श्रम करने वालों का मित्र बनता है भगवान्

अशोक “प्रवृद्ध”

अर्थ अर्थात धन की महता से कौन परिचित नहीं है । अर्थ जीवन की मूलभूत आवश्यकता है, और मनुष्यों के लिए धन का अभाव असह्य है। यद्यपि मानव जीवन का लक्ष्य निरन्तर उन्नति के पथ पर आरूढ़ होना है, और उसकी प्राप्ति का साधन ऐसा प्रयोगात्मक ज्ञान है, जिस पर चलकर मनुष्य मोक्ष तक की यात्रा कर सकता है, तथापि जीवन को मात्र आदर्शों के सहारे नहीं जिया जा सकता। जीवन की वास्तविकता की अपेक्षा है कि विना अर्थ के हम जीवन में एक कदम, एक पग भी आगे नहीं चल , बढ़ सकते। महाभारत में वर्णित इस कथा से अर्थ की महता का पता चलता है जिसमें शरशय्या पर पड़े भीष्मपितामह से युधिष्ठिर के द्वारा जब यह प्रश्न किया गया कि आप इस समय धर्म का उपदेश दे रहे हैं, लेकिन जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था, उस समय आपका यह धर्मज्ञान कहाँ था? इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह कहते हैं-
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।।
– महाभारत 6.41.36
अर्थात – हे युधिष्ठिर! मनुष्य अर्थ का दास है, लेकिन अर्थ किसी का दास नहीं है। सब आवश्यकताओं की पूर्ति करके कौरवों ने मुझे अर्थ से बाँध लिया है। इसलिये तुम्हारा पक्ष सत्य होते हुए भी मैंने दुर्योधन के पक्ष से युद्ध किया है।
भीष्म पितामह के उक्त कथन से जीवन का यथार्थ समझ में आ जाता है। इस संसार में ऐसा कोई नहीं है, जो अर्थ का दास न हो। धन की आवश्यकता प्रत्येक मनुष्य को है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हम सभी किसी न किसी रूप में धन पर आश्रित हैं। परन्तु भारतीय ऋषि-मुनियों के द्वारा धनार्जन के लिये कुछ सिद्धान्त प्रदान किये गये हैं । जिसके अनुसार, दूसरों को विना सन्ताप पहुँचाये हुए, धनार्जन में दुष्ट का विना आश्रय लिए हुए और सज्जनों के द्वारा स्थापित पद्धति का उल्लंघन किये बिना जो मिल जाता है, वह अल्प होते हुए भी बहुत है।
यह सत्य है कि केवल धन होने से शान्ति नहीं मिलती, फिर भी शान्ति का सम्बन्ध धन अर्जन के साथ भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। वेद में धन के लिये दो शब्द बहुतायत से प्रयुक्त हुए हैं-एक वसु और दूसरा रयि। जिस धन के मिलने से प्राप्त करने वाला बस जाये अर्थात् उजड़ न जाये, वह वसु है। रयि वह धन है जो देने के लिये अर्जित किया जाता है। धन के सम्बन्ध में इन दो धारणाओं को हृदयंगम करना विश्वशान्ति के लिये अपेक्षित है। वर्तमान की भान्ति प्राचीनकाल में भी धनार्जन के प्रति दृष्टिकोण बहुत उचित-अनुचित के विवेक से परिपूर्ण नहीं था। भर्तृहरि के युग में धन के प्रति वही दृष्टि देखने को मिलती है, जो आज है। भर्तृहरि रचित नीतिशतकम- 38 के अनुसार, यदि धन मिलता हो तो जाति रसातल में चली जाये, गुणसमूह उससे भी नीचे चले जायें, श्रेष्ठ स्वभाव पर्वत से नीचे क्यों न पटकना पड़े, उच्चवंश में आग लगानी पड़े तो लगा दी जाए, शत्रुस्वरूप वीरता पर भले ही शीघ्र वज्रपात हो जाये। इस प्रकार सब कुछ भले ही नष्ट हो जाए, परन्तु केवल अर्थ की प्राप्ति हो जाए, जिसके विना ये सारे गुण तुच्छ तृण के समान हो जाते हैं।
धन के लिये किसी सीमा तक गिरना आदिम प्रवृत्ति है और यही मनुष्य अथवा विश्व की अशान्ति का कारण भी है। महाभारत में महर्षि व्यास ने इस सत्य को हृदयंगम कराने का प्रयास करते हुए कहा है-
हाथ ऊपर करके मैं चिल्ला रहा हूँ, लेकिन कोई मेरी सुनता नहीं है। धर्म से अर्थ और उस अर्थ से काम। हे दुनिया के लोगो ! ऐसे धर्म का सेवन क्यों नहीं करते हो? हम धन का अर्जन करें, परन्तु धर्म की अवहेलना करके नहीं। परिश्रम से अर्जित धन से सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है।
ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है-
नानाश्रान्ताय श्रीरस्ति पापो नृषद्वरो जनः।
इन्द्र इच्चरतः सखा। चरैवेति चरैवेति।।
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चरति चरतो भगः।।
– ऐतरेय ब्राह्मण-7.15

