एक हथिनी ‘माधुरी’ के बहाने धर्म का पुनर्पाठ

-स्वामी देवेन्द्र ब्रह्मचारी –

नांदणी जैन मठ की गजलक्ष्मी हथिनी माधुरी, जो 35 वर्षों से मठ की सेवा में थी, को पेटा की याचिका पर जामनगर भेजा गया था, जिससे जैन समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंची थी। न केवल महाराष्ट्र में बल्कि समूचे जैन समाज में आक्रोश को देखते हुए महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार ने इसमें दखल दिया और उसकी पहल पर याचिका दायर करने और आपराधिक मामलों को वापस लेने की घोषणा के साथ माधुरी की घर वापसी संभव हो गई है। निश्चित ही यह फडणवीस सरकार का एक संवेदनशील एवं सूझबूझभरा निर्णय है, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। क्योंकि माधुरी, नांदणी जैन मठ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी और जैन समुदाय की भक्ति और समर्पण का प्रतीक थी।
“मैं कोई साधारण प्राणी नहीं। मैं उन हजारों श्रद्धालुओं की भावनाओं का मूर्तरूप हूं, जिन्होंने मुझे केवल देखा नहीं, बल्कि पूजा है। मेरा नाम ‘माधुरी’ है, पर मैं नाम से कहीं अधिक हूं। मैं उस मठ की चुप्पी में गूंजती प्रार्थना हूं, जहां मैंने 35 वर्षों तक सेवा, संयम और संस्कृति की छाया में सांस ली।” यदि ‘माधुरी’ बोल सकती, तो शायद यही कहती, क्योंकि उसका मौन, उसका निर्विकार भाव, उसके नेत्रों में बसी करुणा, इन सबने वर्षों तक नांदणी जैन मठ को जीवंत रखा। वह एक जीव नहीं, धर्म की आत्मा बनकर असंख्य श्रद्धालुओं की संवेदनाओं, आस्था एवं भक्ति से जुड़ी थी
नांदणी जैन मठ की यह गजलक्ष्मी हथिनी केवल एक वन्य प्राणी नहीं थी, वह जैन धर्म में “जीव मात्र के प्रति करुणा” के अमूल्य सिद्धांत का सजीव प्रतीक थी। उसका मठ में रहना, उसका पूजन, उसकी सेवा, यह सब किसी हिंसक बंधन का परिणाम नहीं था, बल्कि धार्मिक समर्पण की अभिव्यक्ति थी। पेटा जैसी संस्थाएं केवल जीव के शरीर को देखती हैं, उसकी आत्मा, उसके सांस्कृतिक स्थान और परंपरा में निहित गरिमा को नहीं। यही कारण था कि उसकी जबरन वनतारा में रवानगी केवल एक स्थानांतरण नहीं, बल्कि धर्म के हृदय पर आघात था।
माधुरी प्रकरण ने एक जटिल प्रश्न को जन्म दिया, क्या धर्म अब भी स्वतंत्र है, या वह राजनीतिक और कानूनी भूलभुलैया में उलझ चुका है? क्या जीवों की सेवा और उनके साथ प्रेम का संबंध, कानून की अंधी परिभाषाओं से परे नहीं देखा जा सकता? राजनीतिक हस्तक्षेप ने बार-बार धर्म की गरिमा को चुनौती दी है। परंतु इस बार महाराष्ट्र सरकार, विशेषतः मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस एवं उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने जो निर्णय लिया, वह सराहनीय, साहसी और धर्म-समभाव से प्रेरित प्रतीत होता है। सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका, दर्ज प्रकरणों की वापसी की घोषणा, ये निर्णय केवल न्यायिक नहीं, आध्यात्मिक चेतना से प्रेरित प्रतीत होते हैं।
जैन धर्म का मूल आधार है “पर्यावरण के साथ सह-अस्तित्व” और “जीवों के प्रति अहिंसक व्यवहार”। यह दर्शन मात्र प्रवचनों तक सीमित नहीं, बल्कि जीवनचर्या का अंग है। माधुरी उसी जीवनचर्या की प्रतिछाया थी। उसकी देखभाल, सेवा, पूजा-इन सबके माध्यम से नांदणी मठ ने पीढ़ियों को यह सिखाया कि एक जीव के साथ कैसा प्रेममय आत्मीय रिश्ता हो सकता है। जब उसे वनतारा ले जाया गया, तो यह केवल एक हथिनी का मठ छोड़ना नहीं था, बल्कि पर्यावरण-धर्म की एक जीवित पाठशाला का अवसान था।
जिस समाज ने माधुरी को देवीतुल्य सम्मान दिया, वह समाज उसके हरण को केवल कानूनी आदेश नहीं मान सकता था। यह जनआस्था की, सामूहिक करुणा की और धार्मिक सम्मान की सामूहिक पराजय थी। परंतु अब, जब पुनः माधुरी की वापसी की संभावना जीवित हुई है, तो यह धर्म और न्याय की संयुक्त विजय है। माधुरी केवल एक हथिनी नहीं, वह मठ की आत्मा की भौतिक अभिव्यक्ति है, यही इस समूचे विमर्श का सार है। यह केवल माधुरी की वापसी की बात नहीं, बल्कि उस सम्मान की पुनर्स्थापना है जो सेवा, करुणा और जीवदया में निहित है।
