जेएनयु में ब्राह्मण-विरोधी पिंगल-पाठ और नस्ल-विज्ञान की षड्यंत्रकारी सांठ-गांठ

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मनोज ज्वाला
समय-समय पर अचरजपूर्ण हास्यास्पद किन्तु आपत्तिजनक नाराओं से
मीडिया में बकवाद छेडते रहने के लिए कुख्यात जवाहरलाल नेहरु
विश्वविद्यालय (जे०एन०यु०) की दीवारें एक बार फिर वहां के शोधार्थियों की
बहकी हुई बौद्धिकता का पाठ प्रदर्शित कर इन दिनों सुर्खियों में आ चुकी
हैं । इस बार उक्त विश्वविद्यालय की दीवारों पर लिखित-पठित उनका नारा है-
“ब्राह्मण-बनिया भारत छोडो” । जहिर है- जे एन यु के शोधार्थियों और उनके
प्राध्यापकों की खोपडी में भारत के वृहतर समाज को विखण्डित करने और भारत
राष्ट्र को विघटित करने की एक दूरगामी परियोजना मचल रही है, जो ‘ब्राह्मण
बनाम गैर-ब्राह्मण’ और ‘बनिया बनाम गैर-बनिया’ नामक सामाजिक विभाजन की
कुकल्पना पर आधारित है । इस पूरी परियोजना की तहकिकात करने पर जो तथ्य
उभर कर सामने आते हैं उसका सत्य ‘ब्राह्मण’ बनाम ‘अब्राह्मण’ है ;
अब्राह्मण ही घीस-पिट कर कालान्तर बाद ‘अब्राह्म’ से अब्राहम हो गया, जो
धर्म-विरोधी ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ का मूल है । उस नारा में ‘बनिया’ को तो
अब केवल इस कारण जोड दिया गया कि इसी समुदाय से सम्बद्ध नरेन्द्र मोदी
की राजनीतिक सत्ता पश्चिम की विस्तारवदी रिलीजियस मजहबी शक्तियों को अजेय
सिद्ध होने लगी है । यह नारा धर्मधारी भारत राष्ट्र को जीत लेने के लिए
उन्हीं भारत-विरोधी शक्तियों द्वारा रचे गढे हुए उस ‘नस्ल विज्ञान’ की
कोख से निकला हुआ है, जो कभी यह स्थापित करने पर तुला हुआ था कि आर्य
विदेशी हैं ; किन्तु उसकी वह स्थापना जब तार-तार हो गई, तब उसी की आड ले
कर जे एने यु के बकवादियों ने अब यह राग आलापना शुरु किया है कि
ब्राह्मण विदेशी हैं । इस ब्राह्मण-विरोधी अब्राह्मिक उलटवासी का पूरा
सूत्र-समीकरण पश्चिम के ‘नस्ल-विज्ञान’ में समाहित है, जिसे जानना-समझना
आवश्यक है ।
मालूम हो कि रिलीजियस (ईसाई) विस्तारवादी औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन
की स्वीकार्यता कायम करने के लिए अंग्रेजों ने पहले इतिहास की किताबों
में यह असत्य प्रक्षेपित कर दिया कि ‘आर्य’ भारत के मूल निवासी नहीं हैं
, फिर वे अपने इस प्रतिपादन को सत्य सिद्ध करने के लिए ‘नस्ल-विज्ञान’ को
ज्ञान की एक नई शाखा के रूप में स्थापित कर उसके माध्यम से यह भी
प्रमाणित-प्रचारित करने में लगे रहे (आज भी लगे हुए हैं) कि भारत के लोग
नाक-नक्श , कद-काठी से भारतीय नहीं , यूरोपीय हैं और ‘मनु’ की नहीं,
‘नूह’ की संतानें हैं । उनने अपनी इस परिकल्पना का आधार बनाया ‘बाइबिल’
की उस कथा को, जिसके अनुसार प्राचीन काल में एक महा जल-प्रलय के बाद
‘नूह’ की सन्तानों ने पृथ्वी को आबाद किया था । नूह के तीन पुत्र थे-
‘हैम’ , ‘शेम’ और ‘जॉफेथ’ । ‘नूह’ नग्न रहा करता था, जिसकी नग्नता पर एक
बार ‘हैम’ हंस पडा, तो उससे अपमानित होकर उसने उसे श्राप दे दिया कि वह
(हैम) सदा ही उसके दो भाइयों ( शेम और जॉफेथ) की संतानों के दासत्व में
जीवन व्यतीत करे । इस कपोल-कल्पित कथा को पूरी दुनिया का इतिहास घोषित कर