अर्थत – जो पूरी शक्ति से परिश्रम नहीं करते, उन्हें श्री (आज की भाषा में लक्ष्मी) नहीं मिलती। आलसी मनुष्य पापी होता है। भगवान् श्रम करने वालों का मित्र बनता है। इसलिये श्रम करो, श्रम करो।
बैठने वाले का भाग बैठ जाता है और जो खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भाग्य खड़ा हो जाता है। जो सो जाते हैं, उनका भाग्य भी सो जाता है और जो चलने लगते हैं, उनका भाग्य भी चलने लगता है। इसलिये सदा परिश्रम करो।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य में श्रम से अर्जित धन की प्राप्ति की कामना की गयी है। जहाँ विना श्रम के धन का आगम होता है, वहाँ नाना प्रकार के रोग तथा विभिन्न प्रकार की विपत्तियाँ आती रहती हैं। इसलिये भारतीय संस्कृति में श्रम की महत्ता प्रतिष्ठित की गयी है। केवल श्रम से अर्जित धन मिल जाए, उससे समाज में शान्ति रहने वाली नहीं है। शान्ति के लिये आवश्यक है कि समाज में कोई भूखा, दरिद्र न रहे। वेद में कहा है-
मोघमन्न विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्य॑ति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।
– ऋग्वेद 10.117.6
अर्थात – स्वार्थी और अविवेकी व्यर्थ ही अन्न ग्रहण करता है। तथ्य यह है कि यह उसका जीवन नहीं है, अपितु मृत्यु है। क्योंकि इस प्रकार का घोर स्वार्थी न अपना भला करता है और न मित्रों का। केवल अपने ही खाने-पीने का ध्यान रखने वाला अन्न नहीं खाता, पाप खाता है। इसी बात को श्रीमद्भगवद गीता -3.16 में भी कहा गया है-

इस यज्ञचक्र को जो नहीं घुमाता अर्थात् जो भोग के साथ त्याग नहीं करता, वह पापी और विषयी है, और हे अर्जुन! उसका जीवन व्यर्थ है। वेद में कहा है-
स इद्भोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय।
अरमस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम्।।
– ऋग्वेद 10.117.3

अर्थात- उसी का खाना खाना है, जो घर आये भूखे को अन्न देकर स्वयं खाता है। ऐसे देने वाले के पास अन्न कभी कम नहीं होता और वह विरोधियों का भी मित्र बन जाता है।
-ऋग्वेद 10.117.1 के अनुसार प्रभु ने मृत्यु का कारण केवल भूख को नहीं बनाया है, जो खाते हैं वे भी मरते हैं। देने वाले का धन नष्ट नहीं होता, अपितु वह एक प्रकार से उसकी भविष्यनिधि में जमा होता है। स्मरण रखो विना त्याग किये तुम अपने हितैषी नहीं बन सकते।
अर्थजन्य अशान्ति और दुःख के निवारण का प्रतिपादन करते हुए ऋग्वेद 1.8.1 में कहा गया है – ऐश्वर्य का भण्डार परमात्मा हमें जीवन की रक्षा के लिये ऐसा धन प्रदान करे जिसका हम बाँटकर उपभोग करें, जो विजेता बनाने वाला हो, स्वावलम्बी बनाने में सक्षम हो तथा बहुत वर्षों तक टिकने वाला हो।
जब हम धन का बाँटकर उपभोग करते हैं तो अशान्ति का कोई कारण ही नहीं रहता। समस्त प्रकार की समस्याओं का मूल मनुष्य का व्यक्तिवादी हो जाना है। इसलिये तो वेद का ऋषि कहता है-
केव॑लाघो भवति केवलादी
– ऋग्वेद 10.117.6

अर्थात- एकाकी भोजन करने वाला केवल पाप खाता है।
श्रीमद्भगवद गीता-3.13 में इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है – दूसरों को खिलाकर खाने वाले सब पापों से छूट जाते हैं। जिनके घर में भोजन केवल अपने खाने के लिये बनता है, वे अन्न नहीं खाते, पाप खाते हैं। मनुष्य को सुखी के लिए उसे वेद प्रतिपादित शान्ति के मार्ग के सन्देश को स्वीकार करना ही होगा। अथर्ववेद 12.5.3 में इसी शाश्वत्त सत्य को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है हम सभी परिश्रम से उपार्जित भाग को ग्रहण करने वाले, सबके लिये हितकारी, सत्य पर आरूढ़, अच्छे-अच्छे व्रत धारण करने के संकल्प करने वाले तथा यज्ञ से प्रतिष्ठा को प्राप्त करें। इस प्रकार का आचरण करते हुए हम मृत्यु पर्यन्त आनन्दपूर्वक रह सकते हैं।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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