वर्तमान युग में सरकारों का धार्मिक मामलों में संवेदनशीलता दिखाना दुर्लभ है। परंतु फडणवीस सरकार का यह निर्णय दर्शाता है कि जब शासन तंत्र, न्याय प्रणाली और धार्मिक समुदाय मिलकर कार्य करें, तो न्याय और श्रद्धा का नया युग संभव है। सरकार द्वारा इस प्रकरण में आयोजित अति संवेदनशील बैठक में जहां विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया, मैं भी इस बैठक का हिस्सा बना। निश्चित ही बैठक में  राज्य सरकार का यह प्रयास एवं निर्णय की सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका और प्रकरण वापसी की घोषणा, एक संवेदनशील लोकतंत्र की परिपक्व पहचान है। यह दर्शाता है कि सरकार न केवल कानून का पालन करती है, बल्कि समाज की आत्मा की धड़कन भी सुनती है। अब सरकार के प्रयासों से जब माधुरी मठ लौटेगी, तो वह अकेली नहीं होगी। उसके साथ लौटेगा धर्म का सम्मान, श्रद्धा का पुनर्निर्माण, करुणा का पुनराविष्कार और पर्यावरण के साथ संतुलित सह-अस्तित्व की प्रेरणा। वह लौटेगी तो धर्म केवल ग्रंथों में नहीं, जीवन में दिखाई देगा। वह लौटेगी तो हर जैन मठ, हर मंदिर, हर जीवात्मा को यह भरोसा मिलेगा कि श्रद्धा और न्याय को कुछ समय के लिए विलंबित किया जा सकता है, पर पराजित नहीं।”
माधुरी की वापसी केवल एक हथिनी की वापसी नहीं, वह समूचे मानवता की संवेदना की विजय है। महाराष्ट्र सरकार अपनेे इस निर्णय के लिए धन्यवाद की पात्र है। धन्यवाद के पात्र वे भी हैं जिन्होंने माधुरी की करुण पुकार को न्याय में परिवर्तित करने का यत्न किया। माधुरी का सम्मान और धर्म का योगदान केवल किसी एक जीव के प्रति सहानुभूति का विषय नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता की संवेदनाओं की कसौटी है। राजनीति को यदि जनभावनाओं की सच्ची प्रतिनिधि बनना है, तो उसे केवल वोट और शक्ति के गणित से नहीं, बल्कि समाज की आत्मा से संवाद करना होगा। माधुरी प्रकरण में महाराष्ट्र सरकार ने जिस तरह धार्मिक अस्मिता और जनसंवेदनाओं का सम्मान करते हुए न्यायोचित हस्तक्षेप किया, वह एक अनुकरणीय दृष्टिकोण है, जिसमें धर्म को न राजनीति का उपकरण बनाया गया और न उपेक्षा की गई, बल्कि उसे संवेदना और संस्कृति की धुरी मानकर संजोया गया। यही वह राह है, जिससे राजनीति जनसेवा और धर्म, जनमानस की आत्मा बन सकते हैं।
जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा है, पर यह अहिंसा केवल शारीरिक हिंसा से दूर रहने तक सीमित नहीं, बल्कि प्रत्येक जीव के प्रति करुणा, संवेदना और सेवा भाव की गहन जीवनशैली है। जैन आचार्य और तपस्वियों ने केवल उपदेश नहीं दिए, बल्कि अपने आचरण से यह सिद्ध किया कि जीव मात्र में आत्मा है, और प्रत्येक आत्मा पूज्य है। यही कारण है कि जैन मुनि पांव में चप्पल नहीं पहनते, चलते समय झाड़ू से मार्ग बुहारते हैं ताकि कोई सूक्ष्म जीव भी अनजाने में आहत न हो। इतिहास में ऐसे असंख्य प्रसंग मिलते हैं जब राजाओं ने भी जैन धर्म के प्रभाव में आकर हिंसा का त्याग किया और जीवदया के लिए गोशालाएं, पक्षीचिकित्सालय और जलाशय बनवाए। भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन जीवों के प्रति करुणा का आदर्श है, उन्होंने कहा, सव्वे पाणो पियायरा यानी सभी प्राणी प्रिय हैं। यही भाव आगे चलकर जैन समाज की सामाजिक संरचना में गहराई से समाहित हो गया। आज भी जैन धर्म के अनुयायी जीवों के कल्याण के लिए सेवा प्रकल्पों में अग्रणी हैं, चाहे वह बीमार पक्षियों के लिए चिकित्सालय हों, घायल जानवरों के लिए रेस्क्यू सेंटर हों, या निराश्रित पशुओं के लिए आश्रय स्थल।
“माधुरी” जैसी एक हथिनी का मठ में पूज्य स्थान पाना, उसकी सेवा और सुरक्षा में समाज का समर्पण, यही तो जीवदया की उस परंपरा का जीवंत प्रमाण है जो अतीत से वर्तमान तक निरंतर बहती रही है। जैन धर्म का यह दृष्टिकोण हमें केवल मनुष्यों से प्रेम नहीं सिखाता, बल्कि सृष्टि के हर कण में बसते जीवन के प्रति करुणा का भाव विकसित करता है। यही करुणा, यही संवेदना धर्म को जीवंत बनाती है और मानवता को दिव्यता की ओर ले जाती है।
(प्रख्यात जैन संत देवेन्द्र ब्रह्मचारी महावीरायतन फाउण्डेशन के संस्थापक है)

प्रेषकः
( देवेन्द्र ब्रह्मचारी )

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