भारत के इतिहास के गौरव : छावा संभाजी अध्याय – १

संभाजी के पिता छत्रपति शिवाजी

मैथिलीशरण गुप्त जी भारत के स्वर्णिम अतीत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं :-

उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना ।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानो रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानो झुक गया॥”

भारत के जिन वीर इतिहास नायकों के साथ अन्याय करते हुए उनके चरित्र चित्रण के साथ इतिहासकारों ने छल किया है उनमें संभाजी महाराज के पिता छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम सर्वोपरि है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने जीवन काल में हिंदवी स्वराज्य के लिए कार्य किया । उनके हिंदवी स्वराज्य का अर्थ था – संपूर्ण भारतवर्ष पर भगवा का राज्य स्थापित करना । स्पष्ट है कि छत्रपति शिवाजी महाराज अपने इस अभियान के माध्यम से संपूर्ण भारतवर्ष से मुगलिया शासन को उखाड़ देना चाहते थे। भारतवर्ष के किसी व्यक्ति के द्वारा लिया गया यह संकल्प समकालीन इतिहास की एक चमत्कारिक घटना है। क्योंकि शिवाजी जैसा एक छोटे कद का और छोटे पद का व्यक्ति कुछ ऐसा संकल्प ले रहा था जो उन परिस्थितियों में पूर्ण होना सर्वथा असंभव दिखाई देता था। परंतु यदि शिवाजी इस संकल्प को नहीं लेते तो समझ लीजिए कि शिवाजी ही नहीं होते। अतः मान लेना चाहिए कि शिवाजी को छत्रपति शिवाजी बनाना उनके इसी संकल्प में अंतर्निहित था। आज संपूर्ण राष्ट्र यदि शिवाजी महाराज के समक्ष नतमस्तक होकर उनका अभिनंदन करता है तो वह केवल उनके इसी संकल्प के कारण करता है कि उन्होंने सर्वथा असंभव को संभव करके दिखा दिया था। हमने फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट के बारे में सुना है कि वह कहा करता था कि असंभव शब्द मूर्खों की डायरी में लिखा होता है । परंतु एक समय आया था – जब अहंकारी नेपोलियन बोनापार्ट का अहंकार टूट गया था और वह समझ गया था कि असंभव शब्द उसके अपने शब्दकोश में भी कहीं दिखाई देता है। वाटरलू के पश्चात उसके जीवन में कई बड़े परिवर्तन हुए थे। उन परिवर्तनों ने उसका अहंकार तोड़ दिया था। उसके पश्चात उसे पता चल गया था कि मृत्यु मांगना तो संभव है, परन्तु मांगने पर मृत्यु आ ही जाएगी, यह सर्वथा संभव है।
इधर हम अपने छत्रपति शिवाजी महाराज को देखते हैं जिन्होंने मिट्टी में से स्वराज्य ( साम्राज्य नहीं, इस पुस्तक में जहां कहीं भी उनके लिए या उनके वंशजों के लिए साम्राज्य शब्द का प्रयोग किया जाए, उसे स्वराज्य के संदर्भ में ही ग्रहण करने का कष्ट करें। क्योंकि साम्राज्य दूसरों की भावनाओं को मिटाकर या उनके साथ खिलवाड़ करके स्थापित किए जाते हैं। जबकि स्वराज्य जनभावनाओं का सम्मान करते हुए स्थापित किए जाते हैं। ) खड़ा किया और उस विशाल स्वराज्य को वे अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप कर गए। उनके इस स्वराज्य अभियान को विदेशी इतिहास लेखकों और उनके चाटुकार भारतीय लेखकों ने भी उसी दृष्टिकोण से देखा, जिस दृष्टिकोण से तत्कालीन मुगल सत्ता देखने की अभ्यासी हो चुकी थी। अपने इतिहासनायकों को शत्रु के दृष्टिकोण से देखना किसी भी देश के लिए संभव नहीं है, यद्यपि यह भारत में संभव है। यहां देशभक्ति को उपेक्षित किया जाता है और दूसरों के तलवे चाटने को महिमा मंडित किया जाता है। यही कारण है कि मुगल काल में हमारे जितने भर भी देशभक्त मुगल सरकार से लड़कर देश को स्वाधीन करने के लिए काम करते रहे , उन सबको उपेक्षित किया जाता है। यही स्थिति ब्रिटिश काल में भी रही। कांग्रेसी और कम्युनिस्ट विचारधारा के इतिहास लेखकों ने इस परंपरा को स्वाधीनता के पश्चात भी जारी रखा।

