लुप्त हो गए। आर्युविज्ञान के जो केंद्र और शाखाएं थीं, वे पंडे और पुजारियों के हवाले हो गईं, नतीजतन भेशज और जड़ी-बुटियों के स्थान पर तंत्र-मंत्र के प्रयोग होने लग गए। यही वह कालखंड था, जब बौद्ध धर्म ने भी पतनशीलता की राह पकड़ ली। इसके साथ ही जो शल्य क्रिया व चिकित्सा से जुड़ा विज्ञान था, उसमें अनुशीलन तो छोड़िए, वह यथास्थिति में भी नहीं रह पाया।
इसके बाद जो रही-सही ज्ञान परंपराएं थीं, उन पर बड़े ही सुनियोजित ढंग से पानी फेरने का काम व्यापार के बहाने भारत आए अंग्रेजों ने पूरी कर दी। डाॅ धर्मपाल की पुस्तक ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नोलाॅजी‘ में लिखा है कि 1731 में बंगाल में डाॅ ओलिवर काउल्ट नियुक्त थे। काउल्ट ने लिखा है कि ‘भारत में रोगियों को टीका देने का चलन था। बंगाल के वैद्य एक बड़ी पैनी व नुकीली सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीका की जरूरत पड़ने वाले रोगी के शरीर में कई बार चुभो देते थे। इस उपचार पद्धति को संपन्न करने के बाद वे उबले चावल की लेई सी बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे। इसके तीसरे या चौथे दिन रोगी को बुखार आता था। इसलिए वे रोगी को यथा संभव सबसे ठंडी जगह रखते थे और उसे बार-बार ठंडे पानी से नहलाते थे, जिससे शरीर का ताप नियंत्रित रहे। डाॅ काउल्ट ने लिखा है कि टीका लगाने की विधि मेरे भारत आने के भी ड़ेढ़ सौ साल पहले से प्रचलन में थी। यह काम ज्यादातर ब्राह्मण करते थे और साल के निश्चित महीनों वे इसे अपना उत्तरदायित्व मानते हुए घर-घर जाकर रोगी ढूंढते थे। डाॅ ओलिवर लिखते हैं कि इस विकित्सा प्रणाली का अध्ययन व अनुभव के बाद मैं इस विधि की गुणवत्ता व श्रेष्ठता का प्रशंसक हो गया। मैंने कहा भी कि जो लोग उपचार की इस विधि को नहीं अपना रहे हैं, तो वे उन रोगियों के साथ अन्याय कर रहे हैं, जिनकी जान बचाई जा सकती है।‘ लेकिन जब अंग्रजों ने भारत में ऐलोपैथी चिकित्सा थोपने की शुरूआत की तो शड्यंत्रपूर्वक एक-एक कर सभी प्रणालियों को नष्ट करने का जैसे अभियान ही चला दिया था। अब एक बार फिर से जरूर ऐसा लग रहा है कि भारतवासियों में इन प्राचीन पद्धतियों के प्रति गवेशणा की चेतना व चिंता प्रगट हो रही है।

 

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