अंग्रेजों ने स्वयं को ‘नूह’ के दो पुत्रों- ‘शेम’ व ‘जॉफेथ’ की सन्तान
घोषित कर लिया और उपनिवेशित देश (गुलाम देश) के लोगों को गुलामी के लिए
अभिशप्त ‘हैम की सन्तति’ करार देते हुए उन्हें ‘गुलामी के योग्य ही’
प्रमाणित कर दिया । फिर तो उन षड्यंत्रकारियों ने इस भ्रामक तथ्य को
विभिन्न कोणों से स्थापित प्रतिपादित करने का एक अभियान ही चला दिया,
जिसकी परिणति है ‘नस्ल-विज्ञान’ । यह नस्ल-विज्ञान असल में ‘श्वेत चमडी’
के लोगों द्वारा दुनिया की समस्त ‘अश्वेत प्रजा’ पर शासन एवं पृथ्वी के
समस्त संसाधनों के अधिग्रहण तथा धर्म का उन्मूलन और धर्मधारी भारत
राष्ट्र के विघटन हेतु कायम किये गए भिन्न-भिन्न तरह के बौद्धिक
षड्यंत्रों के क्रियान्वयन का उपकरण है । यहां यह जान लेना भी आवश्यक है
कि ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ परस्पर समानार्थी जरूर हैं , किन्तु ‘धर्म’ उन
दोनों से सर्वथा भिन्न है ; क्योंकि यह स्वयंभू व सनातन है और यही भारत
की राष्ट्रीयता है ।
उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक सम्राज्य विस्तार के दौरान की जडों को
तलाशने के क्रम में वेदों के अध्ययन व संस्कृत भाषा के मंथन से यूरोपीय
विद्वानों-दार्शनिकों को जब ‘आर्य सभ्यता’ की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ, तब
उननें भाषा-विज्ञान का प्रतिपादन कर उसके सहारे कतिपय शब्दों व ध्वनियों
की संगति बैठा कर यह मिथक गढ दिया कि संस्कृत ‘इण्डो-यूरोपियन’
भाषा-परिवार की एक भाषा है तथा ‘आर्य’ मूलतया यूरोप के निवासी व ‘नूह’ की
सन्तान थे और श्वेत चमडी वाले थे, जो भारत पर आक्रमण करने के पश्चात
अश्वेत भारतवासियों से घुलने-मिलने के कारण थोडा प्रदूषित (‘अश्वेत’) हो
गए । जोजेफ ऑर्थर कॉमटे डी गोबिनो नामक एक फ्रांसिसी इतिहासकार ने मानव
की ‘गोरी श्रेणी’ और उसके भीतर ‘आर्य-परिवार’ की श्रेठता का सिद्धांत
प्रतिपादित किया , जिसके अनुसार उसने पृथ्वी पर तीन नस्लों की परिकल्पना
प्रस्तुत की- ‘श्वेत’ , ‘अश्वेत’ और ‘प्रदूषित’ । कालान्तर बाद अठारहवीं
शताब्दी में उन यूरोपियन बुद्धिबाजों ने ‘नस्ल-विज्ञान’ का आविष्कार कर
के इसे सिद्ध करना शुरू कर दिया । ब्रिटिश योजनापूर्वक प्रतिस्थापित और
बहु-प्रचारित विद्वान फ्रेडरिक मैक्समूलर ने वैदिक साहित्य के अनुवाद के
क्रम में वेदों की व्याख्या ‘दो नस्लों के पारस्परिक संघर्ष’ के रूप में
कर के यह विभेद स्थापित करने का प्रयास किया कि भारत के मूलवासी
द्रविड-अनार्य हैं, जो आर्यों द्वारा शोषित होते रहे हैं ; जबकि भारत में
बसे हुए आर्य स्वयं भी ‘हेम’ की संतति हैं, जो ‘नूह’ के शेष दो पुत्रों
की दासता के लिए अभिशप्त हैं । उसने भारतीयों में नस्ली-भेद निर्धारण के
बावत वेद-वर्णित विभिन्न वर्णों-समुदायों से सम्बद्ध लोगों के बीच की
शारीरिक विशिष्टतायें-भिन्नतायें खोजने का बहुत प्रयास किया , किन्तु कुछ
नहीं मिला; क्योंकि वर्ण-व्यवस्था शारीरिक भिन्नता अथवा नस्ल-भेद पर तो
आधारित थी नहीं । तब उसने थक हार कर ऋग वेद में किसी स्थान पर प्रयुक्त
‘अनास’ शब्द (जिसका सम्बन्ध नासिका से कतई नहीं है) के आधार पर यह