पहाड़ी चूहा थे शिवाजी

इसी सोच के चलते अंग्रेज व मुस्लिम इतिहासकारों ने शिवाजी को औरंगजेब की दृष्टि से देखते हुए ‘पहाड़ी चूहा’ या एक लुटेरा सिद्घ करने का आपराधिक कृत्य किया है। जिस महानायक ने मां भारती के सम्मान और सुरक्षा के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया, उसके साथ इतना बड़ा अन्याय करते हुए इन इतिहासकारों को तनिक भी लज्जा नहीं आई ? इतिहास को इन्होंने नीलाम कर दिया। इतिहास की परंपरा को बेच दिया। इतिहास के मर्म के साथ छल किया और इतिहास के धर्म को इन्होंने इतिहास की ही दृष्टि में कटघरे में खड़ा कर दिया। इतिहास के आंसुओं की ओर इन निर्मम लोगों का तनिक भी ध्यान नहीं गया। वह रोता रहा और लेखनी का सौदा कर चुके ये निर्दयी लोग कसाई की भांति उसे देखते रहे। इनकी लेखनी कागज पर चलते हुए कांपती रही, परन्तु इनकी आत्मा में तनिक भी दया नहीं आयी। पाप करते हुए इनके हाथ लड़खड़ाते रहे , परंतु उनका हृदय तनिक भी नहीं पसीजा।
इतिहास के साथ इस प्रकार का छल करने वाले इन लोगों के आचरण और व्यवहार को देखकर हमें सावधान होना चाहिए। यह समझना चाहिए कि इन लोगों का दृष्टिकोण भारत की वीर परंपरा का अपमान करना है। जिससे कि भारत के वैदिक धर्मी हिंदू लोगों के भीतर वीरता का भाव भूल कर भी संचार न करने पाए । इनका उद्देश्य है कि वैदिक धर्मी हिंदू को उसके अतीत से काट कर रखा जाए । क्योंकि यदि उसे उसके अतीत की महानता और वीरता का बोध करा दिया गया तो उसे संभाला नहीं जा सकेगा।

