निदो तानिया की हत्या से उपजे सवाल

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-देवेन्द्र कुमार-  nido_tania
पूर्वोतर की सात बहनों में से एक अरुणाचल प्रदेश के कांग्रेस विधायक निदो पवित्र के बेटे निदो तानिया का देश की राजधानी दिल्ली में सरेआम जधन्य हत्या मानवता को शर्मसार करने वाला है और भारतीय राष्ट्र-राज्य की सामाजिक सहभागिता और एकता पर गहरे सवाल खड़े करता है। यहां सवाल सिर्फ तानिया का नहीं वरन उस मनोवृति का है जो अपनी भाषा, हिज्जे, आकृति- बनावट, नयन-नक्श, रंग-रूप, वेश-भूषा, धर्म, पूजा-पद्धति, जाति -वर्ण को ही सर्वश्रेठ मानता हैं और इसके साथ ही सवाल पूर्वोतर के प्रति हमारे सम्पूर्ण नजरिये का भी है। क्या आजादी के छह दशक गुजरने के बाद भी हम एक भारतीय समाज के निर्माण में सफल हुए हैं। क्या सिर्फ आर्थिक समृद्धि ही एक खुशहाल राष्ट्र का आधार स्तम्भ होगा ? क्या आर्थिक समृद्धि के बूते ही हम अपने राष्ट्र-राज्य को बनाये रखने में सफल होंगे।
अभी-अभी मुम्बई में यह अफवाह फैलाई जा रही है कि एक जहरीली हवा निकल रही है जो सिर्फ बिहारियों को ही अपने आगोश में ले रहा हैं। बेचारे बिहारी मजदूर जो अपने बाल बच्चे को छोड़ दिहाड़ी मजदूरी करने मुम्बई की फैक्ट्रियों में गये हैं, खौफ़जदा हो भाग रहे हैं। इसे सिर्फ एक अफवाह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, इसके पीछे की मनोवृत्ति को भी समझना होगा। हालात यह है कि जब भी कोई किसी अजनबी शहर में जाता है तो वह चाह कर भी अपने मन – माफिक जगह पर नहीं रह पाता, उसे अपने धर्म-संप्रदाय के मोहल्ले की खोज करनी पड़ती है और खासकर यह मुस्लिमों के लिए परेशानी का सबब है।
ग्राम-स्वराज्य सुनने में चाहे जितना भी अच्छा लगे पर सच्चाई यह है कि गांव खोजना एक दुश्कर कार्य है। गांव टोलों में विभक्त हैं, हर जाति के अपने-अपने टोले हैं। अपनी-अपनी दुनिया है और उनके बीच घातक प्रतिस्पर्धा हैं।
राजनीतिक रूप से भारत एक है पर सामाजिक रूप से यह टुकड़ों में बंटा हैं। कभी असम में राष्ट्रीय राज्य मार्ग पर कार्यरत बिहारी मजदूरों पर हमले होते हैं, तो कभी गुजरात की गरीबी कारण बिहारी मजदूरों को बतलाया जाता है तो दिल्ली में झाड़ु पोछा और घरेलू कामों के लिए झारखंड की नाबालिग आदिवासी लड़कियों की मांग होती है और फिर उनके साथ जानवर से भी बुरा सलुक होता है।
स्पष्ट है कि आज निदो एक व्यक्ति नहीं, वह हमारी सामाजिक विखंडन, टूटन और विखराव का प्रतीक बन गया है। फिर पूर्वोत्तर के प्रति हमारा नजरिया ही दोषपूर्ण रहा है। वहां रोजगार के अवसर नहीं हैं, पर्याप्त शिक्षण संस्थान नहीं हैं, संचार के उपकरण दुरुस्त नहीं हैं। पूर्वोत्तर का हलचल, घटनाक्रम, सामाजिक आन्दोलन और सामाजिक अभिवंचना कथित राष्ट्रीय मीडिया में स्थान नहीं पाता।