व्याख्यायित कर दिया कि वेदों में विभिन्न जनजातियों के लिए उनकी
नासिकाओं (नाकों) की अलग-अलग पहचान का वर्णन है ।
बाद में लन्दन स्थित ‘रॉयल एन्थ्रोपोलॉजिकल इंस्टिच्युट’ के एक
ब्रिटिश अधिकारी- हर्बर्ट होप रिस्ले ने मैक्समूलर की उसी अधकचरी
व्याख्या को अपनी सुविधानुसार खींच-तान कर एक ‘नासिका-तालिका’ ही बना दी,
जिसमें विभिन्न आकार-प्रकार की नाकों की लम्बाई-चौडाई-ऊंचाई के आधार पर
सम्बन्धित नाक वालों के नस्ल का निर्धारण कर दिया । इस नस्ल-निर्धारण का
सिर्फ एक ही उद्देश्य था- सामाजिक विखण्डन का बीज बोना और अपना
औपनिवेशिक साम्राज्यवादी उल्लू सीधा करते रहना । द्रविड और दलित दरारों
में पश्चिमी हस्तक्षेप विषयक पुस्तक- ‘ब्रेकिंग इण्डिया’ के लेखक-द्वय
राजीव मलहोत्रा व अरविन्दन नीलकन्दन के अनुसार नासिका-तालिका बनाने वाले
उस ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा भी है कि “ वह अपने नस्ल विज्ञान के सहारे
हिन्दू-जनसमुदाय से अनार्यों की एक बडी जनसंख्या को अलग कर देना चाहता
था” । उल्लेखनीय है कि रिस्ले द्वारा प्रतिपादित नस्ल-विज्ञान विषयक
नासिका तालिका के विभिन्न आंकडों के आधार पर ही अंग्रेजों ने भारत के
मैदानी क्षेत्रों में वास करने वाली विभिन्न जातियों को हिन्दू और जंगली
क्षेत्रों में रहनेवाली जनजातियों को गैर-हिन्दू के रूप में
चिन्हित-विभाजित कर भारतीयों को सात नस्ल-समूहों और दो प्रमुख
नस्ल-समुच्चयों- आर्य व द्रविड में विभाजित कर दिया । फिर तो सन १९०१ में
भारतीय जनगणना आयोग का अध्यक्ष बन रिस्ले ने अपनी उसी नासिका तालिका के
आधार पर जनगणना करा कर समस्त भारतीयों को २३७८ जातियों-जनजातियों और ४३
नस्लों में विभाजित कर दिया । रिस्ले द्वारा शुरू की गई वह जनगणना आज भी
हर दस वर्ष पर होती है ।
इस नस्ल-विज्ञान की उन रिलीजियस-मजहबी शक्तियों से गहरी सांठ-गांठ
है जो धर्म-विरोधी हैं और भारतीय राष्ट्रीयता के उन्मूलन-विखण्डन पर अमदा
हैं । यह तथाकथित विज्ञान एक ऐसा बौद्धिक उपकरण है, जिसके सहारे वे अपनी
रणनीतिक आवश्यकतानुसार सभ्यताओं की पहचान रचते-गढते रहते हैं ; कभी किसी
जाति-समुदाय को कहीं का मूलवासी घोषित कर देते हैं , तो कभी किसी को
विदेशी । वे इस तथ्य को भली-भांति जानते हैं कि धर्म ही भारत की
राष्ट्रीयता है और धर्म के संवाहक ब्राह्मण ही हैं, अतएव ब्राह्मणों को
विदेशी प्रचारित कर देने से धर्म के उन्मूलन और धर्मधारी भारत राष्ट्र के
विखण्डन का मार्ग तो प्रशस्त हो ही जाएगा ; रिलीजन-मजहब का विस्तार भी
आसान हो जाएगा । इस नस्ल-विज्ञान के षड्यंत्रकारी विधान का ही परिणाम
है कि दक्षिण भारत के लोग खुद को आर्यों से अलग- ‘द्रविड’ मानते हुए
अपनी अलग राष्ट्रीयता और पृथक संस्कृति की वकालत के साथ-साथ राष्ट्रभाषा-
हिन्दी के विरोध की मशक्कत भी करते रहे हैं ; जबकि वनवासी जनजातियां भी
वामपंथी-माओवादी शक्तियों और चर्च की ‘ श्वेत गतिविधियों ’ के बहकावे में
आकर अपनी पृथक पहचान का दावा करने लगी हैं । जे एन यु के वे शोधार्थी
इन्हीं शक्तियों के प्रवक्ता बन पिंगल-पाठ पढते-पढाते रहते हैं ।
मनोज ज्वाला

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