शिवाजी की हिंदू राष्ट्र नीति और इतिहासकार

ऐसे इतिहासकारों ने शिवाजी के द्वारा हिंदू राष्ट्रनीति के पुनरूत्थान के लिए जो कुछ महान कार्य किया गया उसे मराठा शक्ति का पुनरूत्थान कहा न कि हिंदू शक्ति का पुनरूत्थान ? वास्तव में इन इतिहासकारों का यह शब्दों का खेल भारतीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में बहुत ही अधिक हानिकारक रहा है। तनिक देखिए कि शब्दों की इस जादूगरी में कितनी मिठास घुली हुई है ? और वह मिठास भी यथार्थ सी लगती है। जब पाठक पढ़ता है कि भारत में मराठा शक्ति का किस प्रकार उत्थान हुआ तो वह कस्तूरिया मृग की भांति इस मिठास में उलझ कर रह जाता है। हर पाठक के मस्तिष्क को इस बात से बांध दिया जाता है कि वह मराठा शक्ति से बाहर जाकर वैदिक धर्मी हिंदू शक्ति के विषय में सोच भी न पाए। बस इसी शब्दजाल में वह थके हुए मृग की भांति फंसकर रह जाता है और शत्रु उसका बड़ी सहजता से शिकार कर लेता है।
शब्दजाल के इसी भ्रमजाल में फंसा कर पाठक को प्रत्येक मुगल बादशाह के जीवन की प्रत्येक घटना से अवगत कराने का प्रयास किया जाता है। जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे राष्ट्रभक्त के जीवन की घटनाओं को उतनी ही तीव्रता से विस्मृत करने का प्रयास किया जाता है। बहुत बड़ी संघर्ष गाथा को कुछ शब्दों में समेट कर रख दिया जाता है।
लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी लेखक बहुत कम हैं जिन्होंने शिवाजी महाराज पर कुछ प्रेरणास्पद लिखकर जाने का स्तवनीय कार्य किया। अपनी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी” के पृष्ठ संख्या ११७ पर वह लिखते हैं :- “ शिवाजी अपने राज्य प्रबंध में लगे हुए थे कि मार्च सन १६८० ई० के अंतिम दिनों में उनके घुटनों में सूजन पैदा हो गई। यहां तक कि ज्वर भी आना आरंभ हो गया। जिसके कारण ७ दिन में शिवाजी की आत्मा अपना नश्वर कलेवर छोड़ परम पद को प्राप्त हो गई। १५ अप्रैल सन १६८० को शिवाजी का देहावसान हो गया।” ( संदर्भ : “छत्रपति शिवाजी” लेखक लाला लाजपतराय, प्रकाशक: सुकीर्ति पब्लिकेशंस, ४१ मेधा अपार्टमेंट्स, मयूर विहार 0१, नई दिल्ली ११००९१)
इन शब्दों में लेखक की पीड़ा स्पष्ट झलकती है। वह जीवन की एक संघर्ष गाथा को पूर्णविराम देने से पहले अपनी पीड़ा इन श्रद्धांजलि स्वरुप शब्दों में अभिव्यक्त कर जाते हैं। लेखक के इन शब्दों में स्पष्ट झलकता है कि शिवाजी की संघर्ष गाथा संघर्ष करते-करते जीवन की संध्या में विलीन हो गई।

शिवाजी की नीति

छत्रपति शिवाजी महाराज ने आर्य संस्कृति में परिभाषित राजधर्म का पूर्ण निष्ठा से पालन किया। उन्होंने भाषा, संप्रदाय या और इसी प्रकार के किसी संकीर्ण मानसिकता को स्पष्ट करने वाले वाद को अपनी नीतियों में आड़े नहीं आने दिया। उन्होंने राज्यसत्ता संभाली तो वह केवल राष्ट्र सेवा और मानव सेवा के लिए संभाली। उनकी नीतियां धर्म से प्रेरित रहीं । यही कारण रहा कि राजा के सर्वोच्च पवित्र कर्तव्यों का उन्होंने बहुत ही निष्ठा से पालन किया। यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो छत्रपति शिवाजी महाराज की नीति धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने की थी। तत्कालीन मुगलों की शासन प्रणाली में जिस प्रकार गैर मुस्लिम महिलाओं के साथ अत्याचार किए जाते थे, उनका तनिक सा भी प्रभाव शिवाजी पर नहीं पड़ा। इस प्रकार वह कीचड़ में कमल की भांति रहकर अपने पवित्र राजधर्म का निर्वाह कर रहे थे । ऐसे अनेक हिंदू राजा हुए हैं जिन पर मुगलों के व्यभिचार और महिलाओं पर अत्याचार करने के आचरण व्यवहार का गहरा प्रभाव पड़ा। इस सबके बीच यदि शिवाजी इस प्रकार की सोच और मानसिकता से दूर रहे तो निश्चय ही उन्हें सच्चरित्र और जितेंद्रिय राजा कहकर इतिहास में स्थान मिलना अपेक्षित था। 

