सिन्दूर/ विपिन किशोर सिन्हा

आम धारणा है कि इस्लाम मर्दों की स्वधर्मनिष्ठा और हिन्दुत्व महिलाओं की स्वधर्मपरायणता के कारण टिका हुआ है। इस्लाम में समस्त धार्मिक कार्य प्रायः मर्द ही करते हैं। महिलाओं को पुरुषों के साथ मस्ज़िद में जुम्मे की नमाज़ पढ़ने की भी इज़ाज़त नहीं है। इसके उलट हिन्दुओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना पत्नी के संपन्न नहीं होता। परंपरा से हिन्दू महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक धार्मिक होती हैं। हिन्दुओं के समस्त पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज आज भी महिलाओं के ही कारण जीवित हैं। हिन्दू पुरुष धार्मिक मामलों में लापरवाह होते हैं। अगर महिलाएं याद न दिलाएं तो वे होली-दिवाली भी भूल जाएं। दिवाली की पूजा में महिलाएं ही पुरुषों को जबरन बैठाती हैं। पुरुष तो घर से भागकर जुआ खेलने की फिराक में रहता है। किस पुरुष को महाशिवरात्रि, करवा चौथ, गणेश चौथ या हरतालिका की तिथि याद रहती है? दूसरे के घर से आई लड़की ससुराल के रीति-रिवाज आते ही सीख लेती है और उसके अनुसार जीवन भर आचरण भी करती है लेकिन पुरुष को कुछ भी याद नहीं रहता। बच्चे के जन्म से लेकर शादी-ब्याह तक, सत्यनारायण-कथा से लेकर रुद्राभिषेक तक, छठ पूजा से लेकर नवरात्र की शक्ति-पूजा तक की सारी विधियां. तौर-तरीके महिलाओं को पता रहती हैं, कण्ठस्थ रहती हैं। पुरुष यंत्रवत काम करता है। धार्मिक अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों का विभाग हिन्दू परिवारों में पूर्ण रूप से महिलाओं के हवाले है। महिलाएं हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत स्तंभ हैं; वस्तुतः रीढ़ की हड्डी हैं। आधुनिकता की आंधी और पश्चिमी संस्कृति ने टीवी, सिनेमा एवं माडेलिंग के माध्यम से हमारे इस सबसे मजबूत स्तंभ पर प्रबल आघात किया है।

प्रथम प्रहार महिलाओं के परिधान पर किया गया। साड़ी अब नानी और दादी का पहनावा बनकर रह गई है। माताओं ने जब दुपट्टा गले में लपेटना शुरु कर दिया, तो बेटियों ने इसे हमेशा के लिए फेंक दिया। लड़के तो ढ़ीला-ढ़ाला जिन्स पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? कस्बे से लेकर महानगर तक आप स्वयं देख सकते हैं। क्या लड़कियों की शारीरिक संरचना इतने तंग टाप और चमड़े से चिपके जिन्स पहनने की इज़ाज़त देती है? जो महिला जितनी ही आधुनिक है, कपड़ों से उसे उतना ही परहेज़ है।

दूसरा और सबसे प्रबल प्रहार पश्चिमी आधुनिकता ने हिन्दू महिलाओं के प्रतीक-चिह्न पर किया है। जब भी कोई विवाहिता श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करती है, तो प्रथम आशीर्वाद पाती है – सौभाग्यवती भव। सौभाग्य का प्रतीक सिन्दूर हर हिन्दू महिला अपनी मांग में धारण करती थी। इस सिन्दूर के कारण महिलाएं समाज में सम्मान पाती हैं। राह चलते मनचलों की दृष्टि भी जब सिन्दूर पर पड़ जाती है, तो तो वे भी सिर झुकाकर अलग खड़े हो जाते हैं। कहावत है, कुंआरी कन्या के हजार वर। लेकिन वही कुंआरी कन्या जब सिन्दूर से अलंकृत हो जाती है तो मांग में सिन्दूर भरने वाले की जनम-जनम की संगिनी बन जाती है। हिन्दू धर्म में पति-पत्नी का रिश्ता अत्यन्त पवित्र माना जाता है। विवाह के बाद हमारे समाज में किसी तरह का निकाहनामा, एग्रीमेन्ट या मैरेज सर्टिफिकेट जारी नहीं किया जाता। औरत की मांग का सिन्दूर ही सर्वोच्च मान्यताप्राप्त पवित्र मैरेज सर्टिफिकेट होता है। एकबार हनुमान जी ने जिज्ञासावश मां जानकी से पूछा था कि वे मांग में लाल लकीर क्यों लगाती हैं। मां सीता ने उत्तर दिया कि यह लाल लकीर सिन्दूर की रेखा है जो प्रभु श्रीराम को अत्यन्त प्रिय है और इस सिन्दूर के कारण ही वे प्रभु श्रीराम की प्रिया हैं। फिर क्या था? हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर में सिन्दूर लगा लिया। महाकवि तुलसीदास जी ने हनुमत्‌वन्दना करते हुए लिखा भी है – लाल देह लाली लसै, अरु धरि लाल लंगूर; वज्र देह दानव दलन जय-जय-जय कपिसुर। सिन्दूर की पवित्रता और अखंडता के लिए हिन्दू वीरांगनाओं की त्याग, तपस्या और आहुतियों की गाथा से भारत का गौरवपूर्ण इतिहास और वांगमय भरा पड़ा है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी और विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दू नारी ने अपने सौभाग्य के इस प्रतीक चिह्न को कभी अपने से अलग नहीं किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते ही मांग के सिन्दूर ने ललाट पर कब एक छोटे तिकोने टीके का रूप ले लिया, कुछ पता ही नहीं चला। हिन्दू नारी विवाहिता होने पर गर्व की अनुभूति करती थी, आज वह इसे छुपाने में गर्व महसूस करती है। अशुभ के हृदय में बैठे डर के कारण वह सिन्दूर का एक छोटा टीका ललाट के दाएं, बाएं या मध्य में लगा तो लेती है लेकिन बालों को थोड़ा आगे गिराकर उसे छिपाने की चेष्टा भी करती है। मांग तो सूनी ही दिखाई देती है। आश्चर्य तो तब होता है जब मातायें भी आधुनिकता की दौड़ में अपनी बेटियों से आगे निकलने की होड़ में शामिल हो जाती हैं। हिन्दू धर्म की रीढ़ में क्षय-रोग बसेरा बनाता जा रहा है।

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