कथित मुख्यधारा का भारतीय सिनेमा, टीवी चैनल के सीरियल भारतीयता की जो तस्वीर गढ़ रहे हैं, वह एकरूप-सपाट है। जिस भाषा, चाल-ढाल, खान-पान को वे स्थापित कर रहे हैं, उसमें बहुलतावादी दृष्टिकोण कहीं झलकता ही नहीं। वह जो सौन्दर्य का प्रतिमान गढ़ रहे हैं। उस प्रतिमान के बाहर जो कुछ भी हैं, वह बदसूरत हैं। नायक-नायिकाओं की लम्बाई छह फीट से उपर हो, एकदम तीखे नयन-नक्श हो, बोलने-चलने की एक विषेश अदा हो और रंग तो हर कीमत पर दुधिया होना ही चाहिए। अब सवाल यह है कि क्या वाकई यह पूरे हिन्दुस्तान की सच्चाई है और नहीं तो हमारे रुपहले पर्दे से हिन्दुस्तान का बहुलतावादी समाज की तस्वीर गायब क्यों है। दलित, आदिवासी, अति पिछड़ा, पूर्वोतर के वासिन्दे, केरल और दक्षिण का हिन्दुस्तान भारतीय सिनेमा से गायब क्यों है ? उनकी तस्वीर, उनकी आकृतियां, उनकी कहानियां, हमारे रुपहले पर्दे पर दिखलाई क्यों नहीं पड़ती ? उसी समाज से हम नायक-नायिका क्यों नहीं खोजते? हमारा यह विशाल समाज सिर्फ उपभोक्ता-दर्शक क्यों है ? हमारा सौन्दर्यबोध इतना सीमित और कुठांग्रस्त क्यों है ?
एक सवाल तो हमारे पाठ्यस्तकों का भी है। पाठ्यपुस्तकों इस रूप में तैयार की गई है कि पूर्वोत्तर की उसमें कोई झलक नहीं मिलती। सारा जोर रोजगारपरक शिक्षा पर है, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक एकजुटता हमारी प्राथमिकता में नहीं है। अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे जब राजनीतिक का नया चेहरा गढ़ने का दावा करने वाले कुमार विश्वास का केरल की नर्सों का रंग-रूप को लेकर की गई टिप्पणी सामने आई थी। जब गैर परम्रागत राजनीति का दावा करने वालों की मनोदशा और सोच यह है तब एक व्यापक राष्ट्रीय नजरिये की खोज कहां की जाय।
यद्यपि सांस्कृतिक भारत का दायरा काफी व्यापक है पर उसे एक राजनीतिक इकाई में परिवर्तित करने में हम लगातार असफल होते जा रहे हैं। हमारे समाज का टूटन, विखंडन बढ़ता ही जा रहा हैं। और इसका कारण है, हम अपनी बहुलतावादी प्रवृति को त्याग एक निश्चित प्रतिमान में पूरे हिन्दुस्तान को फिट करने पर आमादा हैं। एक खान -पान, एक वेश-भूषा, एक प्रकार की बोली, एक प्रकार के रष्मों -रिवाज और दैहिक सौन्दर्य प्रतिमान को गढ़ अपनाकर हम न सिर्फ अपनी विविधता को संकुचित कर रहे हैं, वरन् अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों को कमजोर कर रहे हैं।
स्पष्ट है कि निदो सिर्फ पूर्वोतर र्में नहीं है, वह हर गली, हर चौराहे, हर मोड़ और हिन्दुस्तान के हर भू भाग में किसी न किसी शक्ल में खड़ा है। कभी वह आसाम में पीटा जाता है, कभी मुम्बई से भगाया जाता है, कभी गुजरात में ताने सुनता है, कभी दिल्ली की गलियों में चिंकी कह पुकारा जाता है, कभी पॉश इलाके में आषियाने की खोज में मजहब के आधार पर घकियाया जाता है तो कभी अपने रंग-रूप और जाति-वर्ण के कारण विभेद का शिकार होता है।

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