खानखां जैसे मुस्लिम इतिहासकार ने भी उनके लिए कहा है कि “शिवाजी के राज्य में किसी अहिंदू महिला के साथ कभी कोई अभद्रता नही की गयी।” वास्तव में शिवाजी के चरित्र की यह विशेषता उनके गुणों के महिमामंडन के लिए इतिहास में अनुकरणीय बननी चाहिए थी। उनके इस प्रकार के चरित्र को स्कूल में विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता । उन्हें सच्चरित्र बनने की शिक्षा दी जाती। उपरोक्त मुस्लिम इतिहासकार ने यह भी लिखा है कि ” उन्होंने एक बार कुरान की एक प्रति कहीं गिरी देखी तो अपने एक मुस्लिम सिपाही को बड़े प्यार से दे दी।”
इन तथ्यों का लाला लाजपत राय जी ने अपनी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी ” में उल्लेख किया है। जिससे स्पष्ट होता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के भीतर किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता छू भी नहीं गई थी। याकूत नाम के एक पीर ने उन्हें अपनी दाढ़ी का बाल प्रेमवश दे दिया तो उसे उन्होंने ताबीज के रूप में बांह पर बांध लिया। साथ ही बदले में उस मुस्लिम फकीर को एक जमीन का टुकड़ा दे दिया। उनकी ऐसी ही सोच हिंदुओं के मंदिरों के प्रति थी।
जब राजा समदर्शी होता है, समभाव और सद्भाव में उसकी प्रवृत्ति होती है तो उसका प्रभाव जनमानस पर पड़ता है। जिसका परिणाम यह निकलता है कि जनसामान्य भी एक दूसरे के प्रति समभाव और सद्भाव की नीति अपनाने लगता है। आर्य राजाओं की दीर्घकालिक परंपरा में राष्ट्र में शांति इसीलिए व्यापक व्याप्त रहती थी कि राजा का दृष्टिकोण अपनी प्रजा के प्रति न्याय पूर्ण होता था। लोग अपने राजा से स्वाभाविक रूप से प्रेम करते थे। क्योंकि उन्हें अपने राजा से हर स्थिति में न्याय मिलने का पूर्ण विश्वास रहता था।

शुद्धि के समर्थक शिवाजी

छत्रपति शिवाजी एक सजग राष्ट्रभक्ति राजा थे। यह ठीक है कि उन्होंने अपनी मुस्लिम प्रजा के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया, परंतु इसके उपरांत भी वह शुद्धि के समर्थक थे। वह मुसलमानों के मौलिक अधिकारों के तो समर्थक थे, परंतु इस बात को भी भली प्रकार जानते थे कि मुस्लिम जनसंख्या का बढ़ना हिंदुओं के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। यही कारण था कि जो लोग किसी भी प्रकार के लोभ लालच में फंसाकर मुसलमान बना लिए गए थे, उनकी घर वापसी के लिए भी वह चिंतित रहे। वह किसी भी प्रकार के तुष्टीकरण के विरोधी थे। उनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था। मुसलमानों को सर्व सुविधा उपलब्ध कराने के समर्थक होकर भी वह सनातन के प्रति सजग और सावधान रहे। उन्होंने हिंदू को संगठित कर उसे संगठन बल का पाठ पढ़ाया। हिंदू समाज को ऊर्जावन्त बनाए रखने के लिए उन्होंने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया। निम्बालकर जैसे प्रतिष्ठित हिंदू को मुसलमान बनने पर पुन: हिंदू बनाकर शुद्घ किया। साथ ही निम्बालकर के लड़के के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया। नेताजी पालेकर को 8 वर्ष मुस्लिम बने हो गये थे-शिवाजी ने उन्हें भी शुद्घ कराया और पुन: हिंदू धर्म में लाए।

मुसलमानों के प्रति शिवाजी का दृष्टिकोण

हम पूर्व में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज मुसलमानों के धार्मिक  पूजा स्थलों के प्रति सम्मान का भाव रखते थे। किसी भी मस्जिद को किसी सैनिक अभियान में शिवाजी ने नष्ट नही किया। उनकी इस प्रकार की उदारवादी नीतियों और सोच की मुस्लिम इतिहासकारों ने भी प्रशंसा की है। जिस समय छत्रपति शिवाजी महाराज गोलकुंडा के विजय अभियान पर निकले हुए थे, उस समय उन्हें यह सूचना अपने गुप्तचरों के माध्यम से प्राप्त हो गई थी कि वहां का बादशाह शिवाजी के साथ संधि चाहता है, इसलिए उस राज्य में जाते ही शिवाजी ने अपनी सेना को आदेश दिया कि यहां लूटपाट न की जाए , अपितु सारा सामान पैसे देकर ही खरीदा जाए। बादशाह को यह बात प्रभावित कर गयी। जब दोनों (राजा और बादशाह) मिले तो शिवाजी ने बड़े प्यार से बादशाह को गले लगा लिया। शिवाजी महाराज की इस प्रकार की नीति ने मुस्लिम बादशाह को हृदय से प्रभावित किया। 
शिवाजी ने गौहरबानो नाम की मुस्लिम महिला को उसके परिवार में ससम्मान पहुंचाया। उनके मर्यादित और संयमित आचरण के ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं, जिनसे उनके व्यवहार और आचरण की उच्चता का पता चलता है। ऐसा भी माना जाता है कि उन्होंने अपने बेटे सम्भाजी को भी एक लड़की से छींटाकशी करने के आरोप में सार्वजनिक रूप से दण्डित किया था। शिवाजी हिंदू पद पातशाही के माध्यम से देश में ‘हिंदू राज्य’ स्थापित करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने हिंदू राष्ट्रनीति के उपरोक्त तीनों आधार स्तंभों (नीति, बुद्घि और मर्यादा) पर अपने जीवन को और अपने राज्य को खड़ा करने का प्रयास किया।

हिंदू राष्ट्र निर्माता शिवाजी

माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिवा का निर्माण एक राष्ट्र निर्माता के रूप में किया था। मां की पीड़ा और राष्ट्र के प्रति समर्पण को शिवाजी ने घुट्टी में पी लिया था। यही कारण था कि उन्होंने मां के सपनों को साकार करने का निर्णय लिया। जिस यौवन को लोग विषय भोग में व्यतीत कर दिया करते हैं, उसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। वास्तव में इतिहास भी उन्हीं का बना करता है जो जीवन के पल-पल को समाज और राष्ट्र के लिए जीते हैं।
माता जीजाबाई ने अपने पुत्र शिव को यही उपदेश दिया था कि जीवन के पल-पल को राष्ट्र के लिए समर्पित करके जीना है। मां का यह मार्गदर्शन शिवाजी के लिए सदा उपयोगी बना रहा। इसी मार्गदर्शन के चलते उन्होंने अनेक किलों को जीतकर विशाल हिंदू स्वराज की स्थापना की। यह ठीक है कि उन्हें हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने में कई अपने लोगों ने भी चुनौतियां दीं,परंतु उन चुनौतियों को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। जिस राज्य की उन्होंने स्थापना की थी उसे उनके उत्तराधिकारियों ने और भी अधिक विस्तृत करने में सफलता प्राप्त की। १७०७ ईस्वी में मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई तो उसके सही ३० वर्ष पश्चात अर्थात १७३७ ईस्वी में भारत पूर्णतया हिंदू राष्ट्र बना दिया गया। आप तनिक विचार कीजिए कि ३ अप्रैल १६८० में को शिवाजी महाराज का देहांत हुआ । उसके सही ५७ वर्ष पश्चात शिवाजी का वह सपना साकार उठा जो उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष को केसरिया ध्वज के नीचे लाने के रूप में देखा था।
२८ मार्च १७३७ को मराठों ने तत्कालीन मुगल बादशाह को वेतन भोगी सम्राट बनाकर दिल्ली के लाल किले तक सीमित कर दिया था। इस प्रकार २८ मार्च १७३७ भारत के हिंदू राष्ट्र घोषित होने का ऐतिहासिक दिन है। जिसे शिवाजी महाराज की प्रेरणा के कारण ही हम प्राप्त कर सके थे। इतिहास के ऐसे महानायक को शत-शत नमन।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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